जयपुर। आधुनिकता की चकाचौंध में लुप्त होती राजस्थान की "मांडना कला" को विश्व पटल पर पहचान दिलाने की सरकारी स्तर पर कवायद शुरू हुई है। राजस्थान पंचायती राज विभाग ने राजस्थान ग्रामीण आजीविका विकास परिषद के माध्यम से पूर्वी राजस्थान के सवाईमाधोपुर जिले से इसकी शुरुआत की है।
राजीविका व जयपुर की आयाम संस्था के संयुक्त तत्वाधान में मांडना कला की समझ रखने वाली महिलाओं की जिला मुख्यालय के निकटवर्ती गांव पछीपल्या में प्रतियोगता का आयोजन किया गया। प्रतियोगिता में प्रतिभागी महिलाओं की संख्या बता रही थी कि गांव में आज भी महिलाएं इस कला को सहेजे हुए हैं। इस कला को आगे बढाने के लिए एक प्लेटफॉर्म की जरूरत है। यहां राजस्थान ग्रामीण आजीविका परिषद मांडना कला को समझने वाली महिलाओं को बेहतर प्लेटफॉर्म उपलब्ध करवाने की दिशा में काम कर रही है।
सवाईमाधोपुर में राजस्थान ग्रामीण आजीविका परिषद (राजीविका) जिला प्रबंधक कमल कुमार ने द मूकनायक को बताया कि मांडना कला राजस्थान की संस्कृतिक धरोहर है, लेकिन अब यह कला धीरे-धीरे लुप्त हो रही है। "यह अलग बात है कि शहरों को छोड़ कर गांवों में इसका आज भी चलन है। गांव की उम्रदराज महिलाएं इस कला में पारंगत हैं, लेकिन नई पीढ़ी की इससे दूरी चिंता का विषय है। इस कला को जीवंत रखने के लिए हम राजीविका के माध्यम से महिलाओं को प्रशिक्षित कर रोजगार से जोड़ने पर भी काम कर रहे हैं, "कमल कुमार ने कहा।
उन्होंने कहा कि यह राज्य की संस्कृति धरोहर है। इसे विश्व स्तर पर पहचान दिला कर बचाया जा सकता है। राजीविका और आयाम संस्था के साथ सरकारी सरंक्षण में इसी पर काम कर रहे हैं।
उन्होंने कहा कि पूर्वी राजस्थान की इस सांस्कृतिक धरोहर की अंतरराष्ट्रीय पहचान के साथ सरंक्षण का आगाज सवाईमाधोपुर से किया है। नई पीढ़ी का मांडना कला व इसकी मान्यताओं से परिचय करवा रहे हैं। ताकि नई पीढ़ी इस सांस्कृतिक परम्परा व कला को सीख कर बचाये रखने के इस अभियान से जुड़ सके।
उन्होंने कहा कि गांवो में एनजीओज के माध्यम से कार्य कर रहे महिला समूहों को भी इससे जोड़ रहे हैं। इन समूह से मांडना कला को जानने वाली महिलाओं का चयन कर नई पीढ़ी को सिखाने का काम करेंगे।
कमल कुमार कहते हैं कि अब तक महिलाएं घर के आंगन व चोक में मांडना बनाती थी। अब इन महिलाओं को हाथ मे ब्रश देकर दीवार के साथ ही जूट व कपड़ा पर भी मांडना उकेरने की कला का प्रशिक्षण दिया जाएगा।
उन्होंने कहा महिलाओं की इस चित्रकारी को इनके नाम के साथ रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान के पास बने शिल्पग्राम के अलावा दिल्ली प्रगति मैदान मेले में, सरस के मेलो में, जयपुर जवाहर कला केंद्र व उदयपुर आदि स्थानों पर लगने वाली चित्रकारी प्रदर्शनी में रखेंगे। ताकि यहां देश विदेश से आने वाले पर्यटक राजस्थान की मांडना कला से रूबरू हो सके।
उन्होंने कहा कि केनवास पर पेंटिंग का प्रचलन है। लोग पेंटिंग की इस कला को प्रोफेशनल उपयोग भी करते हैं। वर्ल्ड लेवल इन पेंटिंग्स को महंगे दामों पर खरीदा जाता है। हम चाहते हैं कि राजस्थान की मांडना संस्कृति को भी लोग समझे। मांडना कला के माध्यम से इस सांस्कृतिक परम्परा के संदेश दुनियाभर में अपनी पहचान कायम कर सके। यदि इन प्रदर्शनियों में राजस्थान मांडना कला को एक भी कद्रदान मिला है तो यह बड़ी उपलब्धि होगी। यह डिस्प्ले होगी तो ज्यादा अच्छा लगेगा और कलाकार महिलाओं को भी आर्थिक प्रोत्साहन के साथ मनोबल भी बढ़ेगा कि आज तक जो हम करते आ रहे हैं वो परम्परा गलत नहीं थी। सरकार भी चाहती है कि यह संस्कृति बची रहे, और आगे बढ़े।
