उदयपुर। ढेबर अथवा जयसमंद झील भारत की दूसरी बड़ी मानव निर्मित झील है जिसे महाराणा जयसिंह द्वारा 17वी शताब्दी में बनवाया गया था। इस झील के आस-पास के लगभग 22 गांवों के आदिवासी मछुआरे अपनी आजीविका के लिए झील और इसकी मछलियों पर आश्रित हैं, लेकिन बीते कई सालों से झील में पनप रही घुसपैठिया प्रजाति की तिलापिया मछली ने इनके रोजगार को संकट में डाल दिया है।
झील के आस-पास स्थित गांवों में मैथुडी, पाटन, चिबोड़ा, पानीकोटड़ा, हीरावत, तोरणमहुड़ी, घाटी, सियारकोटड़ा, बोडला, माकड़सीमा, देवड़ातालाब, पायरी आदि शामिल हैं। मछ्ली पालन करने वाले इन ग्रामीणों का कहना है कि झील में स्थानीय प्रजातियां जिसमें रोहू, कतला, मृगाल, लाची, सिंघाड़ा, मोरमुला इत्यादि कुछ बरसों पहले जहां बहुतायत में पाई जाती थीं, वहीं तिलापिया के बीज झील में डाले जाने के बाद से ही इस घुसपैठिया प्रजाति के मत्स्य की तादाद तेजी से बढ़ने लगी है जिसकी वजह से दूसरी प्रजातियां संकटग्रस्त हैं। मछुआरों के मुताबिक अब झील की कुल मछलियों में 60 प्रतिशत से भी ज्यादा तिलापिया की आबादी है।
हाल ही में पारिस्थिकी एवं आजीविका कार्य संस्थान (इंस्टिट्यूट फॉर इकोलॉजी एंड लाइवलीहुड एक्शन) उदयपुर तथा छोटे मछुआरों का राष्ट्रीय संगठन (नेशनल प्लेटफार्म फॉर स्माल स्केल फिश वर्कर्स) के साथ जयसमंद झील के मछुआरा समुदायों द्वारा संयुक्त रूप से जयसमंद झील के किनारे संवाद कार्यक्रम आयोजित किया गया। जयसमंद झील से लगे गाँवों की मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों के अध्यक्ष, व्यवस्थापकों एवं मछुआरा परिवारों ने अपनी पीड़ा साझा की।
पारिस्थिकी एवं आजीविका कार्य संस्थान के प्रबंध न्यासी वीरेन लोबो ने द मूकनायक को बताया कि पूरी दुनिया में स्थानीय जलाशयों पर मानव जनित भयानक संकट है और छोटे मछुआरों की आजीविका बुरी तरह प्रभावित हो रही है। जयसमंद झील से लगे 22 गांवों में मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियां गठित हैं, और इनमें लगभग 2500 मछुआरा परिवार जुड़े हुए हैं जिनकी कुल आबादी 15000 से अधिक है। इन मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों को पहले राजस संघ के द्वारा प्रबंधित किया जाता था और इन्हें विभिन्न सरकारी योजनाओं से लाभान्वित किया जाता था। किन्तु बाद में इन्हें मत्स्य निदेशालय के अधीन कर दिया गया जिसके बाद इन मछुआरों की स्थिति विभागीय अनदेखी और खानापूर्ति से बिगड़ती गयी।
वह आगे बताते हैं, झील में निदेशालय द्वारा मनमर्जी से अन्य दूरस्थ राज्यों से चयनित प्रजातियों के बीज मंगाकर डाले गए जिसके कारण झील की मत्स्य विविधता नष्ट होती गयी। भू-माफिया और रसूखदारों द्वारा जयसमंद झील अंदर टापुओं पर और चारों ओर अतिक्रमण किये जा रहे हैं, झील के प्राकृतिक स्वरूप और पारिस्थितिकी तंत्र को जमकर नुकसान पहुंचाया जा रहा है। सरकारी तंत्र के मकड़जालों में उलझे इन आदिवासी मछुआरों को न तो क्लोज सीजन (जब मानसून काल के दौरान मत्स्याखेट बंद रहता है) के दौरान 'सेविंग कम रिलीफ' योजना के द्वारा पर्याप्त गुजरा भत्ता दिया जाता है और उसमें भी इन गरीब मछुआरों को गरीबी की रेखा के नीचे और ऊपर की श्रेणियों में बाँटकर अधिकाँश परिवारों को गुजारा भत्ता से वंचित किया जा रहा है। लोबो ने कहा कि जयसमंद के मछुआरों की पीड़ा राज्य सरकार, भारत सरकार के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन इत्यादि अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं तक पहुंचाई जाएगी।
