राजस्थान: बकरियां चराती हैं, घर संभालती हैं, फिर पढ़ने जाती हैं ये बेटियां!

(11 अक्टूबर- अंतराष्ट्रीय बालिका दिवस विशेष) दक्षिण राजस्थान विशेषकर जनजाति अंचल में बालिकाओं के अधिकारों के संरक्षण हेतु सबसे प्राथमिक आवश्यकता शिक्षा की है। आज भी दूर-दराज बिखरी आबादी में विद्यालय की उपलब्धता न होने पर या निकटम विद्यालय की घर से दूरी ज्यादा होने पर बालिकाएं शिक्षा की मुख्य धारा से नही जुड़ पाती। बालिकाएं घर के कार्य या अपने छोटे भाई-बहनों का ध्यान रखने से लेकर बकरियां चराने तक के कार्यों में अधिक मात्रा में व्यस्त रहती हैं।
दूर-दराज बिखरी आबादी में विद्यालय की उपलब्धता न होने पर या निकटम विद्यालय की घर से दूरी ज्यादा होने पर बालिकाएं शिक्षा की मुख्य धारा से नही जुड़ पाती।
दूर-दराज बिखरी आबादी में विद्यालय की उपलब्धता न होने पर या निकटम विद्यालय की घर से दूरी ज्यादा होने पर बालिकाएं शिक्षा की मुख्य धारा से नही जुड़ पाती। द मूकनायक
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उदयपुर / सलूंबर- दुनियाभर में बालिकाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने, उनके सेहतमंद जीवन से लेकर शिक्षा और करियर तक के विभिन्न मुद्दों पर जागरूकता लाने के उद्देश्य से हर साल 11 अक्टूबर को अंतराष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है l 

दक्षिण राजस्थान विशेषकर जनजाति अंचल में बालिकाओं के अधिकारों के संरक्षण हेतु सबसे प्राथमिक आवश्यकता शिक्षा की है। आज भी दूर-दराज बिखरी आबादी में विद्यालय की उपलब्धता न होने पर या निकटम विद्यालय की घर से दूरी ज्यादा होने पर बालिकाएं शिक्षा की मुख्य धारा से नही जुड़ पाती। बालिकाएं घर के कार्य या अपने छोटे भाई-बहनों का ध्यान रखने से लेकर बकरियां चराने तक के कार्यों में अधिक मात्रा में व्यस्त रहती है । जानकर हैरत होगी कि जनजाति बाहुल जिलों उदयपुर, प्रतापगढ़ राजसमंद और सलूम्बर जिलों में 7 हजार से ज्यादा बालिकाएं या तो कभी स्कूल नहीं गई, जो गई भी हैं वो अपनी शिक्षा जारी नहीं रख सकी या फिर अनियमित रूप से स्कूल जा रही हैं। प्रदेश में इस तरह की बालिकाओं की तादाद और भी ज्यादा हैं.

राजस्थान सरकार द्वारा विगत कुछ समय से सभी प्राइमरी स्कूलों को बंद कर मिडिल स्कूल्स के साथ मर्ज किए जाने से भी मासूम बच्चियां पढ़ाई से दूर हो रही हैं। कारण यह कि प्राथमिक विद्यालय गांव के पास ही होने से अभिभावक बेटियों को पढ़ने भेज देते थे लेकिन माध्यमिक स्कूल में मर्ज किए जाने के बाद गांव के प्राइमरी स्कूल बंद हुए और लड़कियों को दूर पढ़ने भेजने की बात पर रूढिवादी मानसिकता के साथ उनकी सुरक्षा की चिंता भी हावी हो जाती है। 

समाज की इस महत्वपूर्ण कड़ी को शिक्षा से जोड़ने की दिशा में आई.आई.एफ.एल फाउंडेशन की पहल से संचालित 'सखी की बाड़ी' नवाचार निश्चित ही मील का पत्थर साबित हुआ है । इस प्रोजेक्ट के जरिये राजस्थान में करीब 36 हजार बालिकाओं को 1218 सामुदायिक पाठशालाओं के जरिये शिक्षा की जद में लिया गया है। 5000 से अधिक लड़कियां उच्च शिक्षा से जुड़ सकी हैं। 

