उदयपुर। गवरी- मेवाड़ का सबसे पुराना लोक नृत्य। राजस्थान के मेवाड़ अंचल में सदियों से हर वर्ष आयोजित होता रहा है ये लोकनृत्य-नाट्य 'गवरी'। यहां बसे भील-गमेती आदिवासियों में गवरी का आयोजन अनुष्ठान की तरह किया जाता है। राखी के पर्व के बाद इसका व्रत लिया जाता है। सवा महीने का कठिन व्रत। गवरी में काष्ठ के हथियार, मिट्टी का मांदल जैसा बाजा, गुर्ज जैसा हथियार होना बताता है कि यह धातुओं के ज्ञान से भी पुरानी प्रचलित नाट्य विधा है।
गवरी में अभिनीत किये जाने वाले दृश्यों को 'खेल', 'भाव' या सांग कहा जाता है। यह भील जनजाति का एक ऐसा नाट्य-नृत्यानुष्ठान है, जो सैकड़ों बरसों से प्रतिवर्ष श्रावण पूर्णिमा के एक दिन पश्चात प्रारंभ हो कर सवा माह तक आयोजित होता है। इसका आयोजन मुख्यत: उदयपुर और राजसमंद जिले में होता है। इसका कारण यह है कि इस खेल का उद्भव स्थल उदयपुर माना जाता है तथा आदिवासी भील जनजाति इस जिले में बहुतायत से पाई जाती है।
सावन के बाद भादौ के लगते ही गवरी का मंचन करने वाले कलाकार 40 नाटिकाओं के अभिनय के लिए अपने घर से ही नहीं, गांव से भी निकल पड़ते हैं। जो कोई कलाकार हैं, वे विसर्जन तक गृहस्थ होकर घर नहीं आते। गांव - गांव गवरी होती है। गवरी में जितने नारी पात्र होते हैं, वे आदमी ही निभाते हैं। राइयां, खेतू, अंबाव, कालका, वराजू, कंजरी, गुजरी... आदि, वे पूरे सवा महीने तक परिवार, पत्नी, पुत्र, पुत्री के समस्त दायित्व से दूर होकर अभिनय को धर्म और कर्म समझ कर करते हैं।
मेवाड़ के वरिष्ठ इतिहासकार और लोक पर्व-कलाओं की बारीक जानकारी रखने वाले डॉ श्रीकृष्ण जुगनू से द मूकनायक ने जानी इस प्रचीनतम लोक नृत्य नाट्य से जुड़ी रोचक जानकारी। जुगनू कहते हैं, " जन जातियों में अभिनय किसी अनुष्ठान से कम नहीं। आचार्य भरत और आदिभरत से लेकर धनंजय, भोजदेव, शारंगदेव, सोमेश्वर आदि ने किसी नाटक के पात्रों के आवधिक आचरण का उल्लेख नहीं किया लेकिन जन जातियों में ये आचरण सदियों से रहे हैं। "
ताज्जुब होता है कि गवरी में कभी पात्र बदलते नहीं। जिस घर के हिस्से में जो पात्र बनाना तय है, उसका मुखिया उस किरदार को करेगा ही। युवा होने से लेकर बुढ़ापे तक अथवा जब तक बेटा वह पात्र अभिनीत न करने लगे। देव, दानव, मानव, पशु ही नहीं, खेचर और जलचर जैसे छह प्रकार के पात्र इस नृत्य शैली को शास्त्र की सीमा के पास प्रतिष्ठित करते हैं। नाट्य शास्त्र चार प्रकार के पात्र ही बताता है।