यह भी सच है कि पूर्वी राजस्थान की मांडना कला को राज्य सरकार विश्व पटल पर पहचान दिलाने में सफल रही तो मांडना कला में पारंगत ग्रामीण महिलाओं को रोजगार भी मिलने की संभावनाएं बढ़ेगी।
राजस्थान ग्रामीण आजीविका विकास परिषद की जिला इकाई द्वारा सवाईमाधोपुर जिला परिषद सभागार में मुख्य कार्यकारी अधिकारी अभिषेक खन्ना की अध्यक्षता में एक दिवसीय मांडना कला प्रशिक्षण कार्यशाला का आयोजन किया गया।
कार्यशाला में मुख्य अतिथि आयाम कला एवं संस्कृति संस्थान जयपुर के संस्थापक प्रोफेसर चिनमय मेहता ने मांडना कला को विकसित करने एवं सांस्कृतिक धरोहर के रूप में अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाने के अपने अनुभवों एवं प्रयासों से स्वयं सहायता समूह की महिलाओं एवं उपस्थित अधिकारियों को अवगत कराया।
आयाम कला एवं संस्कृति संस्थान जयपुर के संस्थापक प्रोफेसर चिनमय मेहता ने कहा कि पूर्वी राजस्थान की लुप्त हो रही सुन्दर मांडना कला को पुर्नजीवित करने के लिए जयपुर की आयाम संस्थान पिछले 5 वर्ष से समर्पित है।
उन्होंने कहा कि गारे की कच्ची दीवारों पर बने यह सुन्दर चित्र विदेशी पर्यटकों को अत्याधिक आकर्षित करते हैं। गांवों में पक्के मकान बनने से यह परम्परा लुप्त होने लगी है। आयाम पिछले 5 वर्ष से ग्रामीण महिलाओं से सम्पर्क करके कच्ची दीवारों पर बनाए जाने वाले मांडना चित्रों को कागज, कपड़े और सीमेन्ट की दीवारों पर मांडना बनाना सिखाकर उन्हें रोजगार दिलाने का महत्वपूर्ण कार्य कर रही है। मेहता ने कहा कि इससे मांडना की अनूठी परम्परा का संरक्षण के साथ महिला सशक्तिकरण भी हो रहा है।
सवाईमाधोपुर जिला परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अभिषेक खन्ना ने कहा कि समस्त पर्यटक स्थलों पर मांडना कला की चित्रकारी करवाकर बाहर से आने वाले देशी विदेशी पर्यटकों तक इस कला को पहुंचाने का काम करेंगे।
खन्ना ने आगे कहा कि इससे मांडना कला को भी मधुबनी कला की तरह वैश्विक स्तर पर पहचान मिल सकेगी। विदेशी पर्यटकों तक मांडना कला की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए ग्रामीण महिलाओं को चिन्हित कर शिल्पग्राम में बड़े स्तर पर मांडना कला की चित्रकारी प्रदर्शित की जाएगी। उन्होंने मांडना कला प्रशिक्षण से स्वयं सहायता समूह की महिलाओं को जोड़कर महिला सशक्तिकरण एवं महिलाओं के सामाजिक व आर्थिक उत्थान के लिए प्राथमिकता से कार्य करने का विश्वास भी दिलाया।
उन्होंने आगे कहा कि मांडना कला को नई दिशा देने के लिए राजीविका की जिला इकाई द्वारा समूह गठित कर मांडना कला में रुचि रखने वाली महिला सदस्यों को मिशन मोड पर प्रशिक्षण दिया जाएगा।
विशेषज्ञ बताते हैं कि राजस्थान और मध्य प्रदेश में बनाई जाने वाली मांडना कला सबसे प्राचीन जनजातियों में से एक, मीणा अथवा मीना द्वारा शुरू की गई थी। पूर्वी राजस्थान के हाड़ौती/ हाड़ौली/ हाड़ावली क्षेत्र का मीणा समुदाय मांडना में अधिक संलग्न रहा और गहरी छाप भी छोड़ी। राजस्थान में मांडना कला फ़र्श एवं दीवारों पर बनाई जाती है, जबकि मध्य प्रदेश में केवल फ़र्श सजाने में इसका प्रयोग किया जाता है। यह केवल मिट्टी की दीवारों अथवा फ़र्श पर ही बनाई जाती है क्योंकि ज़मीन को गाय के गोबर, रति (जो एक स्थानीय मिट्टी है) और लाल गेरू से तैयार किया जाता है।
