ग्राउंड रिपोर्ट: मध्य प्रदेश में जनजातियों की दुर्दशा का खुलासा

भोपाल शहर के पास दमडोंगरी गांव में मैदादेवी, कलावती और अन्य लोगों के अनकहे संघर्षों की कहानी
ग्राउंड रिपोर्ट: मध्य प्रदेश में जनजातियों की दुर्दशा का खुलासा
फोटो- कशिश सिंह
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भोपाल: मध्य प्रदेश के मध्य में, भोपाल के हलचल भरे शहर से लगभग 60 किलोमीटर दूर, डामडोंगरी नामक एक गाँव है, जो छह-लेन हाईवे के निकट होने के बावजूद अलग-थलग महसूस करता है. यहां, रायसेन जिले के इस सुदूर कोने में, तेरह लोगों का एक आदिवासी परिवार रहता है. गाय के गोबर और मिट्टी से बने उनके साधारण आवास गरीबी और संघर्ष की एक तस्वीर पेश करते हैं जो उनके घरों की सीमा से कहीं आगे तक फैली हुई है.

इन मामूली घरों के बीच, हमें कलावती नाम की 27 वर्षीय महिला मिलती है, जिसका सिर पर साड़ी से पल्ला किया हुआ है और वह अपने एक साल के बच्चे को गोद में लिए हुए है. निराशा से भरी आवाज में वह कहती हैं, "किसी को हमारी परवाह नहीं है." दो मिट्टी के घरों को अलग करने वाली संकरी गली के बीच खड़े होकर, कलावती गाय के गोबर से लिपी हुई एक टूटी हुई मिट्टी की दीवार की ओर इशारा करती है - आश्रय और सुरक्षा की झलक बहाल करने का एक व्यर्थ प्रयास.

एक गोबर की दीवार से बनाया गया आवास
एक गोबर की दीवार से बनाया गया आवासफोटो- कशिश सिंह

तेरह लोगों के इस परिवार में छह वयस्क और सात बच्चे शामिल हैं, जो मध्य प्रदेश में मुक्त जनजातियों के रूप में सूचीबद्ध हाशिये पर पड़े 'घुमक्कड़ समुदाय' से हैं. ये ग्रामीण, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और बुनियादी सुविधाओं सहित अपने मौलिक मानवाधिकारों से भी वंचित हैं. परिवार के पुरुष सदस्य ट्रक, ट्रैक्टर, डंपर और कार चालक के रूप में 500 रुपये की दैनिक आय अर्जित करके अपना और अपने परिवार का जीवन यापन करते हैं, ये बात हमे कलावती बताती हैं जिनके पति अक्सर काम की तलाश में विभिन्न राज्यों की यात्रा करते हैं. स्वाभाविक रूप से सवाल उठता है कि क्या तेरह लोगों के परिवार का भरण-पोषण करने के लिए प्रतिदिन 500 रुपये पर्याप्त हो सकते हैं?

फोटो- कशिश सिंह

शिक्षा, एक विशेषाधिकार

इन पृथक गांवों में शिक्षा की स्थिति जानने के लिए हमने दामडोंगरी को इसका प्रमुख उदाहरण बनाया, इस गांव में शिक्षा का हाल देख कर हमे पता चलता है की शिक्षा भी एक विशेषाधिकार है जो शायद इन गावों में रहने वाले गरीब परिवारों के बच्चों के लिए नहीं है. इलाके के एक सरकारी स्कूल में नामांकित नौ वर्षीय रोशनी, शायद ही कभी कक्षाओं में जाती है. वह हमे बताती है की स्कूल में शिक्षक मोबाइल फ़ोन चलने में ज़्यादा व्यस्त रहते हैं और स्कूलों में कोई पढाई नहीं होती है. रोशनी के पास कोई किताब या नोटबुक नहीं है, और वह स्कूल जाना पसंद भी नहीं करती क्यूंकि स्कूल जाकर सिर्फ बैठना ज्ञान प्राप्त करना नहीं कहलाता.

फोटो- कशिश सिंह

इस गांव में बच्चों का सरकारी स्कूल में दाखिला तो करवाया गया है, लेकिन बच्चे स्कूल जाते नहीं हैं क्यूंकि वहां पढ़ाई नहीं हो रही है, दामडोंगरी का सरकारी स्कूल इन बच्चों के सामने आने वाली चुनौतियों को और बढ़ा देता है. गांव से उलटी दिशा में, भारी यातायात से भरे छह-लेन हाईवे के पार ये स्कूल है. और हर रोज़ कोई छोटे बच्चों को यहाँ छोड़ने और ले जाने नहीं जा सकता, ऐसे में माँ बाप बच्चे की जान का जोखिम नहीं लेना चाहते हालांकि बच्चों का भविष्य ज़रूर जोखिम में है.

