छठी सदी में प्रारंभ 'देवदासी' कुप्रथा का इतिहास महिला शोषण का जीता-जागता प्रमाण है। देवता से विवाह कर देवालयों में नृत्य करती थीं देवदासियां। इतिहास में उच्च नारी दर्जा दिए जाने का भी वर्णन है।
देवदासी प्रथा जिससे हम सभी परिचित हैं, दक्षिण भारत में आज भी महिलाएं इस कुप्रथा की शिकार हो रही हैं। मंदिर के पुरोहितों द्वारा धार्मिक परम्परा घोषित कर इसे बड़े स्तर पर संचालित किया जा रहा है। द मूकनायक ने देवदासी प्रथा के इतिहास को खंगाला है…पेश है रिपोर्ट।
क्या है 'देवदासी प्रथा' का इतिहास?
भारतीय संस्कृति के वैदिक काल से ही हमारे देश मे कई परंपराएं और प्रथाएं हैं। और ऐसी ही एक प्रथा है 'देवदासी प्रथा,' हालांकि आधुनिक समाज के परिपेक्ष्य में यह प्रथा निंदनीय है, लेकिन यह सदियों से भारतीय समाज में चली आ रही है।
इतिहासकारों के मुताबिक, 'देवदासी प्रथा' संभवत: छठी सदी में शुरू हुई थी। मान्यता है कि अधिकांश पुराण भी इसी काल में लिखे गए हैं। देवदासियों का प्रचलन दक्षिण भारतीय मंदिरों में अधिक है। देवदासी का अर्थ होता है 'सर्वेंट ऑफ गॉड', यानी देव की दासी या पत्नी।
बरकतउल्ला विश्वविद्यालय भोपाल के समाजशास्त्र विभाग के एक प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर द मूकनायक को बताया कि, "देवदासी कुप्रथा का आरंभ आर्यों के प्रवेश से पूर्व माना गया है। इतिहासकरों के मुताबिक इतिहास में तीसरी शताब्दी में प्रारम्भ इस प्रथा का मूल उद्देश्य धार्मिक था। चोल तथा पल्लव राजाओं के समय देवदासियां संगीत, नृत्य तथा धर्म की रक्षा करती थीं। 11वीं शताब्दी में तंजोर में राजेश्वर मंदिर में 400 देवदासियां थीं। सोमनाथ मंदिर में 500 देवदासियां थी। 1930 तक तिरुपति, नाजागुड में देवदासी प्रथा रहीं हैं।"
देवदासी महिला जो पूजा-पाठ के लिए समर्पित थीं और इन्हें एक देवता की सेवा के लिए लगाया जाता था। इनका समर्पण एक समारोह जैसा होता था जो कुछ हद तक एक विवाह समारोह के समान था। मंदिर की देखभाल करने और अनुष्ठान करने के अलावा, इन महिलाओं ने भरतनाट्यम, मोहिनीअट्टम, कुचिपुड़ी और ओडिसी जैसी शास्त्रीय भारतीय कलात्मक परंपराओं को भी सीखा और उनका अभ्यास किया। उनकी सामाजिक स्थिति उच्च थी क्योंकि नृत्य और संगीत मंदिर की पूजा का एक अनिवार्य हिस्सा थे।
देवदासी की है दो श्रेणियां
इतिहासकारों के मुताबिक, देवदासियों की 2 श्रेणियां होती हैं। पहली रंगभोग और दूसरी अंग भोग। दूसरी श्रेणी की देवदासियां मंदिर से बाहर नहीं जाती थीं। येल्लमा देवी को समर्पित करने की रस्म शादी की तरह ही थी। कन्या की उम्र 5 से 10 वर्ष की होती है। उस समय कन्या का नग्न जुलूस मन्दिर तक लाया जाता था। उसको फिर देवदासी के रुप में दीक्षित किया जाता है। समर्पण के बाद ये देवदासियां मंदिर और पुजारियों की सम्पत्ति हो जाती थीं। इसके बाद मंदिर का पुरोहित अपने अनुसार इन्हें काम देता था।