सखियो की बाड़ी पिछड़े तबके खासकर जनजाति वर्ग की बालिकाओं की शिक्षा के लिए सार्थक प्रयास कर रहा है।
सखियो की बाड़ी पिछड़े तबके खासकर जनजाति वर्ग की बालिकाओं की शिक्षा के लिए सार्थक प्रयास कर रहा है। द मूकनायक

राजस्थान बाल आयोग, राजस्थान सरकार के पूर्व सदस्य एव बाल अधिकार विशेषज्ञ डॉ. शैलेन्द्र पण्डया ने द मूकनायक को बताया कि आई.आई.एफ.एल फाउंडेशन एवम् गायत्री सेवा संस्थान द्वारा संचालित निःशुल्क शिक्षा केंद्र सखियो की बाड़ी पिछड़े तबके खासकर जनजाति वर्ग की बालिकाओं की शिक्षा के लिए सार्थक प्रयास कर रहा है। 

कार्यक्रम की सहायक समन्वयक निकिता शर्मा ने बताया आई .आई.एफ.एल फाउंडेशन व गायत्री सेवा संस्थान उदयपुर द्वारा दक्षिण राजस्थान के सलूंबर पंचायत में 45, सराडा में 50, लसाडिया में 49, गिर्वा में 04 व प्रतापगढ़ जिले में 100 केन्द्र इस प्रकार कुल 248 सखियो की बाड़ी का संचालन किया जा रहा है, जहा प्रतिदिन 7447 बालिकाएं निशुल्क शिक्षा प्राप्त कर रही है l शर्मा ने बताया की आई.आई. एफ.एल फाउंडेशन की निदेशक मधु जैन जनजाति अंचल की बालिकाओं को शत प्रतिशत शिक्षा से जोड़ने हेतु इस दिशा में प्रसारत है l इस प्रकार की महिलाएं समाज के लिए बालिका दिवस पर प्रेरणा स्त्रोत हैं l

केंद्रों के संचालन के लिए जगह ग्रामीण उपलब्ध करवाते हैं। कहीं किसी घरों में कोई कमरा या बरामदा तो किसी मंदिर की गैलेरी या फिर सामुदायिक भवन के किसी कोने में पाठशालाएं चलती हैं।
केंद्रों के संचालन के लिए जगह ग्रामीण उपलब्ध करवाते हैं। कहीं किसी घरों में कोई कमरा या बरामदा तो किसी मंदिर की गैलेरी या फिर सामुदायिक भवन के किसी कोने में पाठशालाएं चलती हैं। द मूकनायक

घरों-बरामदों-सामुदायिक भवनों में चल रहे केंद्र 

गायत्री सेवा संस्थान के प्रतिनिधि नितिन पालीवाल ने द मूकनायक को बताया यह योजना एनजीओ और समुदाय के बीच पार्टनरशिप का बेहतरीन उदाहरण है। इन केन्द्रों में तीन वर्ग की बालिकाएं तालीम लेती हैं -जो कभी किसी स्कूल में नही गई , अथवा जो स्कूल में जाति हैं लेकिन नियमित रूप से पढाई नही कर पाती या फिर ड्राप आउट हो गई हो.

प्रत्येक केंद्र में एक शिक्षक होता है जो 30 से 40 के बैच को पढाते हैं , शिक्षकों की व्यवस्था जहां एनजीओ द्वारा की जाती है वहीं केंद्रों के संचालन के लिए जगह ग्रामीण उपलब्ध करवाते हैं। कहीं किसी घरों में कोई कमरा या बरामदा तो किसी मंदिर की गैलेरी या फिर सामुदायिक भवन के किसी कोने में पाठशालाएं चलती हैं।  रोजाना 8 से 12 या फिर 2-6 बजे के स्लॉट में केंद्रों में बच्चियां पढ़ने आती हैं। नितिन बताते हैं कि गांवों में आज भी बेटियों को पढ़ाना लिखाना वक्त और पैसे की बर्बादी समझते हैं और इसलिए बालिका शिक्षा आज भी लोगों की प्राथमिकता नहीं है।  विशेषज्ञ शैलेंद्र पंड्या बताते हैं कि गरीब परिवारों खासकर जनजातियों में अगर घर मे बेटी सबसे बड़ी हो तो उसपर घर गृहस्थी की जिम्मेदारी छोटी उम्र में ही डाल दी जाती है। माता-पिता दोनो खेतों में या मजदूरी करने चले जाते हैं तो घर की बड़ी बेटी जो स्वयं छोटी बच्ची होती है, अपने छोटे भाई बहनों की देखभाल करती है, कई घरों में भेड़ बकरियां चराने भी लड़कियां जाती हैं। ऐसे में इन परिवारों की सुविधा को देखते हुए शाम का समय भी रखा गया है। 

