झारखण्ड में सेंगेल नेताओं का अल्टीमेटम, 15 नवंबर तक सरना धर्म कोड को मान्यता नहीं तो करेंगे आत्मदाह

मुर्मू कहते हैं भारत सरकार द्वारा पूरे आदिवासी समुदाय को धार्मिक पहचान से वंचित कर दिया है। आदिवासी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन और बौद्ध धर्म के नहीं है। आदिवासियों की पूजा पद्धति इन सभी धर्मों से अलग है बावजूद आदिवासियों के लिए कोई कॉलम नहीं है। जिससे आदिवासी समाज अन्य के कॉलम में अपना धर्म को लिखते हैं। 2011 की जनगणना में प्रकृति पूजक आदिवासियों ने लगभग 50 लाख की संख्या में सरना धर्म लिखाया था।
आदिवासी सेंगेल अभियान कोर कमेटी के सदस्य राष्ट्रीय अध्यक्ष सालखन मुर्मू के साथ
आदिवासी सेंगेल अभियान कोर कमेटी के सदस्य राष्ट्रीय अध्यक्ष सालखन मुर्मू के साथ
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रांची- सरना धर्मं कोड की मान्यता के लिए काफी अरसे से मांग कर रहे आदिवासी सेंगेल अभियान ने अपने आंदोलन को तेज करने तथा आर पार की लड़ाई करने का मानस बना लिया है. अभियान की कोर कमेटी की बैठक शुक्रवार को हुई जिसमे ऑल इंडिया संताली एजुकेशन काउंसिल (AISEC) के प्रांगण करनडीह, जमशेदपुर में सरना धर्म कोड जनसभा- रांची की समीक्षा की गई। जिसकी पुष्टि विभिन्न राज्यों में कार्यरत सेंगेल के 174 नेताओं के साथ जूम मीटिंग में की गई।

आदिवासी सेंगेल अभियान सरना धर्म कोड की मान्यता को लेकर पिछले दो दशकों से संघर्षरत हैं। 2024 में लोकसभा चुनाव है। चूंकि सरना धर्म कोड केंद्र सरकार का मामला है, इसलिए केंद्र सरकार पर जनदबाव बनाने की रणनीति के तहत सेंगेल अभियान समर्थकों ने विरोध व प्रदर्शन तेज कर दिए हैं।

आदिवासी सेंगेल अभियान के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व सांसद सालखन मुर्मू ने बताया की मीटिग में कुछ प्रमुख फैसला किये गये. बताया गया कि रांची के मोरहाबादी मैदान में 8 नवबर को हुए सरना धर्म कोड जनसभा ने ऐतिहासिक सफलता हासिल की. 15 नवंबर को बिरसा जयंती के दिन प्रधानमंत्री बिरसा के गांव उलिहातू आने वाले हैं। अतः 15 नवंबर को सभी राज्यों में बिरसा की मूर्ति और अन्य शहीदों के मूर्ति के समक्ष सुबह 10 से 1 बजे तकअनशन कार्यक्रम रखा जाएगा। प्रधानमंत्री मोदी से सरना धर्म कोड और आदिवासी राष्ट्र बनाने की दो मांगों पर ध्यान आकर्षण किया जाएगा. मुर्मू ने बताया कि सेंगेल के दो जुझारू नेता कान्हू राम टुडू (सोनुवा प्रखंड, पश्चिम सिंहभूम जिला) और चंद्र मोहन मार्डी (पेटरवार प्रखंड) ने घोषणा किया है कि यदि प्रधानमंत्री 15 नवंबर को उलिहातू में सरना धर्म कोड के मान्यता की घोषणा नहीं करेंगे तो इसी दिन शाम को दोनों आत्मदाह करेंगे।

सालखन मुर्मू ने आगे कहा कि आदिवासी समाज और उसका धर्म आदि आदिवासी विरोधी राजनीतिक शक्तियों का शिकार बन गया है। जबकि गैर आदिवासी समाज और धर्म अपने हित में राजनीतिक शक्ति का उपयोग करता है। आदिवासी विरोधी राजनीति के लिए अधिकांश आदिवासी नेता, जनसंगठन और आदिवासी स्वशासन व्यवस्था के अगुआ दोषी हैं। सेंगेल "आदिवासी राष्ट्र" की परिकल्पना के साथ किसी भी पार्टी और उसके वोट बैंक को बचाने की अपेक्षा आदिवासी समाज को बचाने का संघर्ष तेज करेगा। समाज का दुर्भाग्य है कि इसपर गलत राजनीति हावी है जबकि गैर- आदिवासी समाज (सही) राजनीति पर हावी है।