देवदासियों का काम मंदिरों की देख-रेख, पूजा-पाठ के लिए सामग्री-संयोजन, मंदिरों में नृत्य आदि के अलावा प्रमुख पुजारी, सहायक पुजारियों, प्रभावशाली अधिकारियों, सामंतों एवं कुलीन अभ्यागतों के साथ शारीरिक संबंध बनाना था, हालांकि उनका दर्जा वेश्याओं वाला नहीं था।
आज भी संचालित है प्रथा
'देवदासी' कुप्रथा भारत में आज भी महाराष्ट्र और कर्नाटक के कोल्हापुर, शोलापुर, सांगली, उस्मानाबाद, बेलगाम, बीजापुर, गुलबर्ग आदि में जारी है। कर्नाटक के बेलगाम जिले के सौदती स्थित येल्लमा देवी के मंदिर में हर वर्ष माघ पुर्णिमा के दिन किशोरियों को देवदासियां बनाया जाता है। इस बात का जिक्र भी कई स्थानीय समाचारों में मिलता है।
'मेघदूतम' में मिलता है देवदासी प्रथा का जिक्र
कालिदास के 'मेघदूतम्' में मंदिरों में नृत्य करने वाली आजीवन कुंआरी कन्याओं का वर्णन मिलता है, जो संभवत: देवदासियां ही रही होंगी ऐसा माना जाता है। प्रख्यात लेखक दुबोइस ने अपनी पुस्तक 'हिंदू मैनर्स, कस्टम्स एंड सेरेमनीज़' में लिखा है कि प्रत्येक देवदासी को देवालय में नाचना-गाना पड़ता था। साथ ही, मंदिरों में आने वाले खास मेहमानों के साथ शयन करना पड़ता था। इसके बदले में उन्हें अनाज या धनराशि दी जाती थी। दुबोइस की पुस्तक में उल्लेखित है कि देवदासी प्रथा सदियों से धार्मिक और परंपरागत प्रथा के रूप में जारी है।
पूर्व में देवदासियों की सामाजिक स्थिति
इतिहासकारों के मुताबिक, प्रथा के शुरुआती दौर में परंपरागत रूप से, देवदासी या उनके बच्चों पर कोई कलंक नहीं था, और उनकी जाति के अन्य सदस्यों ने उन्हें समानता के आधार भी दिया था। एक देवदासी के बच्चों को वैध माना जाता था। हालांकि उन्हें पिता का नाम नही दिया गया।
इसके अलावा, एक देवदासी को विधवापन से मुक्त माना जाता था और उसे अखंड सौभाग्यवती कहा जाता था। चूंकि उसकी शादी एक दिव्य देवता से हुई है। यानि उसने अपना जीवन ईश्वर को समर्पित कर दिया है। इतिहासकारों के मुताबिक, उच्च जाति के सदस्य के घर में किसी भी धार्मिक अवसर पर देवदासी की उपस्थिति को पवित्र माना जाता था और उसे उचित सम्मान के साथ व्यवहार किया जाता था, और उन्हें उपहार भी भेंट किए जाते थे।
इतिहास के कई किताबों में देवदासी प्रथा का उल्लेख
प्रसिद्ध इतिहासकार विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'भारतीय विवाह संस्था का इतिहास', देवराज चानना की पुस्तक 'स्लेवरी इन एंशियंट इंडिया', एस. एन. सिन्हा और एन. के. बसु की पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ प्रॉस्टिट्यूशन इन इंडिया', एफ ए मार्गलीन की पुस्तक 'वाइव्ज़ ऑफ द किंग गॉड, रिचुअल्स ऑफ देवदासी', मोतीचंद्रा की 'स्टडीज इन द कल्ट ऑफ मदर गॉडेस इन एंशियंट इंडिया', बी. डी. सात्सोकर की 'हिस्ट्री ऑफ देवदासी सिस्टम' में इस कुप्रथा पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। जेम्स जे. फ्रेजर के ग्रंथ 'द गोल्डन बो' में भी इस प्रथा का विस्तृत ऐतिहासिक विश्लेषण मिलता है।
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