पारिस्थितिकी वैज्ञानिक एवं संयुक्त राष्ट्र संघ की आनुशंगिक इकाई आईयूसीेएन के विश्व आयोग सदस्य डॉ. सुनील दुबे ने बताया कि जयसमंद झील में विदेशी घुसपैठी प्रजाति 'तिलापिआ मछली' को डाल कर सरकारी विभाग ने न केवल जयसमंद झील की स्थानीय मत्स्य प्रजातियों के विनाश का बीज बो दिया बल्कि उसके साथ स्थानीय आदिवासी मछुआरा समुदायों की आजीविका और जीवनयापन के ऊपर भी दिनों-दिन बढ़ते संकट की नींव डाल दी। आज न केवल भारत बल्कि विश्व की बड़ी और महत्वपूर्ण कृत्रिम झीलों में से एक जयसमंद झील के अस्तित्व पर मानवीय क्रियाकलापों से भयंकर संकट व्याप्त हो चुका है। स्थानीय आदिवासी मछुआरे इस झील के असली संरक्षक हैं और महाराणा जयसिंह ने भी अपने आदिवासी जनता के लिए इस झील का निर्माण करवाया था, किन्तु आज मत्स्य निदेशालय के लचर तंत्र के कारण झील की मत्स्य विविधता और मछुआरों की आजीविका भयंकर संकट में हैं।
स्थानीय मछुआरे और मत्स्य उत्पादक सहकारी समिति मिण्डुदा के व्यवस्थापक गोविन्द मीणा ने जयसमंद झील के पारिस्थितिक कार्यों और पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को उनके प्राचीन प्राकृतिक रूप में संरक्षित करने की आवश्यकता बताई और झील के मछली आवास एवं प्रजनन क्षेत्रों में विनाशकारी पर्यटन, प्रदूषण, निर्माण, वाणिज्यिक गतिविधियों को रोकने की मांग की।
मत्स्य उत्पादक सहकारी समिति के मैथुडी के व्यवस्थापक केशुलाल तथा अध्यक्ष मेगाराम, पानीकोटड़ा समिति के व्यवस्थापक शंकरलाल, पाटन समिति के व्यवस्थापक रतनलाल, चिबोड़ा समिति के दौलतराम, तोरणमहुड़ी समिति के व्यवस्थापक रामलाल इत्यादि ने सरकार से मांग की कि उन्हें पुनः राजस संघ के अंतर्गत लिया जाये और मत्स्य निदेशालय द्वारा किये गए मनमाने निर्णय और अनदेखी से बचाया जाये।
समिति सदस्यों में होमाराम ने द मूकनायक को बताया कि "सरकार अन्य राज्यों से मत्स्य बीज न मंगवाकर हमें ही स्थानीय स्तर पर मत्स्य बीज उत्पादन करने और आपसी सहमति से झील में मत्स्य बीज डालने की व्यवस्था करें, मछली की खुली बिक्री के लिए उदयपुर शहर और आस-पास के कस्बों में मंडियों स्थान प्रदान करें, मछली प्रसंस्करण के प्रशिक्षण और मछली उत्पाद बिक्री के लिए मछुआरा महिलाओं एवं युवाओं की क्षमतासंवर्धन और आर्थिक सहयोग दें, मछुआरों को भी मत्स्य उतपादन के लिए बैंक द्वारा लोन दें तो हमारी समस्याओं का निराकरण हो सकता है।"
मछुआरा समुदायों के कहना है कि जिस प्रकार वनों पर निर्भर रहने वाले वनवासियों को सरकार अधिकार प्रदान कर रही है उसी प्रकार मत्स्य संसाधनों आजीविका और जीवनयापन के लिए निर्भर रहने वाले आदिवासी मछुआरों को भी उनके जलाशय और मत्स्य संसाधनों के संरक्षण, संवर्धन और प्रबंधन के अधिकार दिए जाएँ और सरकारी तंत्र को दुरुस्त कर सहयोग प्रदान किया जाये।
द मूकनायक की प्रीमियम और चुनिंदा खबरें अब द मूकनायक के न्यूज़ एप्प पर पढ़ें। Google Play Store से न्यूज़ एप्प इंस्टाल करने के लिए यहां क्लिक करें.