नई दिल्ली। इंटरनेट के प्रसार से हम सबके जीवन में एक बड़ा बदलाव आया है। इससे वास्तविक दुनिया के इतर एक आभासी दुनिया यानी डिजिटल स्पेस में भी लोगों की पहचान बनी है। आजकल यह ज्यादातर लोगों के रोजमर्रा के जीवन का एक अहम हिस्सा बन चुका है। डिजिटल स्पेस लैंगिक समानता की लड़ाई और महिलाओं और हाशिए पर रहने वाले समुदायों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक भागीदारी के लिए नए रास्ते, अवसर और मंच तो प्रदान करता है। लेकिन यही स्पेस कई बार लैंगिक असमानता और महिलाओं के विरुद्ध हो रहे हिंसा को बढ़ावा देता है।
जैसे-जैसे डिजिटल तकनीक का हमारे दैनिक जीवन में हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है, यह लिंग-आधारित हिंसा के नए और बढ़ते रूपों को भी बढ़ावा दे रही है। महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ ऑनलाइन हिंसा हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ी है, जिससे ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरह से महिलाओं की सुरक्षा के लिए खतरे पैदा हो गए हैं।
प्रौद्योगिकी, डिजिटल उपकरण और इंटरनेट की विशाल क्षमता के बावजूद, इसने लैंगिक असमानताओं को भी कायम रखा है और महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ उत्पीड़न के नए रूप पेश किए हैं। डिजिटल स्पेस में लिंग-आधारित हिंसा कई रूपों में होती है, जिसमें साइबरबुलिंग, ऑनलाइन उत्पीड़न, अभद्र भाषा, डॉक्सिंग, अंतरंग तस्वीर का दुरुपयोग, ट्रोलिंग या डीप फेक शामिल हैं।
16 से 58 प्रतिशत महिलाओं को बनाया गया ऑनलाइन हिंसा का निशाना
डिजिटल स्पेस में महिलाओं, लड़कियों और LGBTQIA+ व्यक्तियों को उनके लिंग के कारण निशाना बनाया जाता है। दुनिया भर में हुए एक रिसर्च में यह पता चलता है कि 16 से 58 प्रतिशत महिलाओं और लड़कियों को ऑनलाइन हिंसा का निशाना बनाया गया है। इस प्रकार की हिंसा का प्रभाव डिजिटल क्षेत्र से बाहर तक भी फैला हुआ है, जो असमानताओं को बढ़ा रहा है और ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों तरह से महिलाओं के अधिकारों और सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण खतरा पैदा कर रहा है।
“यह सब काफ़ी डरावना है”
इस बारे में हमसे बात करते हुए 23 वर्षीय हर्षा कहती हैं, “अगर हमारे आसपास की कोई लड़कियाँ सोशल मीडिया पर अपना विचार रखती हैं या अपनी कोई अच्छी तस्वीर पोस्ट करती है तो उसके कमेंट बॉक्स में जाके लोग अजीब-अजीब तरह के कमेंट करते हैं, बॉडीशेमिंग करते हैं। यहाँ तक कि लोग पर्सनल मैसेज करके भी लड़कियों को डराते-धमकाते और उत्पीड़न करते हैं।”
आगे वह जोड़ती हैं, “ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ है। मैं एक बार ट्रेन में किसी व्यक्ति से मिली, वह मेरे लिये बिल्कुल अनजान था। वह मेरे बारे में कुछ नहीं जानता था, उसके पूछने पर मैंने बस उसे अपना नाम बताया था, लेकिन दूसरे दिन जब मैं घर पहुँची तो मैंने देखा उसने इंस्टाग्राम पर मुझे रिक्वेस्ट भेजा है और ढेर सारे मैसेज किए हैं…मैं बिलकुल हैरान थी क्योंकि इतने सारे लोगों में कोई आपको सिर्फ़ नाम बता देने से कैसे ढूँढ सकता है? मेरे नाम के हज़ारों लोग सोशल मीडिया पर मौजूद हैं, मैं कोई फेमस व्यक्ति भी नहीं हूँ। यह सब काफ़ी डरावना है।”