गवरी के नारी पात्र सामान्य नहीं, वे अतिकाय और अतिशय हैं। आपत्तिकाल में जब भी किसी आदमी ने उनको पुकारा, वे बल और बुद्धि पूर्वक उसका साथ देती हैं। धरती ही क्या, आकाश और पताल में भी, वे देवी इसलिए हैं कि साथ देती हैं। यथा समय वे आयुध उठाकर अपने पराक्रम को रचती और दिखाती भी हैं।
कितना कठोर संकल्प होता है : नारी वेश यदि धारण कर लिया तो वह कलाकार अपनी पत्नी, परिवार से दूर रहेगा। नशा नहीं करेगा। बहन, बेटी के घर, गुवाड़ी, गांव में नाचकर उनके आयुष्य, धन, धान्य, संतान सुख की कामना करते हैं। पशुधन समृद्ध हो, समय पर बारिश हो और बहनों की राखी फली फूली रहे...।
गवरी बेटियों के सम्मान की बात भी करती है.मेवाड़ में गवरी का मंचन सदियों से हो रहा है. सालों पहले से यह रीत रही है कि किसी गाँव विशेष की गवरी पूरे मेवाड़ के उन गांवों में ही मंचन करती है जहाँ उनके पैतृक गाँव की कोई बहन- बेटी ब्याही होती है. ऐसे में गवरी दल सिर्फ अपने गाँव में ही अच्छी बारिश की कामना नहीं करते अपितु उन सभी जगहों पर भी अच्छी बारिश की दुआ नृत्य के द्वारा मांगते हैं, जहाँ उनके गाँव की बहिन- बेटियां ब्याही होती है. बेटियों के सम्मान को दर्शाती ये अद्भुत परंपरा और कहीं देखने को नहीं मिलती है।
इस मंचन के दौरान जहाँ भी मंचन होता हैं, वहां की सभी बहिन- बेटियां गवरी का मंचन देखने आवश्यक रूप से इकठ्ठा भी होती है और मंचन के बाद पूरे गवरी दल के भोजन की व्यवस्था भी करती है. यहाँ एक बहुत ही प्यारी परंपरा का भी निर्वहन होता है. चूँकि आमतौर पर बेटी के ससुराल का एक दाना भी स्वीकार करना अच्छा नहीं माना गया है, ऐसे में वे बहिन बेटियां गाँव के अन्य घरों में गवरी दल के भोजन की व्यवस्था करती हैं, जहाँ उन घरों में दो-दो तीन-तीन सदस्य जाकर भोजन जीमते हैं.
गवरी समापन पर “वलावन” रस्म में सभी बहिन बेटियां अपने पीहर आती हैं और गवरी दल सदस्यों की “पेरावनी” (वस्त्र अर्पित करना) करवाती है. इस दौरान वे गवरी का आभार जताती है कि आपने विभिन्न व्रतों का पालन करते हुए उनके तथा उनके गाँव की समृद्धि की प्रार्थना की.
डॉ जुगनू बताते हैं गवरी नाट्य शिव- पार्वती के इर्द गिर्द घूमता है। नाट्य प्रकृति संरक्षण की बात करता है. उसका एक भी “खेल” प्रकृति के विरुद्ध नहीं होता. बकौल “वडल्या हिंदवा” खेल, पेड़ों को हर हाल में बचाने की बात की जाती है. गवरी का मंचन बेहतर कल के लिए होता है. ऐसा माना जाता है कि जहाँ जहाँ गवरी मंचित होती हैं, वहां गौरज्या देवी (पार्वती) की अनुकम्पा बरसती है और बारिश अच्छी होती है. पर गवरी के पूरे मंचन में एक बात निराली है.
