पटना। पद्मश्री सुधा वर्गीस ने बिहार और उत्तर प्रदेश के दलित समुदाय ‘मुसहर’ के लिए समर्पित संस्था ‘प्रेरणा’ की स्थापना की है। यह संस्था सबसे वंचित समूह की लड़कियों को मुख्यधारा में लाने के लिए समर्पित है। इससे उन हजारों लोगों के लिए नए रास्ते खुल रहे हैं जो लंबे समय से हाशिये पर रहे हैं।
इस तरह के एक संस्थान की स्थापना करने और सुदूर हाशिये पर रह रहे समुदायों के उत्थान के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने का विचार सुधा को 1960 के दशक की शुरुआत में आया जब वह अपनी किशोरावस्था में थीं। सुधा मूलरूप से केरल के कोट्टायम जिले से हैं। मुसहर समुदाय की ओर सबसे पहले उनका ध्यान स्कूल की लाइब्रेरी में एक पत्रिका में प्रकाशित कुछ तस्वीरों ने खींचा था। उन भयावह तस्वीरों में बिहार के मुसहर समुदाय के लोगों की दुर्दशापूर्ण स्थिति ने उनको झकझोर दिया। ‘मुसहर’ शब्द का प्रयोग बिहार और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में रहने वाले उस दलित समुदाय के लिए किया जाता है जो अत्यंत पिछड़ा वर्ग है, और भुखमरी से बचने के लिए चूहे खाकर गुजारा करते हैं।
इस समुदाय के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन ने सुधा को हमेशा के लिए बदल दिया। क्योंकि ऐसी स्थिति उन्होंने अपने राज्य में कभी नहीं देखी थी। मुसहर समुदाय की इस दयनीय स्थिति को देखकर उन्होंने इस वंचित समुदाय के लिए काम करने का फैसला किया।
वह 1965 में बिहार चली गईं और पटना में नोट्रे डेम अकादमी में काम करने लगीं जहां उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी सीखी। 1986 में अपने आरामदायक जीवन को पीछे छोड़ते हुए, उन्होंने मुसहरों के साथ रहना शुरू कर दिया और उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए अपना पूरा समय और संसाधन समर्पित करके उन्हें शिक्षित करना शुरू किया। वह पटना जिले के छह उप-मंडलों (तहसील) में से एक दानापुर के एक गाँव में चली गईं और एक झोपड़ी में रहने लगीं।
‘द मूकनायक’ से बातचीत में 74 वर्षीय सुधा बताती है, “मैंने जो निर्णय लिया वह आसान नहीं था लेकिन मैं इसके लिए तैयार थी। जब मैंने वहां रहना शुरू किया तो पहली रात कई कुत्तों और बिल्लियों से पाला पड़ा। चूंकि झोपड़ी में पानी भर रहा था, इसलिए मुझे लगातार बर्तनों की मदद से बारिश पानी बाहर फेंकना पड़ता था।”
सुधा की आगे की लड़ाई न केवल अत्यधिक गरीबी के खिलाफ थी बल्कि छुआछूत और जातिवाद की सदियों पुरानी प्रथाओं के खिलाफ भी थी। भेदभाव का सामना करने वाले मुसहर भूमिहीन थे, शिक्षा तक उनकी पहुंच नहीं थी और वे 'उच्च जाति' के लोगों के खेतों में काम करके अपना जीवन-यापन करते थे, जो अक्सर दलित वर्ग की लड़कियों और महिलाओं के साथ बलात्कार और यौन उत्पीड़न करते थे।
इस समुदाय में अपने कानूनी अधिकारों के प्रति जागरूकता का अभाव था। उन्हें तो यह भी नहीं पता था कि उनके साथ जो यौन शोषण हुआ है, वह अपराध है, जिसकी रिपोर्ट दर्ज कराना जरूरी है। लेकिन समुदाय को यह पता नहीं था कि इसे कैसे करना है। इस समुदाय के लोग अपने बोलने के अधिकार को लेकर डरे हुए थे क्योंकि उन्हें इसके दुष्परिणामों का डर था। प्रचलित सामाजिक संरचना में उन्हें हमेशा से यह बताकर सबसे निचले पायदान पर रखा गया था कि यही उनका भाग्य है।
