तीन महिलाएं जो बिलकिस बानो को न्याय दिलाने के लिए पहुंची थीं सुप्रीम कोर्ट

आइये जानते हैं उन महिलाओं के बारे में जिन्होंने न्याय की आस खो चुकी बिलकिस बानों में उम्मीद की एक नई अलख जगा दी।
क्रमशः रूपरेखा वर्मा, सुभासिनी अली, रेवती लौल
क्रमशः रूपरेखा वर्मा, सुभासिनी अली, रेवती लौल
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नई दिल्ली। जनवरी 2008 में मुंबई की सीबीआई स्पेशल कोर्ट ने बिलकिस बानो के दोषियों को उम्रकैद की सजा दी थी। 14 साल के बाद 15 अगस्त 2022 को गुजरात सरकार की माफी नीति के तहत सभी दोषियों को गोधरा कारागार से रिहा कर दिया। बीते सोमवार गुजरात राज्य सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने तीन महिलाओं द्वारा दाखिल की गई याचिका को पलटते हुए सभी को दो सप्ताह के भीतर वापस कैद करने का आदेश दिया है। आइये जानते हैं उन महिलाओं के बारे में जिन्होंने न्याय की आस खो चुकी बिलकिस बानों में उम्मीद की एक नई अलख जगा दी।

बिलकिस बानो मामले में गुजरात सरकार के फैसले के खिलाफ जाने वाली पहली महिला पूर्व सांसद और सीपीआई की वरिष्ठ नेता सुभाषिनी अली हैं। सुभाषिनी अली बताती हैं, "15 अगस्त को एक ओर देश के प्रधानमंत्री लालकिले पर ध्वजा रोहण कर रहे थे। यह पल देश के लिए भले ही गौरव का पल रहा हो,लेकिन दूसरी तरफ़ बिलकिस बानो के दोषियों की रिहाई का स्वागत माला पहना औऱ मिठाई खिलाकर किया जा रहा था। यह वर्षों से न्याय की लड़ाई लड़ रही बिलकिस बानों के लिए एक काला दिन था।"

सुभाषिनी अली बताती हैं, "इस फैसले के बाद मैंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने का विचार बना लिया। इस लड़ाई में कई लोग शामिल थे, जिसमें वकील और सांसद कपिल सिब्बल, अपर्णा भट्ट और कई लोग साथ आए।" उन्होंने बताया कि, साल 2002 में हुई घटना के दो दिन बाद ही वे बिलकिस बानो से शर्णाथी शिविर में मिली थीं और तभी से सहयोग करती रही हैं। सुभाषिनी अली बताती हैं, "कई सालों में पहली बार ऐसा फ़ैसला आया है जो किसी सरकार के ख़िलाफ़ है। मैं जजों की हिम्मत की दाद देती हूं।

इस मामले में सरकार के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने वाली दूसरी महिला रेवती लाल हैं। आपको बता दें रेवती लाल ने गुजरात दंगों पर 'द एनाटॉमी ऑफ़ हेट' नाम से किताब लिखी है। रेवती लाल पेशे से पत्रकार भी हैं और उत्तरप्रदेश के शामली में एक स्वयंसेवी संस्था 'सरफ़रोशी फॉउंडेशन' चला रही हैं। रेवती लाल कहती हैं-'इस मामले में मेरे पास एक सहयोगी पत्रकार का फ़ोन आया था। मुझसे इस मामले में एक सामूहिक जनहित याचिका डालने के लिये पूछा गया। मैंने इस पहल की तारिफ करते हुए याचिका में शामिल होने की बात कही।

पत्रकार रेवती लाल बताती हैं, "सन 2002 में गुजरात में दंगे हुए थे। इन दंगों का कुछ समय ही बीता था औऱ मैंने एक निजी चैनल के लिए काम किया। मैं इस मामले को करीब से जानती हूँ। जब इस मामले में 11 लोगों को दोषी ठहराया गया तब मैं वहां थी और मैं बिलकिस की प्रेस वार्ता में भी मौजूद थी। हालांकि मैं बिलकिस बानो से कभी नहीं मिली और न ही इस फैसले को लेकर उनसे प्रश्न करना सही समझा। क्योंकि मैं जानती थी मेरे प्रश्नों से उनका बीता हुआ कल आंखों के सामने आएगा और उन्हें तकलीफ होगी। फिर भी मैं उनकी हिम्मत को दाद देती हूँ। जैसे ही मुझे फ़ोन आया मैंने तुरंत हां कर दी और मैंने सोचा कि ये ख़्याल मुझे क्यों नहीं आया।"

कोर्ट जाने वाली तीसरी महिला ख्यात सामाजिक कार्यकर्ता रूपरेखा वर्मा ने बताया कि बिलकिस बानो के साथ जो हुआ था उस से भयानक था गुजरात सरकार द्वारा दोषियों को जेल से रिहा कर देना। सुप्रीम कोर्ट ने पूरी ईमानदारी से निर्णय दिया, इससे लोगों का न्यायालय और कानून पर विश्वास बढ़ा है। हम इस निर्णय का स्वागत करते है क्योंकि यह निर्णय हम सब में सुरक्षा की भावना को मजबूत करता है।

क्या रहा सुप्रीम कोर्ट का तर्क?

सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि इस मामले में सज़ा माफ़ी की अर्ज़ी या रिमिशन पॉलिसी पर विचार करना गुजरात सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर था। इस फ़ैसले के बाद एक बयान के ज़रिए अपनी प्रतिक्रिया देते हुए बिलकिस बानो ने कहा, "ये होता है न्याय! मैं सर्वोच्च न्यायालय का धन्यवाद करती हूं कि उन्होंने मुझे, मेरे बच्चों और सारी महिलाओं को समान न्याय की आशा दी।" बिलकिस बानो मामले में वर्षों तक चली सुनवाई के बाद सीबीआई की कोर्ट ने 11 लोगों को दोषी पाया था और उम्र कैद की सज़ा सुनाई थी, लेकिन फिर दोषियों की तरफ से रिमिशन पॉलिसी के तहत रिहाई की अपील दायर की गई जिसे गुजरात हाई कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया था। इसके बाद दोषियों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था और सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को इस पर फ़ैसले लेने को कहा था। इस मामले पर गुजरात सरकार ने एक कमेटी का गठन किया था और कमेटी की सिफ़ारिश के बाद गुजरात सरकार ने साल 2022 में 11 दोषियों को रिहा कर दिया था।

बिलकिस बानो के साथ क्या हुआ था?

27 फरवरी 2002 का दिन था। अयोध्या से लौट रही साबरमती एक्सप्रेस के कुछ डिब्बों को गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन पर आग के हवाले कर दिया गया। हादसे में 59 कारसेवकों की जिंदा जलकर मौत हो गई। इसके बाद पूरे गुजरात में दंगे भड़क उठे थे। बिलकिस बानो गुजरात के दाहोद जिले के रंधिकपुर गांव की रहने वाली हैं। हमले से बचने के लिए बिलकिस अपनी साढ़े तीन साल की बेटी सालेहा और 15 दूसरे लोगों के साथ गांव छोड़कर चली गईं। उस समय बिलकिस की उम्र 21 साल थी और वह पांच महीने की गर्भवती थीं।

3 मार्च 2002 का वो काला दिन जब बिलकिस बानो छप्परवाड़ गांव पहुंची। बिलकिस अपने परिवार के सभी सदस्यों के साथ खेत में छिपी थीं। तभी तलवार और लाठियां लेकर आए 20-30 लोगों की भीड़ ने उनपर हमला कर दिया। बिलकिस और महिलाओं को बुरी तरह पीटा गया, फिर उनके साथ रेप किया। इनमें बिलकिस बानो की मां भी शामिल थीं। हमले में रंधिकपुर के कुल 17 लोगों में से 7 की बेरहमी से हत्या कर दी गई। बिलकिस की बेटी भी शामिल थी। छह लोग अपनी जान बचाकर भागने में कामयाब हो गए थे।

हादसे के बाद कुछ घंटों तक बिलकिस बानो बेहोश रहीं। होश आने के बाद आस-पास मौजूद लोगों ने उनकी मदद की। अपराधियों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने के लिए उन्हें नजदीकी लिमखेड़ा पुलिस स्टेशन ले जाया गया।

बिलकिस बानो और उनके समर्थकों ने न्याय के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी। आरोप है कि जघन्य अपराध होने के बावजूद पुलिस ने मामले को गंभीरता से नहीं लिया, शुरुआत में एफआईआर लिखने से मना कर दिया गया। जैसे-तैसे एफआईआर लिखी गई तो जांच ठीक से नहीं की गई, मेडिकल जांच कई दिनों बाद की गई, सबूतों से भी छेड़छाड़ की गई। हालांकि बाद में अपराधियों को बचाने के आरोप में तीन पुलिसवालों को तीन साल की सजा मिली।

करीब एक साल बाद गुजरात पुलिस ने केस की फाइल बंद कर दी। इसके बाद बिलकिस बानो मदद के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) पहुंची। एनएचआरसी की मदद से सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई। सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात पुलिस की क्लोजर रिपोर्ट को खारिज कर दिया और सीबीआई को शुरुआत से पूरे मामले की जांच करने का आदेश दिया था।

सीबीआई ने नए सिरे से मामले की जांच की

सीबीआई ने बिलकिस बानो के मारे गए परिवार के सदस्यों के शव कब्र से निकालने का आदेश दिया। सीबीआई ने बताया मृतकों की पहचान छिपाने के लिए शवों के सिर धड़ से अलग कर दिए गए थे। जांच में पुलिस ने लापरवाही सामने आई और पोस्टमार्टम भी ठीक ढंग न किए किए जाने का आरोप लगा। 2004 में सीबीआई ने 18 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दायर की। 12 आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया। उधर बिलकिस बानो और उनके परिवार को परेशान किया जाने लगा। उन्हें जान से मारने की धमकियां मिलने लगीं। इस कारण दो साल के भीतर उन्हें करीब 20 बार अपना रहने का ठिकाना बदलना पड़ा।

बिलकिस बानो ने सुप्रीम कोर्ट से केस को गुजरात के बाहर किसी दूसरे राज्य में ट्रांसफर करने की गुहार लगाई। अगस्त 2004 में मामला मुंबई स्पेशल सीबीआई कोर्ट में आ गया। आखिरकार 21 जनवरी 2008 को मुंबई की सीबीआई स्पेशल कोर्ट ने गर्भवती महिला से रेप और हत्या के आरोप में 11 दोषियों को उम्रकैद की सजा दी। हालांकि सात लोगों को सबूत न होने की वजह से छोड़ दिया गया। इनमें पांच पुलिसवाले और दो डॉक्टर भी शामिल थे जिन पर आरोपियों को बचाने और सबूतों से छेड़छाड़ का आरोप था। एक दोषी की ट्रायल के दौरान मौत हो गई थी।

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