वंचित समुदाय की महिलाओं को नेतृत्व की कमान देने से राजनीतिक पार्टियों को परहेज क्यों ?

दलित अधिकारों के पैरवीकारों से लेकर सामाजिक कार्यकर्ता मानते हैं कि महिलाओं को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने मात्र से काम नहीं चलेगा, उन्हें खासकर वंचित समुदाय की नेत्रियों को लीडरशिप भूमिका में आगे बढ़ने का मौका देना चाहिए। 
वंचित समुदाय की महिलाओं को नेतृत्व की कमान देने से राजनीतिक पार्टियों को परहेज क्यों ?
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जयपुर- भाजपा ने 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में 3 जगह सफलता का परचम लहराया। तीनों राज्यों में लीडरशिप परिवर्तन करते हुए नए चेहरों को मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री पदों पर नियुक्त किया। छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय सीएम और अरूण साव- विजय शर्मा उपमुख्यमंत्री बनाये गए । मध्यप्रदेश में मोहन यादव सीएम और राजेंद्र शुक्ला-जगदीश देवड़ा डिप्टी सीएम बने। राजस्थान में भजनलाल शर्मा मुख्यमंत्री तथा दिया कुमारी-प्रेमचंद बैरवा उपमुख्यमंत्री चुने गए। 

जिस पार्टी ने कुछ माह पहले संसद में महिला आरक्षण बिल को पास किया , वही पार्टी जब इन राज्यों में सत्ता पर काबिज हुई, महिलाओं को लीडर शिप देने में तंगदिल साबित हुई। तीन राज्यों में गवर्नेंस के तीन महत्वपूर्ण पदों पर 6 व्यक्ति लेकिन इनमें एक भी वंचित समुदाय की महिला नहीं- ये राजनीतिक विश्लेषकों के साथ महिलाओं को भी खूब अखरी। 

द मूकनायक ने राजस्थान की जानी मानी दलित अधिकार कार्यकर्ता सुमन देवथिया से बात की। सुमन सवाल सुनते ही हंस पड़ती हैं। वे बोलीं- " दलित या वंचित समुदाय की महिला लीडर का नाम आप पूछे तो सोचना पड़ जाता है और मायावती बहन के अलावा कोई और नाम सूझता ही नहीं-आप सोचिए ये हाल है।किसी भी राष्ट्रीय पार्टी ने हाशिये पर रहे समूह की महिलाओं को राजनीतिक तौर पर सशक्त करने का कोई ठोस प्रयास नहीं किया है जिसके कारण आज भी महिलाएं अपने अधिकारों से वंचित हैं। "  सुमन आगे कहती हैं ये बाबा साहब का संविधान ना हो और ऐसे प्रावधान ना बने होते तो पार्टियां महिलाओं को टिकट भी ना दें, इनकी नीयत ही नहीं है लेकिन केवल कानूनी प्रावधानों के कारण कुछ महिलाएं राजनीतिक भागीदारी निभा रही हैं लेकिन उन्हें लीडरशिप का मौका ही नहीं दिया जाता। क्यों किसी दलित या आदिवासी महिला विधायक को सीएम या डिप्टी सीएम नही बनाया गया? सुमन कहती हैं कि राजनीतिक दलों को संगठनात्मक स्तर और सरकारों को नीतिगत बदलाव करने होंगे ताकि वंचित समुदाय की महिलाएं भी अपना हक मांग सके। 

मजदूर किसान संघर्ष समिति के वॉलंटियर पारस  बंजारा ने द मूकनायक से बातचीत में कहा- ऐसा नहीं कि हमारे घुमंतू समुदाय या आदिवासी-दलित समाज की महिलाओं की क्षमता कम है या वे नेतृत्व नहीं कर सकती हैं। बल्कि सत्य यह है कि सामान्य वर्ग की  तुलना में वंचित समुदाय की महिला अपने परिवारों में निर्णय लेने की भूमिका निभाती हैं। घुमंतू वर्ग में महिला मुखियाएँ होती हैं , आदिवासी दलित परिवारों में महिलाएं आर्थिक रूप से आत्म निर्भर होती हैं। पारस कहते हैं कि वंचित वर्ग की महिलाएं वंचनाओं की पीड़ा जानती हैं तो वे सामान्य वर्ग की तुलना में बेहतर रूप से हाशिये पर खड़े समुदायों का कल्याण कर सकती हैं इसलिये इन्हें लीडरशिप रोल्स पर ज्यादा बढ़ावा देने की जरूरत है। 

सुप्रीम कोर्ट द्वारा 50 वर्ष से कम आयु की महिलाओं को केरल के शबरीमला मंदिर में प्रवेश देने के आदेश के बाद भारी जनविरोध के बीच मंदिर में प्रवेश करने वाली साहसी दलित व महिला अधिकार कार्यकर्ता बिंदु अम्मणि से द मूकनायक ने इस विषय पर बात की। बिंदु कहती हैं तीनों राज्यों में हालिया घोषित नेतृत्व समाज की पुरुष प्रधान मानसिकता का परिचायक हैं और वंचित समुदाय की एक भी महिला को कोई स्थान नहीं दिया जाना निराशाजनक है। " मध्यप्रदेश जहां 50 फीसदी आबादी दलित-आदिवासी हैं, वहां कम से कम नेतृत्व का मौका एक महिला को देना अपेक्षित था। लेकिन राजनीतिक दल विशेषकर भाजपा की मूल नीतियां मनुवादी विचारधारा से प्रभावित हैं जहां महिलाओं को निम्न दर्जे का समझा जाता है।

बिंदु कहती हैं , "द्रौपदी मुर्मू पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बनी लेकिन हम जानते हैं ये पद नाममात्र का है और सरकारी नीति निर्माण या निर्णय लेने के मामलों में राष्ट्रपति की कोई बहुत ज्यादा भूमिका नहीं होती, इसी तरह जब संसद में महिला आरक्षण बिल पास हुआ तो केंद्र सरकार की वास्तविक मंशा यदि महिलाओं को राजनीतिक रूप से सशक्त करने की होती तो ये विधानसभा चुनाव बहुत अच्छा मौका था जबकि सरकार महिलाओं के पक्ष में होने का अपना इरादा व्यक्त कर सकती थी जो नहीं हुआ। " वे आगे कहती हैं कि महिला आरक्षण की हिमायत और समर्थन करना राजनीतिक दलों का पब्लिसिटी स्टंट मात्र है, वास्तविक नीयत या मंशा नहीं। 

झारखंड में डायन प्रथा के विरुद्ध लंबे समय से संघर्ष कर रही 75 वर्षीया पद्मश्री से सम्मानित छुटनी महतो ने भी इस विषय पर बेबाक राय रखी। महतो कहती हैं केवल 33 प्रतिशत सीटों पर महिला आरक्षण देने से बात नहीं बनेगी-सरकारें चाहती हैं कि उनके राज्यों में पिछड़ी जातियां, आदिवासी और हाशिये पर रहने वाले लोग आगे आये तो कमान महिलाओं को देना होगा। वे ही अपने परिवार और समुदायों की पीड़ा समझती हैं और व्यवहारिक नीतियों के जरिये उनकी समस्याओं का समाधान दे पाएंगी। 

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