इस समुदाय के न बोलने और सरासर अन्याय के खिलाफ आवाज न उठाने के पीछे आर्थिक कारण भी थे। सुधा बताती है, “चूंकि समुदाय तथाकथित ‘उच्च जाति’ के लोगों की कृषि भूमि पर काम करता था जो उनकी आजीविका का एकमात्र स्रोत था, इसलिए इसके सदस्य अपने सामंती जमींदारों के खिलाफ कुछ भी कहने से डरते थे।" वह आगे कहती है, “जब वे ऊंची जाति के लोगों के यहां जाते थे तो वे जमीन पर बैठते थे यहां तक कि कभी खाली कुर्सी पर भी बैठने की हिम्मत नहीं करते थे। यह एक ऐसी धारणा थी कि समाज में उनका स्थान सबसे निचले पायदान पर है।”
सामाजिक रूप से बहिष्कृत महिलाओं को संघर्ष करने में समर्थन देने के उद्देश्य से, सुधा ने 1987 में ‘नारी गुंजन’ (महिलाओं की आवाज़) नामक एक एनजीओ की स्थापना की।
वह एक ऐसी घटना के बारे में बताती है, जो पुलिस प्रशासन में भी गहरे तक व्याप्त भेदभाव को दर्शाती है। वह कहती है, “एक बार मैं यौन हिंसा की एक पीड़िता को पुलिस स्टेशन ले गई। वहां तैनात पुलिसकर्मी की प्रतिक्रिया चौंकाने वाली थी। उसने कहा कि ऐसे गंदे कपड़े पहनने वाली लड़की के साथ कौन बलात्कार करेगा?” उन्होंने आरोप लगाया कि किसी ने भी पुलिस स्टेशन जाकर दुर्व्यवहार की शिकायत करने की हिम्मत नहीं की, क्योंकि पुलिसकर्मी भी उनका शोषण करते थे।
चूंकि सुधा खुद पेशे से एक वकील थी इसलिए उन्होंने वह इस स्थिति से निपटने में सफल रही। दो साल से भी कम समय में वह उस क्षेत्र में हुए नौ बलात्कार के मामलों की रिपोर्ट करने में सफल रही। वह कहती है, “समुदाय की स्थिति किसी विशेष क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है; वे इसे हर जगह अनुभव कर रहे थे। और इसलिए, इससे लड़ना किसी एक व्यक्ति के लिए बहुत मुश्किल था।”
इस काम में आई मुश्किलों पर बात करते हुए सुधा बताती है कि वंचितों की आवाज उठाने की कीमत मुझे भी चुकानी पड़ी। वह कहती है, “मुझे गाँव से बाहर निकालने का प्रयास किया गया। लोगों को मेरे खिलाफ भड़काया गया। मुझे जान से मारने की धमकियों का भी सामना करना पड़ा। लेकिन मैंने हार नहीं मानने का फैसला कर लिया था, चाहे कुछ भी हो जाए।”
सुधा का यह जज्बा और साहस अब उनके द्वारा किए गए कामों के सकारात्मक परिणामों में झलकने लगा है। उनके प्रयासों से कम समय में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति काफी जागरूक हो गईं। उनके खिलाफ हिंसा और अन्याय को सहन करने के उनके रवैये में महत्वपूर्ण बदलाव आया। वे अब ऐसी घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज करवाने लगे थे। सुधा मुस्कुराते हुए कहती है कि जब पुलिस उनकी बात नहीं सुनती तो वे बार-बार मुझे फोन करने लगे।
सुधा वंचित समुदायों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए शिक्षा को सबसे बड़ा साधन बताती है। वह कहती है, “मैंने महसूस किया कि अगर आपको किसी समुदाय में सुधार लाना है और कोई बड़ा बदलाव लाना है, तो इसकी युवा पीढ़ी को शिक्षित करना होगा। यह करने के लिए हमें ऐसे स्कूलों की जरूरत है जहां न केवल उन्हें शिक्षा दी जाए बल्कि उन्हें ऐसी सीख दी जाए जिससे वे जीवन के प्रति अपना नजरिया भी बदल सकें।”
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