जुगनू बताते हैं कि प्रकृति और नारी के प्रति अगाध सम्मान और स्नेह का भाव जो गवरी नाट्य में निहित है, किसी भी अन्य नाट्य शास्त्र में नहीं देखा गया है। कुछ खेल इसमें ऐसे हैं जैसे बंजारा- मीणा (ख्याल)खेल, जिसमे गाँव के रतन "गौ वंश तथा भेड़ बकरियों" को बचाने का सन्देश दिया जाता है।
गवरी का व्रत धारण करने वाले कलाकार अपने घर व गांव से दूर तो रहते ही हैं , 40 दिन तक गवरी दल के सदस्य न हरी सब्जी खाते हैं न ही पांवों में जूते पहनते हैं। वे परिवार से पूरी तरह दूर रहते हैं और किसी देवालय में ही विश्राम करते हैं। न कमाने की चिंता न ही खाने का ख्याल। बाजों को जमीन पर नहीं रखा जाता। बाजा कंधे और बंद सब धंधे। 40 दिनों तक सदस्यों को नहाना नहीं होता है. पूरे कार्यक्रम तक एक समय का भोजन करते हैं
जिस किसी भी गांव में गवरी नर्तन का व्रत लिया गया, वहां समापन के दो-दो उत्सव मनाए जाते हैं। घड़ावण और वलावण अर्थात् तैयारी और विसर्जन। घडावण के दिन खाट पर काली खोल चढ़ाकर हाथी बनाया जाता है और इंद्र की सवारी निकाली जाती है। विसर्जन के लिए गजवाहिनी पार्वती 'गौरजा माता' की मृण्मयी मूर्ति बनाई जाती है और उसको सजा-धजाकर गांव में सवारी निकाली जाती है।
पूरे रास्ते पर गवरी के सभी मांजी पात्र - बूडियां, भोपा, दोनों राइयां, कुटकुटिया आदि खेलों को अंजाम देते चलते हैं और थाली के साथ मांदल (मर्दल, पखावज) बजते हैं।
गवरी' में कला और नाटक अविभाज्य हैं। भील इसमें अपना कलात्मक कौशल का प्रदर्शन नृत्य, विभिन्न मुद्राओं, अभिनय व नाटकीयता, प्रतिमा का निर्माण तथा उसकी साज-सज्जा, दृश्य की प्रस्तुति, संगीत और वार्तालाप के माध्यम से करते हैं। गवरी में इन लोगों की दैनिक गतिविधियों को प्रकट किया जाता है। गवरी के नाटक में प्रयुक्त किए जाने वाले अद्भुत शिल्प कौशल वाले मुखौटे लोककला के बहुत ही कलात्मक नमूना होते हैं। गवरी उत्सव विभिन्न प्रकार के पारंपरिक मुखौटे बनाए जाते हैं। ये मुखौटे अत्यंत कलात्मक होते हैं। दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने के लिए प्रत्येक चरित्र को एक अलग ही तरह का मेकअप करके सजाया जाता है। इसमें मुख्यतः काले, नीले, पीले और लाल रंग का उपयोग किया जाता है।
गवरी में सबसे लोकप्रिय जो ख्याल (खेल) किया जाता है, वह 'बड़लिया हिंदवा' का होता है। इसके मूल में कथानक उन नौ लाख देवियों का है जो पृथ्वी पर हरियाली के लिए नागराजा वासुकी बाड़ी से पेड़ों को लेकर आती है। आम लाने वाली देवी अंबा कही जाती है, नीम लाने वाली देवी नीमज, पीपल लाने वाली पीपलाज...। देवियों के नामकरण का स्राेत भी इस प्रस्तुति में होता है।
देवियां उन पेड़ों का रोपण करती है किंतु वे राजा जैसल से यह आश्वासन चाहती है कि पेड़ की हर हाल में सुरक्षा होगी। राजा वचन देता है कि उसका सिर कट जाए, मगर कोई पेड़ नहीं कटेगा। देवी उसके वचन की परीक्षा लेने के लिए वरजू कांजरी बनकर आती है। दूसरी ओर हरियाली को उजाड़ने के लिए आबू के पहाड़ से भानिया जोगी अपने चेलों के साथ आता है और राजा को बरगला कर बरगद पर कुल्हाड़ा चला देता है। पहले वार में दूध की धारा फूटती है, दूसरे वार में पानी और तीसरे में रक्त की धारा फूटकर सृष्टि में हाहाकार मचा देती है।
यह ख्याल वस्तुत: पर्यावरण की सुरक्षा का पाठ पढ़ाने वाला प्राचीनतम ख्याल है कि हर कीमत पर पेड़ बचने चाहिए। ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड में, पद्मपुराण के सृष्टिखंड, कृषि पराशर, काश्यपीय कृषि पद्धति आदि में इस प्रकार की मान्यताओं काे संजोया गया है मगर उनका लोक उत्सव ऐसी ही मान्यताओं में देखा जा सकता है।
अरावली की पहाडि़यों में बसे भीलों के टापरों से ही नहीं, उदयपुर शहर के आसपास के गांवों में भी गवरी का जब मंचन होता है , दर्शकों की भीड़ उमड़ पड़ती है। बहुत उल्लासपूर्ण वातावरण में गवरी के व्रत का समापन होता है और पूर्ण आदर सम्मान के साथ ये कलाकार विदा होते हैं अगले साल फिर कहीं किसी और गांव में मिलने का वादा करके।
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