 सखी की बाड़ी केंद्र में मिट्टी, कंकर, कागज , खिलौने, चार्ट आदि के जरिये खेल खेल में बच्चों को सिखाया जाता है।
सखी की बाड़ी केंद्र में मिट्टी, कंकर, कागज , खिलौने, चार्ट आदि के जरिये खेल खेल में बच्चों को सिखाया जाता है।द मूकनायक

स्कूल-किताबों से डर इसलिए खेल खेल में शिक्षा

सखी की बाड़ी केंद्र में पढ़ाई पाठ्य पुस्तकों और होमवर्क बेस्ड नहीं होती है। बालिकाओं के मन मे स्कूल और बुक्स को लेकर एक अजीब सा भय होता है इसलिए उन्हें पाठ्य पुस्तकों से नहीं पढ़ाया जाता है। नितिन कहते हैं किताबें सिर्फ टीचर्स के पास होती है जो हिंदी, इंग्लिश, मैथ्स और ईवीएस (पर्यावरण/सामाजिक अध्ययन) विषय पढ़ाते हैं। मिट्टी, कंकर, कागज , खिलौने, चार्ट आदि के जरिये खेल खेल में बच्चों को सिखाया जाता है। " आप यकीन नहीं करेंगे कि कई बच्चे इतने मेधावी होते हैं कि वे फटाफट पाठ सीख लेते हैं। ग्रामीण पृष्ठभूमि की जनजाति समुदाय की लड़किया जो  कभी स्कूल भी नहीं गई, वे भी फर्राटेदार अंग्रेजी कविता बोलना सीख जाती हैं। " केंद्र पूरे वर्ष संचालित होते हैं यानी सामान्य स्कूलों की तरह ग्रीष्मकालीन अवकाश या कोई ब्रेक नही होतेl यह व्यवस्था इसलिए है ताकि बालिकाएं शिक्षा से दूर नही हो एव सतत लर्निंग प्रोसेस में रहें. पालीवाल ने बताया कि  11 अक्टूबर से 16 अक्टूबर तक जनजाति अंचल में बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने एवं बाल विवाह के खिलाफ विशेष अभियान “बाल विवाह मुक्त-भारत” संचालित होगा l जिसके तहत 150 से ज़्यादा जनजाति गाँवो में इस विषय पर यात्रा एवं जन-जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जाएँगे l

ग्राफिक्स - द मूकनायक
ग्राफिक्स - द मूकनायक

बालिकाओं के बारे में ये आंकड़े चिंताजनक

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (एनएफएचएस-5) के अनुसार, जो 2019-21 में आयोजित किया गया था, भारत में 5 वर्ष से कम उम्र की 43% लड़कियाँ अविकसित (अपनी उम्र के हिसाब से बहुत छोटी) हैं और 23% कमज़ोर (बहुत अधिक) हैं उनकी ऊंचाई के हिसाब से पतली हैं।

2019-2021 आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के अनुसार, भारत में 5 से 14 वर्ष की आयु की 1.5 मिलियन लड़कियां स्कूल से बाहर थीं। इसका मतलब यह है कि भारत में इस आयु वर्ग की 1.5% से अधिक लड़कियाँ स्कूल नहीं जा रही हैं।

भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अनुमान है कि हर साल 40,000 बच्चों का अपहरण किया जाता है, और यौन तस्करी के लिए पड़ोसी देशों से हर साल 12,000 से 50,000 महिलाओं और बच्चों की देश में तस्करी की जाती है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, 2021 में भारत में 18 वर्ष से कम उम्र की 90,113 लड़कियों के लापता होने की सूचना मिली। इसका मतलब है कि 2021 में भारत में हर दिन औसतन 247 लड़कियां लापता हुईं।

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