सोशल मीडिया पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी एससी/एसटी एक्ट के दायरे में: केरल हाईकोर्ट

सोशल मीडिया पर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी एससी/एसटी एक्ट के दायरे में: केरल हाईकोर्ट
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नई दिल्ली। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के खिलाफ लगातार बढ़ते आपराधिक मामलों के बीच केरल हाईकोर्ट का फैसला एक सकारात्मक कदम है। डिजिटल दौर में बढ़ते साइबर अपराधों को देखते हुए केरल हाईकोर्ट ने एक फैसला सुनाते हुए अनुसूचित जाति (एससी) या अनुसूचित जनजाति (एसटी) के किसी व्यक्ति के खिलाफ ऑनलाइन की गई अपमानजनक टिप्पणी पर एससी/एसटी एक्ट के प्रावधान लागू होने का फैसला सुनाया है।

कोर्ट ने एक यूट्यूबर की याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि, जैसे डिजिटल युग में हो रहा है कि हर बार जब पीडि़त पर की गई अपमानजनक सामग्री लोगों तक पहुंचेगी तो यह माना जाएगा कि आपत्तिजनक टिप्पणी उसकी मौजूदगी में की गई थी। जबकि अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति कानून लागू करने के लिए आपतिजनक टिप्पणी सार्वजनिक तौर पर और पीडि़ता की उपस्थिति में होनी चाहिए।

एक यूट्यूबर की अग्रिम याचिका की सुनवाई कर रहा था हाईकोर्ट

दरअसल, केरल हाईकोर्ट में एक यूट्यूबर ने अग्रिम जमानत याचिका की अपील की थी। लेकिन हाईकोर्ट ने उसकी याचिका खारिज करते हुए अपने निर्णय में कहा कि यूट्यूबर ने एसटी समुदाय की एक महिला के खिलाफ उसके पति और ससुर के एक इंटरव्यू के दौरान कथित तौर पर अपमानजनक टिप्पणी की थी, जिसे यूट्यूब और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया साइटों पर अपलोड किया गया था। वह आपत्तिजनक है।

हाईकोर्ट में याचिकाकर्ता ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि पीड़िता साक्षात्कार के दौरान वहां उपस्थित नहीं थी, जिसके कारण इसमें एससी/एसटी अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होते हैं।

वहीं दूसरी तरफ अभियोजन पक्ष ने याचिका का विरोध करते हुए तर्क दिया कि डिजिटल युग में यह कहना कि पीड़ित को मौजूद होना चाहिए, विसंगतिपूर्ण नतीजा देगा और अगर इस तरह के तर्क को अपनाया गया तो कानून बेमानी हो जाएगा।

पीड़ित के वकील ने यह कहते हुए याचिका का विरोध किया कि साक्षात्कार के लिखित पाठ का अवलोकन ही इस बात को मानने के लिए पर्याप्त है कि आरोपी जानबूझकर सार्वजनिक रूप से एक अनुसूचित जनजाति के सदस्य का अपमान कर रहा है।

इंटरव्यू आपित्तजनक है

दोनों पक्षों के तर्क सुनने के बाद कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि, इंटरव्यू के बयानों का अवलोकन कई मौकों पर 'अपमानजनक' शब्दों के उपयोग का संकेत देता है और आरोपी ने पीडि़त को (एसटी) के रूप में भी संदर्भित किया है। जिससे यह साफ पता चलता है कि यूट्यूबर जानता था कि वह एक अनुसूचित जनजाति की सदस्य है। कोर्ट ने यह भी कहा कि इस प्रकार के साक्षात्कार में याचिकाकर्ता द्वारा उपयोग किए गए शब्द प्रथम दृष्टया अपमानजनक हैं।

कोर्ट ने सोशल मीडिया के दौर का जिक्र करते हुए कहा है कि, हर बार जब किसी व्यक्ति की कार्यक्रम की सामग्री लोगों तक पहुंचती है, तो इसके तहत सामग्री के प्रसारण में प्रत्यक्ष या रचनात्मक रूप से उपस्थित माने जाते हैं। यानि की अगर किसी की वीडियो बनी है तो वह उपस्थित मना जाएगा।

कोर्ट ने कहा कि, इंटरनेट के आने से पहले किसी बंद जगह के भीतर दिए गए भाषण को केवल वहां मौजूद लोगों द्वारा ही सुना या देखा जा सकता था। लेकिन इंटरनेट के आने के बाद से सोशल मीडिया पर अपलोड की गई सामग्री को किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी समय देखा या सुना जा सकता है। अपलोड की गई सामग्री को सिर्फ उसी वक्त ही देखा और सुना नहीं जाता बल्कि बाद में भी लोगों द्वारा देखा जा सकता है। क्योंकि इंटरनेट पर उसका एक्सेस मौजूद रहता है। हर बार जब कोई व्यक्ति अपलोड किए गए कार्यक्रम के इंटरनेट लिंक तक पहुंचता है तो वह सामग्री के प्रसारण में प्रत्यक्ष या रचनात्मक रूप से मौजूद माना जाता है।

हाईकोर्ट ने ई. कृष्ण नयनार के मामले का हवाला देते हुए कहा कि, किसी व्यक्ति की उपस्थिति में उनका डिजिटल या ऑनलाइन तौर पर मौजूद होना भी शामिल होता है।

बोलने की आजादी के तहत धारा 66-ए को किया निरस्त

इससे पहले आईटी एक्ट की धारा 66-ए में सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक, उत्तेजक, भावनाएं भड़काने वाली सामग्री डालने पर गिरफ्तारी का प्रावधान था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट में इन सारी चीजों को बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के मौलिक अधिकार, संविधान के अनुच्छेद 19.1.(ए) के खिलाफ पाकर निरस्त कर दिया था।

आईटी एक्ट की इस धारा के निरस्त करने के बाद सोशल मीडिया पर अपमानजनक तथ्य प्रसारित, प्रकाशित करने पर आईपीसी की धारा 499, 500 और 501 (आपराधिक मानहानि) का सहारा लिया जा सकता है। जिसके तहत कोई भी शख्स मजिस्ट्रेट के सामने सोशल मीडिया पर उसके खिलाफ हो रही झूठी टिप्पणी के विरुद्ध मानहानि का दावा कर सकता है, जिसमें कम से कम दो वर्ष की सजा का प्रावधान है।

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