रहने की स्थितियाँ: एक दैनिक संघर्ष

दो छोटे मिट्टी के घरों में तेरह सदस्यीय परिवार रहता है, उनकी छतें इतनी नीची हैं कि निवासियों को हमेशा झुकना पड़ता है. दमडोंगरी में रहने की यह स्थिति इसके निवासियों द्वारा सामना की जाने वाली कठोर वास्तविकताओं का उदाहरण है.

घर के अंदर का दृश्य
घर के अंदर का दृश्यफोटो- कशिश सिंह

“हमारे पास न तो ज़मीन है, न अपना कहने लायक जगह, न ही करने के लिए कोई काम. हम कैसे अपना जीवन गुज़ारें? हम अपने कच्चे घरों के पास मिट्टी इकट्ठा करते हैं और उसे जीवनयापन के लिए बेचते हैं,” मैदादेवी ने सरकार से जमीन के एक छोटे से टुकड़े की मांग करते हुए कहा. मैदादेवी के पति पिछले महीने आए बिजली बिल को याद करते हुए बताते हैं कि बिना बिजली इस्तेमाल किए ही उनका बिल 4000 रुपये का बन गया था.

वह आगे कहते हैं, "जब हमारे पास बिजली से चलने वाले उपकरण ही नहीं हैं तो इतनी अधिक राशि का बिल आना कैसे संभव है? यह स्पष्ट भेदभाव है जिसका हम सामना कर रहे हैं." इसी गांव में, कुछ प्रभाव वाले और जाहिर तौर पर कहीं अधिक आय वाले लोगों का बिजली बिल  45 रुपये या इसी तरह से आता है, और फिर एक तरफ हमारा परिवार है. ये लोग लाइनमैन और प्राधिकार में अन्य लोगों के साथ अपने संबंधों का स्पष्ट रूप से लाभ उठा रहे हैं.'' 

जब पानी की आपूर्ति के बारे में पूछा गया तो हमें डामडोंगरी में रह रहे लोगों की एक और समस्या के बारे में पता चला. हर दूसरे दिन पानी की सप्लाई आती है. लोगों को बाकी दो दिनों के उपयोग के लिए पानी भर कर रखना पड़ता है। दो दिन पानी न आना एक बहुत बड़ी समस्या है. 

अलग-अलग बाल्टियों में रखा पानी
अलग-अलग बाल्टियों में रखा पानीफोटो- कशिश सिंह

द मूकनायक ने परिवार से पूछा कि क्या पिछले कुछ वर्षों में क्षेत्र के किसी राजनेता या सरकारी अधिकारी ने कभी उनसे मुलाकात की है, तो मैदादेवी ने जवाब दिया, “हम इस देश के वोट देने वाले नागरिक हैं. हम अपना वोट पूरी ईमानदारी और कर्तव्य के रूप में डालते हैं. लेकिन पिछले 15-20 वर्षों में, एक भी राजनेता या सरकारी अधिकारी हमारे क्षेत्र में यह पूछने या यहां तक कि उन परिस्थितियों के बारे में जानने के लिए नहीं आया, जिनमें हम रह रहे हैं. वे केवल वोट मांगने और झूठे वादे करने आते हैं.

पुलिस, झूठ और क्रूरता

वर्ष 2023 में, जहां सत्ता में बैठे लोग दावा करते हैं कि एक देश के रूप में हमने प्रगति की है और अभी भी प्रगति के मार्ग पर हैं, वे यह समझने में विफल हैं कि वे समाज के वंचित वर्ग की उपेक्षा कर रहे हैं. वे इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं कि समाज का एक बड़ा वंचित वर्ग भी इस देश के नागरिकों की गिनती में आता है और यदि देखा जाए तो वे "वंचित" शब्द से भी कही पीछे रह गया है.

समाज के गरीब वर्ग के कल्याण के लिए सरकार द्वारा लागू की गई मुफ्त राशन योजना की जमीनी हकीकत जानने के लिए द मूकनायक ने मैदादेवी से प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के बारे में पूछा.

13 लोगों के परिवार में मैदादेवी एकमात्र व्यक्ति हैं जिन्हें मुफ्त राशन मिल रहा है और वह राशन पूरे परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए है. मैदादेवी को प्रति माह 35 किलो राशन मिलता है, जिसमें केवल चावल और गेहूं होता है. अब, यह 35 किलो राशन पूरे परिवार के गुजारे के लिए है.