“एक पूरी आइडियोलॉजी आपको ट्रोल कर रही होती है”
ऐसा देखा जाता है कि सोशल मीडिया पर कई बार उन महिलाओं को ज़्यादा टारगेट किया जाता है जो अपनी बातों, मुद्दों और चीज़ों को लेकर मुखर हैं। वे महिलाएं जो लगातार अपनी बातें, अपने विचार सोशल मीडिया पर साझा करती हैं, लिखती-बोलती हैं, उन्हें विशेष तौर पर टारगेट किया जाता है और अलग-अलग तरीक़ों से उन्हें हैरेस किया जाता है।
इस बारे में ‘द मूकनायक’ से बात करते हुए 28 वर्षीय पत्रकार रीतिका कहती हैं, “जैसे ही आप किसी महिला पत्रकार या जेंडर माइनॉरिटीज़ के साथ हो रहे ऑनलाइन बुलिंग या ट्रॉलिंग की बात करते हैं तो वह ऑर्गेनाइज्ड ट्रॉलिंग होती है। आपको कोई एक इंसान ट्रोल नहीं कर रहा होता है, एक पूरी आइडियोलॉजी आपको ट्रोल कर रही होती है।”
भारत की वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य की ओर इशारा करते हुए रीतिका कहती हैं, “एक ख़ास पॉलिटिकल आइडियोलॉजी जो इस वक़्त है वह आपको ट्रोल करती है। जब भी आप कुछ ऐसा लिखते, बोलते और साझा करते हो जिसको वे नहीं मानते हैं तो आपको पर्सनल टारगेट किया जाता है, गालियाँ दी जाती है, रेप थ्रेट दिए जाते हैं और यहाँ तक की आपकी फ़ैमिली तक लोग पहुँच जाते हैं।”
आगे अपना अनुभव जोड़ते हुए वह कहती हैं, “जब यह सब आपके साथ लगातार होता है तो आप कई बार असंवेदनशील हो जाते हैं जोकि बहुत बुरा है। आप कितने ही लोगों को ब्लॉक करोगे, कितना पुलिस कंप्लेन करोगे…लेकिन यह उस वक़्त बहुत डरावना हो जाता है जब ये चीज़ें आपकी फ़ैमिली तक पहुँच जाती है, जो रेप थ्रेट आपको दिया जाता है वह आपके फ़ैमिली को भी दिया जाने लगता है। मैं फ़ेसबुक पर लगातार ऐक्टिव थी और मुद्दों पर लिखती-बोलती थी लेकिन जब मुझे लगातार इस तरह के थ्रेट मिलने लगे तो मैंने फ़ेसबुक पर ऐक्टिव रहना छोड़ दिया…अब मैं इंस्टाग्राम और ट्विटर पर शिफ्ट हो गई हूँ लेकिन लिखना-बोलना नहीं छोड़ा है।” रीतिका पेशे से एक पत्रकार हैं। वे सोशल इशूज़, महिलाओं के मुद्दे और देश में और आसपास हो रही चीज़ों पर लगातार लिखती-बोलती रहती हैं।
आपको इंस्टाग्राम पर 50 सदस्यीय 'बॉयज़ लॉकर रूम' जैसा समूह याद होगा जिसमें कथित तौर पर दक्षिण दिल्ली के प्रमुख स्कूलों के किशोर लड़के शामिल थे, उस समय कथित तौर पर आपराधिक, अश्लील और अनुचित सामग्री के लिए उन्हें रिपोर्ट किया गया था। इंस्टाग्राम, फ़ेसबुक और अलग-अलग सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर आज भी ऐसे कई ग्रुप्स और पेज हैं जो महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा, साइबरबुलिंग, अभद्र भाषा, ऑनलाइन उत्पीड़न, डॉक्सिंग, अंतरंग तस्वीर का दुरुपयोग, डीप फेक और ट्रोलिंग कर महिलाओं और लड़कियों को निशाना बनाते हैं।
एक आम लड़की से लेकर बॉलीवुड अभिनेत्री तक हर कोई इसका शिकार
