नई दिल्ली: साबरमती एक्सप्रेस में आग लगने के बाद भड़के सांप्रदायिक दंगों के दौरान बिलकिस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था. 2002 के गुजरात दंगों के दौरान बिलकिस बानो (Bilkis Bano Case) के साथ बलात्कार करने और उनके परिवार की हत्या करने वाले 11 दोषियों की रिहाई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुना दिया है. कोर्ट ने सोमवार को बिलकिस बानो केस से जुड़े 11 दोषियों की रिहाई रद्द कर दी है. जानकारी के अनुसार दोषियों को गुजरात सरकार ने 2022 में रिहा कर दिया था.
मामले की पेटिशनर, सामाजिक कार्यकर्ता रूपरेखा वर्मा ने द मूकनायक को बताया कि, "बहुत दिनों बाद एक ऐसा फैसला हमारे सामने आया है, जो पूरा न्याय करता है. जो कहीं से भी, किसी ओर से प्रभावित नहीं है. यह बिलकिस बानो का मामला दुनियाभर में सबसे बड़े दरिंदगी जैसे अपराधों में से एक था. न्यायालय द्वारा मुकर्र की गई सजा आरोपियों को मिलनी जरूरी है."
"हमारे मन में सवाल आता था कि जब ऐसे मामले के अपराधी जेल से छूट सकते हैं तो देश में कोई भी सुरक्षित नहीं है. अब जो फैसला आया है वह हमारी असुरक्षा की भावना को कम करके सुरक्षा की भावना को लौटाता है, और यह बताता है कि न्याय होगा", रूपरेखा वर्मा ने कहा.
प्रकरण में दोषियों को पिछले साल स्वतंत्रता दिवस पर गुजरात सरकार ने एक ऐसे कानून की मदद से रिहा कर दिया था, जो प्रचलन में नहीं था. मामले को लेकर विपक्ष, कार्यकर्ताओं सहित समाज में निंदा और आक्रोश की लहर दौड़ गई थी. बिलकिस बानो ने कहा कि उन्हें दोषियों की रिहाई के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई.
रिहा होने के बाद, इन लोगों का हीरो की तरह स्वागत किया गया. उनमें से कुछ को बीजेपी सांसद और विधायक के साथ मंच साझा करते देखा गया. दोषियों में से एक, राधेश्याम शाह ने तो वकालत भी शुरू कर दी थी, जिसे सुनवाई के दौरान अदालत के ध्यान में लाया गया.
सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस बी वी नागरत्ना और उज्जल भुइयां की पीठ ने बिलकिस बानो द्वारा दायर याचिका समेत अन्य याचिकाओं पर 11 दिन की सुनवाई के बाद अक्टूबर में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. कोर्ट ने केंद्र और गुजरात सरकार से सजा माफी से जुड़े मूल रिकॉर्ड पेश करने को कहा था.
गुजरात सरकार ने 1992 की छूट नीति (1992 remission policy) के आधार पर दोषियों को रिहा करने की अनुमति दी थी, जिसे 2014 में एक कानून द्वारा हटा दिया गया है, जो मृत्युदंड के मामलों में रिहाई पर रोक लगाता है.
राज्य ने एक पैनल से परामर्श किया था, जिसमें राज्य की सत्तारूढ़ बीजेपी से जुड़े लोग शामिल थे, जब शीर्ष अदालत ने उसे एक दोषी, राधेश्याम शाह की याचिका पर निर्णय लेने के लिए कहा था.
पैनल ने अपने फैसले को सही ठहराते हुए उन पुरुषों को “संस्कारी (सुसंस्कृत) ब्राह्मण” कहा था, जो पहले ही 14 साल जेल की सजा काट चुके हैं और अच्छा व्यवहार दिखा चुके हैं.
दोषियों की रिहाई के खिलाफ कई याचिकाएं दायर की गईं. याचिकाकर्ताओं में तृणमूल कांग्रेस की महुआ मोइत्रा, सीपीएम पोलित ब्यूरो सदस्य सुभाषिनी अली, स्वतंत्र पत्रकार रेवती लौल और लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति रूप रेखा वर्मा और अन्य शामिल है.
“दोषियों की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया था. ऐसी स्थिति में उन्हें 14 साल की सजा के बाद कैसे रिहा किया जा सकता है? अन्य कैदियों को रिहाई की राहत क्यों नहीं दी जाती है?” शीर्ष अदालत ने सुनवाई के दौरान सवाल करते हुए टिप्पणी की थी कि गुजरात सरकार शीघ्र रिहाई को लेकर असमंजस में है.
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