घर के अंदर जलता हुआ मिट्टी का चूल्हा
घर के अंदर जलता हुआ मिट्टी का चूल्हा फोटो- कशिश सिंह

मैदादेवी 13 लोगों के बीच एलपीजी सिलेंडर पाने वाली एकमात्र व्यक्ति हैं, जिसमें उनकी दो बहुएं और क्षेत्र के 11 अन्य लोग शामिल हैं. हालाँकि, एलपीजी सिलेंडर लेना ही पर्याप्त नहीं है. वे अभी भी मिट्टी के चूल्हे पर खाना पकाने के लिए मजबूर हैं, और उनका खाना पकाने का ईंधन लकड़ी है. इसके पीछे कारण यह है कि इन कुछ लोगों को जो सिलेंडर मिला है वह 700 रुपये की कीमत चुकाकर मिला है, और अब जब इस सिलेंडर को फिर से भरवाना होगा, तो इसे बाजार मूल्य पर ही फिर से भरवाया जाएगा, जो कि 1100 रुपये है और बाजार दर के अनुसार घटते-बढ़ते रहता है. 

एक ऐसा परिवार जो बहुत ही मुश्किल से अपना गुज़र बसर कर रहा है, जिसके पास खाने को नहीं है, खाने को है तो पहनने को नहीं है, पहनने को है तो ओढ़ने को नहीं है, ऐसे में वो कैसे इतनी भारी कीमत देकर एलपीजी सिलेंडर रिफिल करवा सकता है. मैदादेवी जैसे परिवारों के लिए यह संभव नहीं है और यही कारण है कि, 2023 में भी, लाखों लोग ऐसे हैं जो अभी भी सामान्य जीवन स्तर से नीचे की परिस्थितियों में रहने को मजबूर हैं.

यह वही समय है जब सत्ता में बैठे लोग समाज के गरीब तबके की भलाई के लिए काम करने का दावा कर रहे हैं, लेकिन वे केवल अमीरों को और अमीर और गरीबों को और गरीब बना रहे हैं. मैदादेवी ने एक जोरदार बयान दिया जो इस देश के मौजूदा हालात को बताने के लिए काफी है. वह कहती हैं, "गरीबों की गरीब होने और बने रहने के अलावा कोई पहचान नहीं है."

गरीबों की कोई गरिमा नहीं

मैदादेवी के पति उच्च जाति के लोगों की तुलना में उनके प्रति पुलिस के व्यवहार के बारे में बात करते हैं. वह कहते हैं, "पुलिस हमें बिना सोचे-समझे किसी भी मामले में फंसा सकती है, बिना यह पूछने की जहमत उठाए कि हमने कुछ किया है या नहीं. पुलिस ऊंची जाति के तबके का पक्ष लेती है और हमें किसी भी मामले में कुछ कहने का अधिकार नहीं है."

वह ऊंची जातियों के प्रति पुलिस के पक्षपात की स्थिति को और विस्तार से बताते हुए कहते हैं, ''अगर कोई ऊंची जाति का व्यक्ति अपराध करता है और पुलिस के सामने उससे इनकार करता है, जबकि उसी स्थिति में निचली जाति का कोई व्यक्ति शामिल है, तो पुलिस हमारा पक्ष सुनने की जहमत भी नहीं उठाएगी. वे हमें किसी भी मामले में फंसा देंगे और ऐसा करने के लिए उनका तर्क यह होगा कि ये लोग समाज के उच्च वर्ग से आते हैं, इसलिए वे झूठ क्यों बोलेंगे? पुलिस हमे ही कहती है की यह आप ही हैं जो अपराध या कुछ नियमों का उल्लंघन कर सकते हैं."

जाति और वर्ग के आधार पर भेदभाव अभी भी अधिकांश क्षेत्रों में प्रचलित है, और डामडोंगरी की घुम्मकड जनजाति को जो सामना करना पड़ रहा है वह आज के समय की क्रूर वास्तविकता का एक छोटा सा उदाहरण है.

महिलाओं के उपयोग के लिए बनाया गया स्नानघर
महिलाओं के उपयोग के लिए बनाया गया स्नानघरफोटो- कशिश सिंह

डामडोंगरी में महिलाएं अलग तरह की समस्याओं का सामना कर रही हैं और उनकी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं. कलावती ने नहाने के लिए एक निजी स्थान बनाने के लिए तीन कोनों से पुरानी फटी चादरों से ढका हुआ एक बाथरूम बनाया. वह कहती हैं, "हम नहाते समय साड़ी पहनते हैं ताकि हम सुरक्षित महसूस कर पाए क्योंकि यह बाथरूम जो हमने बनाया है वह हमारे घर के बाहर है."

