पश्चिम बंगाल — मार्च महीने के आखिरी दिनों में देश के लगभग हर हिस्सों में मौसम बदलना शुरु हो जाता है। इस साल मार्च महीने के अंतिम में पारा 35 के पार चला गया था। इस बीच एक ऐसी चीज जिसने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा, वह थी मार्च माह के आखिरी और अप्रैल के शुरुआती दिनों में कई जगहों में सुबह का घना कोहरा। जबकि सामान्य दिनों में ऐसा नहीं होता है। यह सब जलवायु परिवर्तन का नतीजा माना जा रहा है। जिसका असर अब हमारे आसपास प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से देखने को मिल रहा है।
पिछले दो सालों में इसका असर बंगाल की खाड़ी (Bay of Bengal) से सटे तटीय क्षेत्रों में देखने के मिल रहा है। जिसका नतीजा यह हो रहा है कि खाड़ी में बनने वाले निम्न दाब के कारण पश्चिम बंगाल (West Bengal) के साथ-साथ तटीय क्षेत्रों में फानी, गुलाब, आमफान जैसे साइकोलन ने भारी तबाही मचाई। पिछले साल पश्चिम बंगाल में हर दूसरे महीने साइकोलन आए। जिसका सीधा असर तटीय क्षेत्रों के साथ-साथ सुदंरवन (Sundarvan) में देखने के मिला। लेकिन अब इसको बचाने के लिए महिलाएं आगे आ रही हैं। यह अक्सर देखने को मिलता है कि जंगल को बचाने की मुहिम में हमेशा महिलाएं ही अग्रणी रही हैं। ऐसी ही दस साल पहले की कहानी है भारत-बांग्लादेश बॉर्डर से लगे लक्ष्मीपुरा गांव की। आइए इसके बारे में विस्तार से जानते हैं –
जंगली जमीन पर सदाबहार वनों के रकबे में हुई बढ़ोतरी
न्यूयॉर्क टाइम्स की एक खबर के अनुसार, महिलाओं ने जलवायु परिवर्तन के संभावित परिणामों की गंभीरता देख जंगल की अहमित को समझआ और एक बार फिर जल, जंगल व जमीन पर ध्यान दिया। भारत-बांग्लादेश बॉर्डर के लक्ष्मीपुरा गांव में पिछले दस सालों में जंगली जमीन 343 एकड़ से बढ़कर 2,224 एकड़ हो गई है। जिसमें अहम योगदान महिलाओं का है। जिन्होंने दलदली और बंजर जमीन पर अपने मेहनत और लगन के साथ हरियाली लाई है, और वहां अब सदाबहार वन है। इस काम को करने की प्रेरणा दस साल पहले अपर्णा का मिली थी।
पश्चिम बंगाल में अक्सर साइक्लोन आते हैं। साल 2009 में आइला साइक्लोन आया था। जिसने बंगाल की खाड़ी के पास रहने वाले 200 लोगों की जान ले ली। इन मौतों ने लोगों के अंदर जलवायु परिवर्तन के डर को प्रबल बना दिया। जिसका नतीजा आज सदाबहार वन है। पूर्व में छपी खबर के अनुसार, खारे पानी के कारण यहां की मछलियां मरने लगी। मगरमच्छ गांव में आने लगे। इतना ही नहीं जंगली जानवर का भी खतरा बढ गया। हालात यह है कि सुंदरवन के गांवों में पुरुषों को बाघों ने मार दिया। कई घरों में सिर्फ महिलाएं ही है। विश्व के सबसे बड़े डेल्टा सुंदरवन में लगभग 45 लाख लोग रहते हैं। जिसमें से ज्यादातर पुरषों का काम छह महीने मछली पकड़ना और छह महीने शहरों में जाकर काम करना है।
अजंता-डे ने दिया महिलाओं को सदाबहार वन का आईडिया
दस साल पहले आए साइक्लोन के बाद नेचर एंड एनवायरमेंट एंड वाइल्डलाइफ सोसायटी (Nature and Environment and Wildlife Society) की अध्यक्ष अंजता-डे जब साइक्लोन के बाद प्रभावित क्षेत्र में पहुंची तो अपर्णा ने उनसे मदद मांगी। अजंता ने महिलाओं को मदद के तौर पर सदाबहार वन लगाने की सलाह दी। जिससे वह अपने आपको बचा सके। साल 2015 तक इस मुहिम में 15,000 महिलाएं जुड़ गई। इसके बाद महिलाओं ने अपना काम शुरु किया। हालांकि, सरकार की तरफ से उन्हें इसपर कोई मदद नहीं मिली।
मोबाइल की मदद से पौधों को करती हैं ट्रैक
आज महिलाओं ने इस मुहिम को इतना बड़ा कर दिया है कि वह कहती है कि, यह पेड़-पौधे हमारे बच्चे हैं। महिलाएं जंगल को इतना पहचानती हैं कि, हाथ से बने नक्शों की मदद से पेड़ लगाने पहुंच जाती है। पौधों के बीजों को उपजाऊ जमीन पर लगाने के बाद जब पौधा बनता है तो वह उसे जंगली जमीन पर रोपती हैं। महिलाएं इन पौधों के पेड़ बनने तक मोबाइल टेक्नोलॉजी का सहारा लेती हैं और उन्हें ट्रैक करती हैं।
इस काम ने महिलाओं को अलग पहचान देने के साथ-साथ आर्थिक रुप से भी मजबूत किया है। आज इस काम में जुटीं सभी महिलांओं को इस काम के लिए सलाना 32 हजार रुपए मिलते हैं, साथ ही यह महिलाएं जंगल से जुड़ी चीजें मछली, शहद और अंडा भी बेचती हैं। सरकार ने महिलाओं की हिम्मत देखते हुए उनके काम की सराहना की है साथ ही पेड़ लगाने के लिए सार्वजनिक भूमि दी। सरकार अब इनके द्वारा लगाए गए पौधों को भी खरीद रही है।
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