लेखक – तारिक़ अनवर चम्पारणी
मेरी नज़र में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव एक ऐसे नेता थे जो मीडिया के भ्रमज़ाल में कभी नहीं फँसते थे। इसलिए जब आप 1990 से लेकर 2005 तक के समाचार पत्रों को पढ़ेंगे तब उस समय के बहुसंख्यक वामपंथी और सेक्युलर पत्रकार लालू यादव की आलोचना में सम्पदाकीय लिखतें हुए मिल जायेंगे। जंगल राज की उपाधि भी इन्हीं पत्रकारों ने दिया था। पत्रकारों के लगातार आलोचनाओं के बावजूद भी लालू यादव बिहार की सत्ता में बने रहे। उनकी सत्ता जाने के बाद आलोचना में सम्पादकीय लिखने वाले सभी पत्रकार नीतीश की सरकार में अलग-अलग आयोग और विभाग में लाभ के पद पर बैठें हुए है। लेकिन जब राजद तेजस्वी यादव के नेतृत्व में चुनाव लड़ी तब वह मीडिया के भ्रमज़ाल में फँस गये और परिणाम आपके सामने है। शायद अखिलेश यादव भी आज उसी भ्रमज़ाल में फँस चुके हैं।
जब 2020 में बिहार विधानसभा का चुनाव हो रहा था उस समय मेनस्ट्रीम मीडिया एनडीए के साथ तो जरूर खड़ा था मगर यही वैकल्पिक मीडिया बिहार में महागठबंधन की जीत सुनिश्चित कर चुका था। आप में से बहुत सारे साथियों को याद होगा इसी सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर हमनें कई बार लिखा था कि राजद 2015 के विधानसभा की तरह अपनी 80 सीटें बचा ले तो बड़ी बात होगी। परिणाम भी कुछ ऐसा ही आया। 2015 विधानसभा चुनाव में 101 सीटों पर चुनाव लड़कर 80 सीटें जीतने वाली राजद 2020 में 144 सीटों पर लड़ने के बावजूद राजद 80 से घटकर 75 सीटों पर पहुँच गयी थी। 2015 विधानसभा चुनाव में 41 सीटों पर लड़कर 27 सीट जीतने वाली काँग्रेस 2020 विधानसभा चुनाव में 70 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद 27 सीटों से घटकर 19 सीटों पर पहुंच गयी थी। सवाल यह है कि मीडिया में महागठबंधन की उपस्थिति इतनी मज़बूत होने के बावजूद आख़िर महागठबंधन की सीटें कम क्यों हो गयी?
मेरी समझ में इसका एकमात्र उत्तर वैकल्पिक मीडिया द्वारा फ़ैलाया गया भ्रमज़ाल है। वैकल्पिक मीडिया के लोगों ने मतदाताओं और नेताओं को वास्तविक स्थिति से लोगों को अवगत कराने की जगह बनावटी बातें परोस कर वाहवाही लूटने का प्रयास किया था।
मेरी इस बात को ऐसे भी समझ सकते है कि जब 2019 में लोकसभा का चुनाव हो रहा था तब देश भर की लिबरल, सेक्युलर और वामपंथी पत्रकार बेगूसराय पहुँचें हुए थे। इनलोगों ने बेगूसराय का माहौल ऐसा बनाया की मालूम पड़ता था कि देश में चुनाव केवल बेगूसराय में ही हो रहा है। उनकी रिपोर्टिंग से ऐसा लगता था कि कन्हैया कुमार को बस जीत का प्रमाणपत्र मिलना बाक़ी रह गया है। लेकिन जब चुनाव का परिणाम आया तो कन्हैया कुमार बिहार में सबसे अधिक लगभग 4 लाख 22 हज़ार वोटों से चुनाव हारने वाले प्रत्याशी साबित हुए।
अभी उत्तरप्रदेश का चुनाव नज़दीक है। यह वैकल्पिक मीडिया लगातार अखिलेश यादव को मजबूत स्थिति में पेश कर रहा है। भाजपा के नेताओं का भाजपा को छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल होने को लगभग सपा की जीत की तरह पेश कर रहे है। लेकिन मेरी नज़र में यह एक भ्रमज़ाल है। नेताओं के दल-बदल करने से कुछ वोटों पर फ़र्क़ तो जरूर पड़ता है मगर बहुसंख्यक कैडर वोटों पर इसका प्रभाव नहीं पड़ता है।
वैकल्पिक मीडिया उत्तरप्रदेश की इस लड़ाई को अगड़ा बनाम पिछड़ा बनाने की कोशिश कर रही है। लेकिन बहुजन समाज पार्टी को माइनस करके इस लड़ाई को नहीं जीती जा सकती है। अगर यह लड़ाई भाजपा बनाम समाजवादी होती है तब भाजपा को हराना बहुत कठीन है। अगर बसपा 2017 चुनाव में प्राप्त 22.23% वोटों में वृद्धि करके 25 प्रतिशत से ऊपर लेकर जाती है तब भाजपा हारती हुई नजर आयेगी। अगर बसपा का वोट शेयर 20 प्रतिशत के नीचें गिरता है तब फिर भाजपा की जीत पक्की है। इसमें एक बात बहुत ही महत्वपूर्ण है कि अगर बसपा का वोट शेयर 4-5 प्रतिशत भी बढ़ता है तब सीटों की संख्या बढ़कर दुगुनी हो सकती है। ऐसे में भी सपा सीधें तौर पर सरकार बनाते हुए नज़र नहीं आ रही है।
अभी वर्तमान में दो तरह के पत्रकार है। एक, पूरी तरह से भाजपा के सामने नतमस्तक है। वह सभी नकारात्मक बातों को भी जनता में सकारात्मक तरीकें से परोस कर सरकार का बचाव कर रहे है। दूसरा, सरकार की नीतियों का विरोध करते हुए किसी पार्टी विशेष के प्रचारक बन जा रहे है। अभी की स्थिति में दूसरे प्रकार के पत्रकारों द्वारा बनाये गये भ्रमजाल से बचने की जरूरत है। क्योंकि इनके द्वारा बूथ लेवल की सही जानकारी अलाकमान तक नहीं पहुंच पा रही है।
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