पिछले साल अभिनेत्री रश्मिका मंदाना डीपफेक का शिकार हुई थीं। रश्मिका मंदाना के बाद आलिया भट्ट, कैटरीना कैफ, प्रियंका चोपड़ा जैसी बॉलीवुड की कई एक्ट्रेसेज डीपफेक का शिकार हो चुकी हैं। हाल ही में नोरा फतेही भी डीपफेक का शिकार बनीं। एक्ट्रेस ने अपने सोशल मीडिया पर अपने डीपफेक वीडियो के वायरल होने की जानकारी दी। वायरल हो रहे वीडियो में नोरा फतेही एक कंपनी का ऐड करते दिख रही थीं जो असल में वह थी ही नहीं।
पुरुषों की तुलना में महिलाओं को ऑनलाइन उत्पीड़न का सामना करने की संभावना 27 गुना अधिक
UN वीमेंस की एक रिपोर्ट के मुताबिक़, अरब राज्य क्षेत्र में 2021 में संयुक्त राष्ट्र महिला अध्ययन में यह बात सामने आई कि 60 प्रतिशत महिला इंटरनेट उपयोगकर्ता उस वर्ष ऑनलाइन हिंसा का शिकार हुई थीं। वहीं एक यूरोपीय अध्ययन में पाया गया कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को ऑनलाइन उत्पीड़न का सामना करने की 27 गुना अधिक संभावना है, और एक अन्य विश्लेषण में पाया गया कि 92 प्रतिशत महिलाओं ने बताया कि ऑनलाइन हिंसा उनके जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।
73 प्रतिशत महिला पत्रकारों ने ऑनलाइन हिंसा का अनुभव किया
संयुक्त राष्ट्र महिला की रिपोर्ट के अनुसार, महिला पत्रकारों के खिलाफ ऑनलाइन हिंसा पर एक अध्ययन में पाया गया कि 73 प्रतिशत महिला पत्रकारों ने ऑनलाइन हिंसा का अनुभव किया है। 15 लैटिन अमेरिकी और कैरेबियाई देशों में महिलाओं के साथ साक्षात्कार के आधार पर किए गए शोध में पाया गया कि 80 प्रतिशत महिलाओं ने अपनी शारीरिक सुरक्षा और जीवन के लिए कुछ विषयों और चिंताओं पर अपनी राय व्यक्त करने के डर के कारण अपनी ऑनलाइन भागीदारी को प्रतिबंधित कर दिया। वहीं, एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि अफ्रीका में 46 प्रतिशत महिला सांसद ऑनलाइन सेक्सिस्ट हमलों का शिकार हुईं। युवा महिलाओं, लड़कियों, LGBTQIA+ व्यक्तियों, विकलांग महिलाओं और महिलाओं के नस्लीय, अल्पसंख्यक और प्रवासी समूहों को डिजिटल हिंसा के और भी बदतर रूपों का सामना करना पड़ता है।
युवा महिलाओं को किया जाता है टारगेट
वैश्विक शोध के अनुसार, ज्यादातर महिलाएं 14 से 16 साल की उम्र के बीच सोशल मीडिया उत्पीड़न के अपने पहले अनुभव की रिपोर्ट करती हैं, एक अध्ययन में पाया गया कि सर्वेक्षण में शामिल 58 प्रतिशत युवा महिलाओं और लड़कियों ने किसी न किसी रूप में ऑनलाइन उत्पीड़न की रिपोर्ट की।
एक तरफ़ जहां सोशल मीडिया ने दुनिया के किसी भी कोने में बैठे हर इंसान को एक मंच और अवसर प्रदान किया है तो वहीं इस स्पेस पर महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ़ हिंसा तेजी से बढ़ी है। इस बारे में बात करते हुए 17 वर्षीय रीना शर्मा जो कक्षा 11वीं में पढ़ती है। वह बिहार के एक छोटे से गाँव में रहती है, उसे रील्स बनाना बहुत पसंद है। वह इंस्टाग्राम पर फ़िल्मी गानों पर और अलग-अलग तरह के रील्स बनाकर डालती है। हमसे बात करते हुए रीना बताती हैं, “मुझे रील्स बनाना बहुत पसंद है दीदी लेकिन लोग बहुत तंग करते हैं। मैं जब भी कोई वीडियो पोस्ट करती हूँ तो लोग कमेंट में आके गंदे-गंदे कमेंट करते हैं, मैसेज बॉक्स में आके तंग करते हैं, मैं इन सब परेशान हो गई हूँ…अब बहुत कम वीडियो बनाती हूँ।”
क्या डिजिटल स्पेस की यह क्रांति उतनी सुंदर है जितनी नज़र आती है?
