जमशेदपुर- आदिवासी सेंगेल अभियान ने सरना धर्म कोड को मान्यता देने की अपनी लंबित मांग को लेकर 30 दिसंबर को भारत बंद और रेल-रोड चक्का जाम का एलान किया है. अभियान के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व सांसद सालखन मुर्मू ने कहाकि " सरना धर्म कोड भारत के प्रकृति पूजक लगभग 15 करोड़ आदिवासियों के अस्तित्व, पहचान, हिस्सेदारी का जीवनरेखा है। आदिवासियों को उनकी धार्मिक आजादी से वंचित करने के लिए कांग्रेस- बीजेपी दोषी हैं। "
1951 की जनगणना तक यह प्रावधान था, जिसे बाद में कांग्रेस ने हटा दिया और अब भाजपा जबरन आदिवासियों को हिंदू बनाना चाहती है। एक बयान में मुर्मू ने कहा कि 2011 की जनगणना में 50 लाख आदिवासियों ने सरना धर्म लिखाया था जबकि जैन की संख्या 44 लाख थी।
अतः आदिवासियों को मौलिक अधिकार से वंचित करना संवैधानिक अपराध जैसा है। सरना धर्म कोड के बगैर आदिवासियों को जबरन हिंदू, मुसलमान, ईसाई आदि बनाना धार्मिक गुलामी को मजबूर करना है। सरना धर्म कोड की मान्यता मानवता और प्रकृति- पर्यावरण की रक्षार्थ भी अनिवार्य है।
सरना हेतु प्रधानमंत्री का उलिहातू दौरा (15.11.23) और राष्ट्रपति का बारीपदा दौरा (20.11.23) भी बेकार साबित हुआ।
मुर्मू ने कहा कि उपरोक्त तथ्यों के आलोक में आदिवासी सेंगेल अभियान 30 दिसंबर को सांकेतिक एकदिनी भारत बंद और रेल- रोड चक्का जाम को मजबूर है। भारत बंद में सरना कोड लिखने वाले 50 लाख आदिवासी एवं अन्य सभी सरना धर्म संगठनों को सेंगेल अपने-अपने गांव के पास एकजुट प्रदर्शन करने का आग्रह और आह्वान करता है। सरना धर्म पूजा स्थलों यथा मरांग बुरु, लुगु बुरु, अयोध्या बुरु आदि को बचाने के लिए भी सेंगेल दृढ़ संकल्पित है। सेंगेल ने 10 दिसंबर को मधुबन,गिरिडीह में मरांग बुरु बचाओ सेंगेल यात्रा और 22 दिसंबर को दुमका में हासा- भाषा विजय दिवस का आयोजन तय किया है।
सेंगेल किसी पार्टी और उसके वोट बैंक को बचाने के बदले आदिवासी समाज को बचाने के लिए चिंतित है। सेंगेल का नारा है- पार्टियों की गुलामी मत करो, समाज की बात करो। हासा, भाषा, जाति, धर्म, रोजगार आदि बचाना अब ज्यादा जरूरी है।
सरना धर्म को उसके अनुयायी एक अलग धार्मिक समूह के रूप में स्वीकार करते हैं, जो मुख्य रूप से प्रकृति के उपासकों से बना है। सरना आस्था के मूल सिद्धांत "जल (जल), जंगल (जंगल), ज़मीन (जमीन)" के इर्द-गिर्द घूमते हैं, जिसमें अनुयायी वन क्षेत्रों के संरक्षण पर जोर देते हुए पेड़ों और पहाड़ियों की पूजा करते हैं। पारंपरिक प्रथाओं के विपरीत, सरना विश्वासी मूर्ति पूजा में शामिल नहीं होते हैं और वर्ण व्यवस्था या स्वर्ग- नरक की अवधारणाओं में विश्वास नहीं करते हैं। सरना के अधिकांश अनुयायी ओडिशा, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम जैसे आदिवासी बेल्ट में केंद्रित हैं।
विशेषज्ञों का तर्क है कि प्रदूषण को दूर करने और वनों के संरक्षण पर वैश्विक फोकस के साथ, मूल समुदायों को सबसे आगे रखा जाना चाहिए। सरनावाद को एक धार्मिक संहिता के रूप में मान्यता देना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस धर्म का सार प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण में निहित है।
नवंबर 2020 में, झारखंड सरकार ने सरना धर्म को मान्यता देने और इसे 2021 की जनगणना में एक अलग कोड के रूप में शामिल करने के लिए एक प्रस्ताव पारित करने के लिए एक विशेष विधानसभा सत्र आयोजित किया। हालांकि, केंद्र सरकार ने अभी तक इस प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया और कार्रवाई नहीं की है। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) ने भी भारत की जनगणना के लिए धर्म कोड के भीतर एक स्वतंत्र श्रेणी के रूप में सरना धर्म की सिफारिश की है।
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