कुशलगढ़, बांसवाड़ा - 18 जनवरी 2021 की उस काली रात को याद करते हुए आज भी गराड़खोड़ा के बाशिंदों की रुहें कांप उठती है। गुजरात के सूरत शहर में निर्माण कार्यों पर मजदूरी करने के लिए गए वागड़ के श्रमिकों का समूह सड़क किनारे सो रहा था। आदिवासी मजदूरों के ऊपर तेज रफ्तार डंपर चढ़ गया। मौके पर ही 12 लोग मारे गए और तीन जनों ने अस्पताल में दम तोड दिया। सभी मृतक बांसवाड़ा के कुशलगढ उपखंड क्षेत्र के गराड़खोड़ा, भगतपुरा एवं आसपास के गांवों से थे जो आजीविका का कोई जरिया नहीं होने की वजह से गुजरात मजदूरी के लिए गए थे। बांसवाड़ा प्रदेश का एकमात्र ऐसा जिला है, जहां आदिवासी लोग अपने पूरे परिवार के साथ पलायन करते हैं। गर्मियों में पीने को पानी नहीं होता, खेतों में अनाज नही होता , इसे में जीने के लिए जनजाति परिवार गुजरात के विभिन्न शहरों सूरत, राजकोट, बरोडा,अहमदाबाद, वापी आदि जाने को मजबूर होते हैं.
राजस्थान में विधानसभा चुनाव 25 नवम्बर को होने हैं। दक्षिणी राजस्थान के आदिवासी बाहुल्य इलाकों में सभी पार्टियों के प्रत्याशी वोटरों से सघन संपर्क कर अपने लिए समर्थन मांग रहे हैं। केंद्र हो या राज्य, सभी सरकारें आदिवासी कल्याण का दम भरते हुए ख़ुद को उनका सबसे बड़ा हमदर्द बताती है। मध्यप्रदेश और गुजरात की सीमाओं से सटे इन गावों में बेरोजगारी सबसे अहम मुद्दा है , गांवों में बुनियादी सुविधाओं की असलियत जानने के लिए द मूकनायक ग्राउंड जीरो पर जा पहुंचा और लोगों से जानी उनकी पीड़ा। जानिए लोगों ने हमें क्या बताया - :
भीमपुरा ग्राम पंचायत के गराड़खोड़ा गांव में द मूकनायक की टीम पहुंची हकरा मीणा के घर। 60 वर्षीय हकरा खेत के कोने में सुस्ताते हुए मिले। सूरत हादसे में हकरा ने अपने घर के जवान बेटे बहु सहित 6 सदस्यों को खो दिया। अब उनकी तीन साल की नन्ही बेटी बूढ़े मां बाप की जिम्मेदारी बन चुकी है। अपने मां बाप को मौत के गम से अंजान बच्ची दादी के पीछे छिपकर अजनबी चेहरों को समझने की कोशिश करती है। " गांव में कोई काम नहीं है। थोड़ी बहुत जमीन है जिसमे मक्की और गेहूं की एक फसल ले पाते हैं । कपास, चना और सोयाबीन होता है लेकिन खेती बाड़ी से आमदनी नहीं होती क्योंकि बेचने लायक उपज नहीं होती, घर की जरूरत के लिए भी पूरा नहीं पड़ता" हकरा दुखी स्वर में बताते हैं।
