उदयपुर। मेवाड़ में हरियाली अमावस का बडा महत्व है। श्रवण मास की अमावस पर उदयपुर में हर साल दो दिन का मेला भरता है जो समूचे देश में प्रसिद्ध है. मेला सबसे अनूठा यूं भी है क्योंकि ये ना सिर्फ प्रकृति और संस्कृति के मेल का प्रतीक है बल्कि महिला सशक्तिकरण का भी द्योतक है क्योंकि शायद ही विश्व में कहीं ऐसा कोई लोक पर्व/मेला आयोजन हो जो केवल महिलाओं के लिए समर्पित हो। दो दिन लगने वाले मेले में पहला दिन सभी के लिए खुला होता है लेकिन दूसरे दिन केवल महिलाओं को ही प्रवेश दिया जाता है।
उदयपुर नगर निगम द्वारा मेले का आयोजन किया जाता हैं। भारी संख्या में आने वालों की भीड़ देखते हुए यातायात की पुख्ता व्यवस्था की जाती है और मेला क्षेत्र में वाहन निषेध होता है। पुलिस प्रशासन द्वारा सुरक्षा के कड़े प्रबंध किए जाते हैं वहीं दमकल और मेडिकल टीमें भी तैनात रहती हैं। मेले में खाने पीने के अलावा सौंदर्य प्रसाधनों, वस्त्रों, खिलौनों, घर और किचन में काम आने वाले सभी वस्तुओं के स्टॉल लगते हैं।
सोमवार को उदयपुर शहर के बीचों बीच सहेलियों की बाड़ी इलाके से लेकर फतहसागर झील की पाल तक मेलार्थियों की धूम रही। शहर वासियों के साथ ग्रामीणों ने जमकर मेले का लुत्फ उठाया। डोलर चकरी आदि झूलों के साथ नाना प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजनों का आनंद उठाया। रिमझिम फुहारों ने मौसम को और सुहाना बना दिया और चारों ओर खुशी और उल्लास का माहौल दिखाई दिया। आदिवासी अंचल से आये ग्रामीणों की रंग बिरंगी पोशाकें, मेलार्थियों के खिलखिलाते चेहरे पुपाड़ी के शोर और फतहसागर पर कलकल गिरती जलधारा आदि अद्भुत नज़ारे साकार हुए।
मेघों के मौसम का यह मजेदार मेला कई सालों से उदयपुर में लगता है। लोक कला और संस्कृति के विशेषज्ञ डॉ श्री कृष्ण जुगनु बताते हैं कि 1898 से यहां मेला लगता आ रहा है। देवाली का तालाब का विस्तार हुआ तो फतहसागर बना। महाराणा फतहसिंह ने इस तालाब का काम किया। जब भर गया तो दरबारियों और सूत्रधारों ने कहा, हुजूर देखबा पधारो। आपरौ काम कियां हुयौ है। फतहसिंह सहमत हुए तो पाल पर मेला लगा। महलों के कोठार से ही सामग्री दी गई। जुगनु बताते हैं , "शहर में मुनादी पिटवाई गई कि मेला लगेगा। हुजूर दरसण देवेला। लोग पहुंचे। दो-दो आनी बांटी गई। लोगों ने सरोवर देखा भी और आनियों से मालपुए का स्वाद भी लिया।"
जुगनु बताते हैं, "फतहसिंह के साथ रानी चावडीजी भी थी। पाल को देखकर वे नीमज माता के दर्शन के लिए गए। वहीं पर रानी ने एक दिन मेला औरतों के नाम करने की ख्वाहिश की। और इस तरह हरियाली का मेला दो दिन का हो गया। पहले दिन सबका मिला जुला, दूसरे दिन आधी दुनिया का.... मेला रे था मजौ बोथ आयो, काजळ घुऴयो आंख, हिंगळू गालां पे छायौ..."।
हमारी भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही पर्यावरण संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है। पर्यावरण को संरक्षित करने की दृष्टि से ही पेड़-पौधों में ईश्वरीय रूप को स्थान देकर उनकी पूजा का विधान बताया गया है। इस पर्व का जितना धार्मिक महत्व है उतना ही वैज्ञानिक औचित्य भी है। हरियाली अमावस्या पर्यावरण संरक्षण के महत्व और धरती को हरी-भरी बनाने का संदेश देती है। पेड़-पौधे जीवंत शक्ति से भरपूर प्रकृति के ऐसे अनुपम उपहार है जो सभी को प्राणवायु ऑक्सीजन तो देते ही हैं, पर्यावरण को भी शुद्ध और संतुलित रखते हैं। आज जब मौसम पूरे विश्व में बदल रहा है तब यह अमावस्या महज एक धार्मिक पर्व नहीं है बल्कि पृथ्वी को हरी-भरी बनाने का संकल्प पर्व भी है।
यह भी पढ़ें-
द मूकनायक की प्रीमियम और चुनिंदा खबरें अब द मूकनायक के न्यूज़ एप्प पर पढ़ें। Google Play Store से न्यूज़ एप्प इंस्टाल करने के लिए यहां क्लिक करें.