हमसे बात करते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रही वर्षा कहती हैं, “डिजिटल स्पेस, इंटरनेट की दुनिया, सोशल मीडिया ये सब आज के वे बहुचर्चित शब्द हैं जिनके बगैर हमारी ज़िंदगी रुक सी जाती है। अभी दो दिन पहले कुछ घंटों के लिए शट डाउन हुए फेसबुक, इंस्टाग्राम ने हमें इतने कम समय में ही बहुत बेचैन कर दिया। स्त्रियों के लिए तो कहीं न कहीं यह डिजिटल स्पेस उस आज़ादी की एक कड़ी के रूप में ही उभरा जिसे वह सदियों से खोज रही हैं। “इस लड़की की ज़बान कैंची की तरह चलती है” के ताने से बच कर वह इंटरनेट पर बहुत कुछ अभिव्यक्त कर सकती है। समाज परिवार के सीमित दायरे से हटकर दुनिया में जिससे चाहे मित्रता कर सकती है। अपने मोबाइल की स्क्रीन पर जैसा सिनेमा चाहे वैसा सिनेमा देख सकती है। बहुत कुछ नया सीख और सीखा सकती है। परंतु क्या डिजिटल स्पेस की यह क्रांति उतनी सुंदर है जितनी नज़र आती है? सोशल मीडिया के कॉमेंट सैक्शन बार–बार इस बात की दुहाई देते हैं कि विचारों और सोच के स्तर पर जो क्रांति होनी चाहिए थी वह नहीं हुई है।”
आगे वह जोड़ती हैं, “भद्दी गलियां, व्यक्तिगत आक्षेप, चरित्र हनन इस बात के साक्ष्य हैं कि हम पितृसत्ता को “रियल से रील की दुनिया” में ले आए हैं। फोटोशॉप जैसी तकनीक के दुरुपयोग के चलते अधिकतर महिलाएं अपने अकाउंट्स प्राइवेट रखती हैं। विज्ञापनों में महिलाओं का वस्तुकरण अब सोशल मीडिया की दुनिया पर भी आम हो चुका है। महिलाएँ डिजिटल स्पेस में उनके साथ हुए अपराधों के खिलाफ़ लीगल हैल्प लेने के स्थान पर खुद को ही और सीमित और दोषी समझ लेती हैं। स्पष्ट है कि यह डिजिटल स्पेस जितना क्रांतिकारी है उतना ही चुनौतियों से भरा हुआ भी। अब यह हम पर निर्भर करता है कि या तो हम इन चुनौतियों से डर कर ख़ुद को और सीमित कर लें या इस संभावनाओं से भरी इंटरनेट की दुनिया को अपने अनुरूप ढालने, संवारने का हर संभव प्रयास करें।”
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