जयपुर। फ्रांस गर्भपात को संवैधानिक अधिकार देने वाला दुनिया का पहला देश बन गया है। फ्रांस के सांसदों ने 1958 के संविधान में बदलाव कर गत सोमवार को महिलाओं को गर्भपात से जुड़े मामले में पूरी तरह से फैसला लेने की आजादी दे दी है। इस संविधान संशोधन के पक्ष में 780 और विरोध में महज 72 वोट पड़े।
संवैधानिक अधिकार मिलने के बाद अब फ्रांस में महिलाओं को अबॉर्शन के लिए दूसरों पर निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। फ्रांस में लंबे समय से महिलाओं को गर्भपात करवाने का अधिकार दिये जाने की मांग की जा रही थी। इसके लिए एक सर्वे भी किया करवाया गया, जिसमें 85 प्रतिशत लोगों ने इसका समर्थन किया था।
महिलाओं को यह अधिकार देते हुए फ्रांस के प्रधानमंत्री ग्रेब्रियल अटल ने कहा कि यह नए युग की शुरुआत है। वहीं, विपक्षी सांसदों ने विरोध करते हुए कहा कि राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने चुनावी लाभ के लिए ये बदलाव किया है। विपक्षी सांसदों ने इसे अनावश्यक बताया है।
फ्रांस में अबॉर्शन को लेकर कानून 1975 से है। इतने सालों में इस कानून में 9 बार बदलाव किया जा चुका है। इसमें बदलाव के पीछे का मकसद ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को इसका लाभ दिलाना बताया गया है।
भारत में गर्भपात को नियंत्रित करने वाला कानून “मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी एक्ट 1971” पहले से बना हुआ है। ये कानून गर्भवती महिला को 20 हफ्ते तक गर्भपात कराने की इजाजत देता है। गर्भावस्था से गर्भवती महिला के मानसिक या शारीरिक स्वास्थ्य को खतरा हो या भ्रूण के गंभीर मानसिक रूप से पीड़ित होने की संभावना हो या प्रसव होने पर शारीरिक असामान्यताएं होने की स्थिति में चिकित्सकों की सलाह से गर्भपात करने की अनुमति दी जा सकती है।
इन दिनों भारत में गर्भपात के अधिकार को लेकर बहस छिड़ी है। एक महिला की और से 26 हफ्ते के गर्भ गिराने की अनुमति के लिए SC में याचिका दायर की गई थी। सुनवाई करते हुए कोर्ट ने कहा था कि 26 सप्ताह के हेल्दी भ्रूण के गर्भकालीन जीवन के अधिकार और प्रेगनेंट महिला को अपनी गर्भावस्था को समाप्त करने की पसंद के मामले में कानून और नैतिकता से जुड़ा सवाल सामने है। अदालत कि यह नैतिक दुविधा है कि बच्चे के जन्म का आदेश दिया जाए या मां की पसंद का सम्मान किया जाए।
यह मामला जस्टिस चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ के सामने उस समय आया जब दो जजों की पीठ ने महिला को 26-सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति देने के अपने 9 अक्टूबर के आदेश को वापस लेने की केंद्र की याचिका पर खंडित फैसला सुनाया। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 9 अक्टूबर को महिला को गर्भपात कराने की अनुमति दी थी कि वह डिप्रेशन से पीड़ित है। साथ ही 'भावनात्मक, आर्थिक और मानसिक रूप से' तीसरे बच्चे का पालन-पोषण करने की स्थिति में नहीं है।
सुनवाई के दौरान सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि हमने एम्स की रिपोर्ट देखी। याचिकाकर्ता महिला प्रसवोत्तर मनोविकृति से पीड़ित है। वह दवा ले रही है जिसका बच्चे पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ रहा है। उन्होंने उपचार के लिए वैकल्पिक व्यवस्था निर्धारित की है ताकि बच्चे को कोई खतरा न हो और बच्चे में कोई असामान्यता का पता न चले। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में एम्स मेडिकल बोर्ड से भ्रूण के हेल्थ पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर नई रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया था। इसके बाद तीनों न्यायाधीशों ने भ्रूण के स्वास्थ्य और बच्चे के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की आगे की जांच के लिए महिला को एम्स, दिल्ली भेज दिया था। इसके बाद कोर्ट ने गर्भपात की अनुमति देने से इनकार कर दिया।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कई महत्वपूर्ण टिप्पणी भी की थी। शीर्ष अदालत का कहना था कि निस्संदेह, महिला की स्वायत्तता पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। अदालत ने कहा था कि महिला को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अधिकार है, लेकिन समान रूप से, आपको इस तथ्य से भी अवगत होना चाहिए कि आप जो कुछ भी कर रहे हैं वह अजन्मे बच्चे के अधिकारों को प्रभावित करने वाला है। अदालत ने कहा था कि यह जीवित भ्रूण है। कोर्ट ने पूछा था कि महिला 26 सप्ताह तक क्या कर रही थी? इससे पहले दो बार गर्भधारण हुआ था। वह गर्भावस्था के परिणामों को जानती है। अदालत ने याचिकाकर्ता के वकील से पूछा था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भारत में अविवाहित महिलाओं को भी MTP एक्ट के तहत गर्भपात का अधिकार है।
कानून में कहा गया है कि ऐसे मामले में जहां गर्भावस्था गर्भनिरोधक विफलता का परिणाम है तो यह अपने-आप मानसिक सदमा माना जाएगा और गर्भपात की अनुमति होगी। इसी तरह 20 सप्ताह से कम के गर्भ के मामले में उन्हें आसानी से गर्भपात कराने की अनुमति होनी चाहिए, 20-24 सप्ताह के बीच, यह मामले के तथ्यों पर निर्भर करेगा कि अनुमति मिलती है या नहीं।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एएस बोपन्ना की तीन सदस्यीय पीठ ने अपने फ़ैसले में कहा कि एक अविवाहित महिला को सुरक्षित गर्भपात कराने की इजाज़त न देना उसकी निजी स्वायत्तता और आज़ादी का उल्लंघन होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एमटीपी एक्ट में संशोधन के जरिए अविवाहित महिलाओं को भी इसके दायरे में लाने की मंशा रही होगी। इसलिए संशोधित कानून में 'पति' की जगह 'पार्टनर' शब्द जोड़ा गया है।
कोर्ट ने ये भी कहा कि महिला को इस कानून के तहत मिलने वाले लाभ से केवल इसलिए वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि वो शादीशुदा नहीं है। कोर्ट के आदेश में ये कहा गया है कि बच्चे को जन्म देने या न देने की मर्ज़ी महिला को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मिले निजी स्वतंत्रता के अधिकार का भी अभिन्न हिस्सा है। न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अगर महिला को गर्भपात की मंजूरी नहीं दी गई तो ये क़ानून के उद्देश्य और भावना के विपरीत होगा।
द मूकनायक की प्रीमियम और चुनिंदा खबरें अब द मूकनायक के न्यूज़ एप्प पर पढ़ें। Google Play Store से न्यूज़ एप्प इंस्टाल करने के लिए यहां क्लिक करें.