जानकार कहते हैं शुरुआती दिनों में यह कला शादी समारोह, त्योहारों और बच्चे के जन्म पर बनाई जाती थी। समय बीतने के साथ मीणा समुदाय की महिलाएं मांडना द्वारा अपने अनुभव दर्शाने लगीं, जिसके साथ ही सामाजिक संगम भी व्यक्त होने लगा। मांडना में जीवन का कलात्मक पहलू, पारम्परिक विश्वास, धार्मिक दृष्टिकोण एवं अद्भुत इतिहास देखने को मिलता है। इसे बनाने का कोई निश्चित नियम, अनुरूप व परिप्रेक्ष्य तो नहीं है लेकिन कुछ मुख्य आकृतियाँ सामान्यतः मांडना में देखने को मिलती हैं। मांडना में बनाई जाने वाली विभिन्न आकृतियों के आधार पर इसे वर्गीकृत किया जा सकता है। जैसे टपकी के मांडना की पारंपरिक आकृतियों में ज्यामितीय जैसे – त्रिकोण, वर्ग, विषमकोण, आयत, वृत्त, स्वास्तिक, शतरंज पट का आधार, कई सीधी रेखाएँ एवं तरंग आदि प्रदर्शित किए जाते हैं। इनमें से कुछ आकृतियों के प्रमाण हड़प्पा सभ्यता के काल में भी मिलते हैं। जालीदार मांडना में बनाई जाने वाली कलाकृति भारतीय वास्तुकला से प्रेरित जालियों जैसी दिखती हैं। इसमें रिक्त स्थान पूरे डिज़ाइन में सामान रूप से होता है। पुष्प मांडना एक पारम्परिक डिज़ाइन है, जिसमें मुख्यतः आकृतियाँ सामाजिक एवं धार्मिक विश्वास के साथ-साथ जादू-टोने से भी जुड़ी हुई हैं।
स्वरुप चौका मांडने की चतुर्भुज आकृति है, इसका निर्माण मुख्यतः समृद्धि के उत्सवों में किया जाता है। षट्कोण मांडना आकृति दो त्रिभुजों को जोड़कर बनाई जाती है, जिसके द्वारा देवी लक्ष्मी को चिह्नित किया जाता है। इसे विशेषत: दीपावली तथा सर्दियों में फसल कटाई के समय होने वाले उत्सव में बनाया जाता है। पर्व आधारित मांडना में आने वाले पर्व एवं उस दौरान होने वाले पर्वों का निरुपण किया जाता है। सामाजिक एवं धार्मिक परंपरा पर आधारित मांडना में बहुत सारी आकृतियां आंगन व दीवारों की लिपाई-पुताई के पश्चात भिन्न-भिन्न प्रकार के सुंदर व आकर्षक मांडने उकेरती हैं। हमारे जीवन में इनके सांस्कृतिक महत्व से कम ही लोग परिचित हैं, यहां तक कि इन्हें चित्रित करने वाली महिलाएँ भी अक्सर इसे नहीं जानती है।
राजस्थान की लोक आस्था में मांडनो का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। त्योहारों, उत्सव और मांगलिक कार्यों में मांडना प्रत्येक घर-आंगन की शोभा होता है। राजस्थान में ग्रामीण अंचल के अलावा शहरी क्षेत्र में भी मांडणा अंकन के जीवंत दर्शन होते है किंतु कतिपय घरों में इनके अंकन का माध्यम बदल जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में मांडना उकेरने में गेरु या हिरमिच एवं खडिया या चूने का प्रयोग किया जाता है।
इसके निर्माण में गेरु या हिरमिच का प्रयोग पार्श्व (बैकग्राउंड) के रूप में किया जाता है जबकि इसमें विभिन्न आकृतियों व रेखाओं का अंकन खड़िया अथवा चूने से किया जाता है। शहरी क्षेत्रों में मांडने चित्रण में गेरु व खडिया के स्थान पर ऑयल रंगों का अक्सर उपयोग होने लगा है। नगरों में सामान्यतः लाल ऑयल पेंट की जमीन पर विभिन्न रंगों से आकारों का अंकन किया जाता है। दीपावली पर प्रत्येक गृहणी अपने घर के द्वार, आंगन व दीवारों की लिपाई-पुताई के पश्चात भिन्न-भिन्न प्रकार के सुंदर व आकर्षक मांडने उकेरती है। मांडनो का अंकन सदियों से हमारी धार्मिक, सांस्कृतिक आस्थाओं की प्रतीक रहा है। इसको आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। तभी तो हवन और यज्ञों में 'वेदी' का निर्माण करते समय भी मांडने बनाए जाते हैं।
मांडना (माण्डण्य या मंडन) प्राचीन काल में वर्णित 64 कलाओं में कलाओं में शामिल है जिसे अल्पना कहा गया है। मांडनों को कुछ लोग मुख्यतः चार प्रकारों में वर्गीकृत करते है— स्थान आधारित, पर्व आधारित, तिथि आधारित और वर्ष पर्यन्त अंकित किए जाने वाले। राजस्थान के मांडनों में चौक, चौपड़, संझया, श्रवण कुमार, नागों का जोड़ा, डमरू, जलेबी, फीणी, चंग, मेहन्दी, केल, बहू पसारो, बेल, दसेरो, साथिया (स्वस्तिक), पगल्या, शकरपारा, सूरज, केरी, पान, कुण्ड, बीजणी (पंखे), पंच-नारेल, चंवरछत्र, दीपक, हटड़ी, रथ, बैलगाड़ी, मोर व अन्य पशु पक्षी आदि प्रमुख हैं।
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