महिलाएँ मिट्टी के चूल्हे पर खाना पकाती हैं, उनके पास अच्छा भोजन तैयार करने के लिए उचित सामग्री भी नहीं होती. यहां बच्चों को उनकी बढ़ती उम्र के दौरान उचित पोषण प्राप्त करने के लिए ज़रूरी पोषक खाना नहीं मिल पा रहा है. उदाहरण के लिए, पूरे घर में दूध नहीं है क्योंकि वे इसे खरीद नहीं सकते. यहां तक कि जब हम उनका हाल जानने पहुंचे, तो उन्होंने हमें काली चाय पेश की क्योंकि घर में दूध नहीं था, और उनके पास स्वस्थ जीवन जीने के लिए बुनियादी ज़रूरतें कभी नहीं थीं.

गाय से साथ खेलते हुए बच्चे
गाय से साथ खेलते हुए बच्चेफोटो- कशिश सिंह

सरकारी दावें

मध्य प्रदेश सरकार की एक आधिकारिक साइट है जो विशेष रूप से मध्य प्रदेश में विमुक्त, खानाबदोश और अर्ध-घुमंतू जनजातियों के कल्याण के लिए समर्पित है. हालांकि, जब हमने वेबसाइट के दावों की जमीनी हकीकत से तुलना की तो वे बिल्कुल भी मेल नहीं खाते.

वेबसाइट पर प्रधानमंत्री आवास योजना का जिक्र करते हुए बताया गया है कि प्रति लाभार्थी 1.50 लाख रुपये प्रदान किये जाते हैं. लेकिन सूत्र कुछ और ही कहानी बता रहे हैं. एक सूत्र के मुताबिक, लाभार्थियों को पूरी रकम नहीं मिलती है; उन्हें केवल 1.36 लाख रुपये मिलते हैं, जिसमें मनरेगा से प्राप्त राशि भी शामिल है.

घर की जर्जर हालत
घर की जर्जर हालत फोटो- कशिश सिंह

एक अन्य गाँव, गौतमपुर कॉलोनी, जो रायसेन जिले के अंतर्गत आता है, यह गांव प्रधानमंत्री आवास योजना के कारण ग्रामीण लोगों को होने वाली समस्याओं का गवाह बना. तीन साल पहले, प्रेमाबाई को पीएम आवास योजना के तहत 1.20 लाख रुपये आवंटित किए गए थे. हालाँकि, ये धनराशि किस्तों में आवंटित की जाती है, एक बार में नहीं. आवंटन के बाद, प्रेमाबाई ने अपने घर का निर्माण शुरू कर दिया, और अब तीन साल हो गए हैं, उन्हें योजना के तहत लाभार्थी के रूप में आवंटित कोई भी राशि नहीं मिली है.

गांव में निर्माणाधीन मकान
गांव में निर्माणाधीन मकानफोटो- कशिश सिंह

प्रेमाबाई कहती हैं, "पंचायत प्रधान और सचिव ने हमारा पैसा रख लिया है, और हमें योजना से एक पैसा भी नहीं मिला है. हम बाहर से मजदूरों को शामिल किए बिना, खुद ही अपना घर बना रहे थे."

प्रेमाबाई, एक अकेली माँ, अपने दो बच्चों के साथ एक कच्चे घर में रहती है, जिसे उन्होंने खुद बनाया है. घर की हालत बेहद खराब है और मानसून के मौसम में इसके टूटने की आशंका है क्योंकि यह मजबूती से नहीं बना है. इसी अस्थाई मकान के बगल में प्रेमाबाई प्रधानमंत्री द्वारा प्रदत्त योजना के तहत अपना मकान बना रही थी.

अपने निर्माणाधीन मकान के पास बैठी प्रेमाबाई
अपने निर्माणाधीन मकान के पास बैठी प्रेमाबाईफोटो- कशिश सिंह

वेबसाइट पर अंकित आर्थिक विकास योजनाएं ज़मीन पर पूरी होती नहीं दिख रही हैं. वेबसाइट में इन जनजातियों के आर्थिक विकास के लिए चार योजनाओं का उल्लेख है: मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना, मुख्यमंत्री आर्थिक कल्याण योजना, प्रत्यायोजित जाति बस्ती विकास योजना, और प्रत्यायोजित जाति बस्तियों में विद्युतीकरण योजना.

हालाँकि, ये सभी योजनाएँ बिना कार्रवाई और कार्यान्वयन के महज़ योजनाएँ बनकर रह जाती हैं. सरकार और राजनीति में मौजूद लोग झूठे और टूटे वादों के बदले में इन जनजातियों से केवल वोट मांगते हैं, जो बिना किसी कार्रवाई के खोखले वादे रह जाते हैं. मध्य प्रदेश में इस साल चुनाव होने हैं और यही वह समय है जब झूठे वादों और नकली विकास का दुष्चक्र दोहराया जाएगा.

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