यहीं हकरा की पत्नी कमला भी मिली जिसने बताया कि बेटे बहू और अन्य परिजनों के मृत्यु के उपरांत राज्य सरकार ने प्रति मृतक 2 लाख रुपए मुआवजा दिया जिस रकम से एक पक्का मकान बनाया कुछ ज़मीन ली है। " परिवार का कमाऊ पूत ना बचा, मुआवजे से इसकी भरपाई क्या हो सकती है? अगर वो रहते तो घर चलता, कुछ कमाई होती, अब क्या करें कुछ सूझता नहीं है। दंपत्ति का छोटा बेटा मजदूरी करने गुजरात जाता हैं। गांव के एक युवा रमेश ने बताया आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण युवा पढ़ाई छोड़कर मजदूरी की तलाश में गुजरात चले जाते हैं। वहां वे लोग निर्माण कार्यों, फैक्ट्री कारखानों में मजदूरी करके खुद का और परिवार का पेट पालते हैं। रमेश बताते हैं दसवी बारहवीं तक तो सब पढ़ लेते हैं , कुछ बीए भी करते हैं लेकिन फिर आगे बी एड करने के लिए फीस के लिए पैसे नहीं होते, ऐसे में नौकरी नहीं मिलती और कृषि कार्य करने को युवा विवश हो जाता हैं
बांसवाड़ा-डूंगरपुर जिले से बड़ी संख्या में श्रमिक गुजरात रोजगार के लिए हर वर्ष पलायन करते हैं। बांसवाड़ा के कुशलगढ़, आनंदपुरी, सज्जनगढ़, गांगड़तलाई आदि क्षेत्रों के हजारों श्रमिक गुजरात के विभिन्न शहरों में निर्माण सहित अन्य कार्यों को लेकर परिवार सहित पलायन करते हैं। पलायन करने वाले मजदूरों को दिन के 200 से 300 रुपए प्राप्त हो जाते हैं लेकिन गुजरात में ये जानवरों से भी गई गुजरी स्थिति में जीते हैं। गांव की कड़वी बाई जो मजदूरी करने परिवार के साथ हर साल गुजरात जाती हैं, ने बताया कि " वहां हम लोग सड़क किनारे धूले में ही रहते हैं, वहीं सोते हैं। चार ईंट लगाकर खाना बनाते हैं, वहीं खाकर वहीं धूले को साफ करके जगह बनाकर सोते हैं।
कड़वी बाई कहती हैं औरतों की हालत बहुत खराब होती है। माहवारी के दिनों में नहाना कपड़े धोना आदि बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। यदि गांव में ही सरकार रोजगार का कोई जरिया मुहैया करवा देती, हजारों लोगों को यूं पलायन नहीं झेलना पड़ता। यही की कांता बाई बताती हैं कि वे महिलाओं को सशक्त बनाने के उद्देश्य से शुरू की वनधन योजना के तहत निर्मित समिति की सचिव हैं। फारेस्ट प्रोड्यूस का प्रसंस्करण कर गुणवत्तापूर्ण उत्पाद तैयार करने के लिए योजना तो बहुत अच्छी थी लेकिन समिति सिर्फ कागजों में चल रही है, फंड जारी नहीं होने से समिति कोई काम नहीं कर सकी है। कांता के पति की मृत्यु हो चुकी है लेकिन उन्हें विधवा पेंशन या कोई भी सहायता सरकार से नही मिली है.
सोशल साइंटिस्ट डॉ निधि सेठ बताती हैं कि केंद्र और राज्य सरकारों की किसी भी स्कीम से क्षेत्र का विकास नही हुआ है ना ही जनजाति परिवारों के जीवन में कोई फर्क आया. इलाके में मूलभूत सुविधाएं जैसे बिजली, पानी , सड़क या रोजगार के कोई साधन नहीं हैं. टयूब वेल से पानी लाने के लिए महिलाओ और लडकियों को 2-3 किलोमीटर रोजाना कई चक्कर लगाने पड़ते हैं. स्कूल भी दूर है जिसके कारण लडकियां ड्राप आउट हो जाती हैं. गावों के अंदर कच्ची सडकें हैं और आने जाने का एकमात्र साधन मोटर साईकिल हैं.
