बिरसा मुंडा कौन थे, कैसे दी आदिवासियों की जल, जंगल जमीन की लड़ाई को धार?

बिरसा मुंडा
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नई दिल्ली। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को बंगाल प्रेसीडेंसी (अब झारखंड में खूंटी) के लोहरदगा जिले में आदिवासी मजदूर के घर हुआ था। बचपन में ही उनमें एक विद्रोही के लक्षण तभी साफ दिखाई दे गए जब उन्होंने आदिवासियों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने के अंग्रेजों के प्रयासों का विरोध किया। बाद में उनकी दमनकारी नीतियों के खिलाफ उलगुलान(आंदोलन) का नेतृत्व किया।

आदिवासियों के नेता के रूप में मुंडा का उदय

19वीं सदी में ब्रिटिश सरकार स्थानीय जमींदारों और ठेकेदारों की मिलीभगत से देश के संसाधनों को लूटकर अपने देश भेज रही थी। 1894 में छोटा नागपुर क्षेत्र में सूखा पड़ा, तभी बिरसा मुंडा ने लगान से छूट के लिए जनता को संगठित कर नेतृत्व दिया। इस आंदोलन ने आदिवासियों के बीच बिरसा मुंडा को धरतीबाबा का खिताब दिया। 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और दो साल तक हज़ारीबाग की सेंट्रल जेल में रखा गया। धरती आबा बिरसा मुंडा द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ निर्णायक युद्ध के लिए उलगुलान के आह्वान से आदिवासियों में हड़कंप मच गया। मुंडा ने अंग्रेजों और उनके द्वारा संसाधनों की अंधाधुंध लूट के खिलाफ अपना संघर्ष फिर से शुरू किया।

भारी हथियारों से लैस ब्रिटिश सरकार का मुकाबला करने के लिए उन्नत हथियारों से रहित आदिवासियों ने तीर कमान जैसे परंपरागत हथियारों के ज़रिये गुरिल्ला युद्ध का सहारा लिया और अंग्रेजों और उनके वफादारों से जुड़े स्थानों पर हमला किया। अंग्रेजों से जुड़ी 100 से अधिक इमारतों को आग लगा दी गई और कई ब्रिटिश पुलिसकर्मी भी मारे गए।

1898 में तांगा नदी के पास तीर-कमान से लैस 400 आदिवासियों ने ब्रिटिश पुलिसकर्मियों को खदेड़ दिया था। जवाबी कार्रवाई में, लॉर्ड कर्जन ने उन्नत हथियारों से लैस भारतीय जवानों को भेजा, लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। यह एक बहुत बड़ी जीत थी। बिरसा के नेतृत्व ने यह साबित कर दिया की वह परंपरागत हथियारों से भी आधुनिक हथियारों का मुक़ाबला कर सकते है।

जनवरी 1900 में, पुलिस ने डुम्बारी बुरु की पहाड़ियों पर छापा मारा, जहाँ मुंडा एक सार्वजनिक बैठक को संबोधित कर रहे थे। इसके बाद एक क्रूर नरसंहार हुआ। अंग्रेज़ों की पुलिस ने लोगों को चारों ओर से घेर लिया और अंधाधुंध गोलियां बरसाईं, जिसमे कई लोगों की मौत हो गई। हिरासत में लिए गए लोगों को पीटा गया और प्रताड़ित किया गया।

3 फरवरी 1900 को मुंडा को गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमें के बाद उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। जेल में उन्हें अंग्रेजी सरकार द्वारा खूब प्रताड़ित किया गया, किसके कारण 9 जून को जेल में ही उनकी मृत्यु हो गयी।

बिरसा की विरासत: जारी है ज़मीन को बचने का संघर्ष

बिरसा का संघर्ष ब्रिटिश उपनिवेशवाद और हिंदू सामंतवाद दोनों के खिलाफ था, लेकिन आरएसएस द्वारा प्रस्तुत कथानक् उन्हें एक "हिंदू आदिवासी" नेता के रूप में स्थापित करने की कोशिश करता है, जिन्होंने ईसाइयों द्वारा "धर्मांतरण" के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। इसलिए उनके संघर्ष के केवल एक पहलू पर ही ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।

हालाँकि, आदिवासी आंदोलन के उदय ने बिरसा मुंडा को काफी हद तक हिंदू खेमे से निकालने में कामयाबी हासिल की है और आदिवासी धीरे-धीरे स्वायत्त अस्तित्व की ओर बढ़ रहे हैं।

बिरसा मुंडा को भी गुमनामी से वापस लाया गया है। केंद्र सरकार ने 2021 में जयंती को जनजातीय गौरव दिवस के रूप में मनाने का फैसला किया। रांची हवाई अड्डे का नाम उनके नाम पर रखा गया है। उनके नाम पर रांची में एक कृषि विश्वविद्यालय भी है।

आजादी के बाद भी आदिवासी अपने उत्पीड़कों और शोषकों के खिलाफ संघर्ष करते रहते हैं। अंग्रेजों की जगह राजनेताओं ने ले ली है और सामंतों की जगह बड़े उद्योगिक घरानों ने ले ली है।

इसका ताज़ा उदाहरण है ओडिशा के सीजीमली और नियमगिरि में खनन के खिलाफ चल रहे संघर्ष। ऐसे में बिरसा मुंडा अपनी मृत्यु के 120 साल बाद भी आदिवासियों के लिए एक प्रेरणास्रोत के रूप में याद किए जाते है।

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