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इसलिए चाहिए सरना धर्म कोड

पूर्व सांसद सालखन मुर्मू ने कहाकि आदिवासियों को अपना अलग सरना धर्म (प्रकृति पूजा) कोड चाहिए। 2011 की जनगणना में प्रकृति पूजक आदिवासियों ने लगभग 50 लाख की संख्या में सरना धर्म लिखाया था और जैन धर्म लिखाने वालों की संख्या लगभग 44 लाख थी। तब हम आदिवासियों को सरना धर्म कोड की मान्यता से अब तक वंचित क्यों किया गया है? हम लोग हर हाल में 2023 में सरना धर्म कोड लेकर रहेंगे। 

मुर्मू कहते हैं भारत सरकार द्वारा पूरे आदिवासी समुदाय को धार्मिक पहचान से वंचित कर दिया है। आदिवासी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन और बौद्ध धर्म के नहीं है। आदिवासियों की पूजा पद्धति इन सभी धर्मों से अलग है बावजूद आदिवासियों के लिए कोई कॉलम नहीं है। जिससे आदिवासी समाज अन्य के कॉलम में अपना धर्म को लिखते हैं। आदिवासी समाज के लोग अपना धर्म को सरना लिखते हैं इसलिए वर्षों से सरना धर्म कोड की मांग कर रहे हैं किन्तु वर्तमान बीजेपी सरकार इस पर बिल्कुल भी गंभीर नहीं है। बीजेपी एवं आर‌एस‌एस जबरन आदिवासियों को हिंदू बताती है जो सीधे-सीधे  आदिवासियों के धार्मिक पहचान पर हमला है।

सरना धर्म क्या है?

सरना धर्म को उसके अनुयायी एक अलग धार्मिक समूह के रूप में स्वीकार करते हैं, जो मुख्य रूप से प्रकृति के उपासकों से बना है। सरना आस्था के मूल सिद्धांत "जल (जल), जंगल (जंगल), ज़मीन (जमीन)" के इर्द-गिर्द घूमते हैं, जिसमें अनुयायी वन क्षेत्रों के संरक्षण पर जोर देते हुए पेड़ों और पहाड़ियों की पूजा करते हैं। पारंपरिक प्रथाओं के विपरीत, सरना विश्वासी मूर्ति पूजा में शामिल नहीं होते हैं और वर्ण व्यवस्था या स्वर्ग- नरक की अवधारणाओं में विश्वास नहीं करते हैं। सरना के अधिकांश अनुयायी ओडिशा, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम जैसे आदिवासी बेल्ट में केंद्रित हैं।

सरना धर्म के पैरोकार कई बार राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य को संबोधित पत्रों में अपने विचार व्यक्त करते हुए आदिवासियों के लिए एक अलग धार्मिक संहिता की स्थापना की मांग करते रहे हैं। वे दावा करते हैं कि स्वदेशी लोग प्रकृति के उपासक हैं और उन्हें एक अलग धार्मिक समुदाय के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। सालखन मुर्मू कहते हैं कि एक अलग धार्मिक समुदाय के रूप में मान्यता जनजातियों को उनकी भाषा और इतिहास के संवर्द्धन के लिए बेहतर सुरक्षा प्रदान करेगी। इस तरह की मान्यता के अभाव में ही कुछ समुदाय के सदस्यों ने अल्पसंख्यक स्थिति और आरक्षण का लाभ उठाने के लिए हाल ही में ईसाई धर्म अपनाया।

विशेषज्ञों का तर्क है कि प्रदूषण को दूर करने और वनों के संरक्षण पर वैश्विक फोकस के साथ, मूल समुदायों को सबसे आगे रखा जाना चाहिए। सरनावाद को एक धार्मिक संहिता के रूप में मान्यता देना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस धर्म का सार प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण में निहित है।

नवंबर 2020 में, झारखंड सरकार ने सरना धर्म को मान्यता देने और इसे 2021 की जनगणना में एक अलग कोड के रूप में शामिल करने के लिए एक प्रस्ताव पारित करने के लिए एक विशेष विधानसभा सत्र आयोजित किया। हालांकि, केंद्र सरकार ने अभी तक इस प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया और कार्रवाई नहीं की है। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) ने भी भारत की जनगणना के लिए धर्म कोड के भीतर एक स्वतंत्र श्रेणी के रूप में सरना धर्म की सिफारिश की है।

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