जिले की 50% से ज्यादा आबादी गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे पड़ोसी राज्यों में प्रवास करती है। कई गांवों में 90 प्रतिशत घरों से कोई न कोई सदस्य गुजरात मे मजदूरी करता है। आजीविका ब्यूरो की एक रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान के अन्य हिस्सों के विपरीत, जहां आम तौर पर एक परिवार के पुरुष अकेले प्रवास करते हैं, बांसवाड़ा जिले में, पूरा परिवार आजीविका के लिए पलायन करता है। वे ज्यादातर अकुशल मौसमी प्रवासी हैं जो निर्माण स्थलों, कारखानों, ईंट बनाने, कृषि क्षेत्र आदि में काम करते हैं। इन समुदायों में अंतर-राज्य संकट प्रवासन (crisis migration) के पीछे प्रमुख कारण गरीबी, रोजगार के अवसरों की कमी और प्राकृतिक संसाधनों की कमी है।
कुशलगढ़ में समुदायों के लिए मौसमी कृषि कार्य आजीविका का प्रमुख स्रोत था लेकिन इस क्षेत्र में पानी की कमी, अनियमित वर्षा और सिंचाई के बुनियादी ढांचे का अभाव है जिसके कारण फसल फेल हो जाती हैं , गुणवत्ता नही होने से उत्पादन को कीमत अच्छी नहीं मिलती। बिचैलियों के बिना बाजारों तक माल पहुंचाना भी अलग जटिल कार्य है। क्षेत्र की शिल्प और कारीगरों की समृद्ध परंपरा के बावजूद, शिल्प-आधारित आजीविका को बनाए रखने के सीमित अवसरों ने समुदाय को पलायन करने के लिए मजबूर किया है।
कमजोर माली हालात, रोजगार के न के बराबर अवसर और किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) ऋण जैसी वित्तीय सेवाओं तक पहुंच की कमी से त्रस्त जनजातियां अपनी सभी जरूरतों के लिए अत्यधिक ब्याज दरों पर पैसा उधार लेती हैं। शादियों के लिए खर्च, अंत्येष्टि, अन्य उत्सव और स्थानीय पारंपरिक अनुष्ठान लोगों द्वारा ऋण लेने का एक प्रमुख कारण हैं। इसके बाद कर्ज पलायन का एक बड़ा कारण बन जाता है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (एमजीएनआरईजीएस) के तहत काम के अवसर उन आदिवासी समुदायों के लिए शायद ही कभी उपलब्ध होते हैं जो भौगोलिक और सामाजिक रूप से उच्च जाति समुदाय से दूर हैं। क्योंकि योजना में काम और वेतन वितरण पर अक्सर ऊंची जाति के लोगों का नियंत्रण होता है। औसतन 220 रुपये प्रतिदिन की अधिकतम मजदूरी पर 100 दिनों के लिए काम उपलब्ध है, जो सामान्य वर्ग के श्रमिकों के लिए भी अपर्याप्त है।
बांसवाड़ा के भीतर, कुशलगढ़ और सज्जनगढ़ ब्लॉक में क्रमशः 88% और 85% जनजातियाँ हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं की औसत साक्षरता 24% है। इस बीच, राजस्थान के ग्रामीण विकास और पंचायती राज विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार, जिले की 50% ग्रामीण आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है।
कुल कार्यबल में 35% महिलाएँ हैं जो काम के लिए पड़ोसी राज्यों में प्रवास करती हैं। फसल के मौसम के दौरान श्रमिक शहरों से लौटते हैं। हालाँकि, हकरा और रमेशचंद्र जैसे लोगों के लिए खेती से कमाई की संभावनाएँ नगण्य हैं। इस क्षेत्र में 61% परिवारों के पास सीमांत भूमि है, और इसलिए अधिकांश लोग अपनी घरेलू आय के लिए कृषि पर निर्भर नहीं रह सकते हैं।
सीमांत भूमि जोत और वर्षा आधारित आय से कृषि उनका भरण-पोषण करने में असमर्थ है, आदिवासी समुदाय ऋण चुकाने के लिए काम की तलाश में पलायन करते हैं। महामारी ने उन्हें ज्यादा कर्ज में धकेल दिया है।
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