भोपाल। "मैं अपनी पत्नी और तीनों बच्चों सहित मजदूरी करने ग्वालियर आया हूँ। पिछले कई सालों से हम मजदूरी करके ही परिवार चला रहे हैं। हमारे जिले में मजदूरी नहीं मिलती इसलिए, हमें गाँव छोड़ना पड़ा। अभी हम गेहूँ की फसल की कटाई करने आए है। इसके पहले हम इंदौर में मजदूरी करने गए थे। एक समय पर हमारे परिवार की पिछली पीढ़ी जंगलों से जड़ी-बूटी (औषधी) लाकर उसे बेचने का काम करती थी, लेकिन अब न तो जंगलों में जड़ी-बूटी बची हैं, और न ही कोई उन्हें खरीदता है।"
मध्य प्रदेश की पिछड़ी जनजातियों में से एक सहरिया समाज के मौसम आदिवासी ने द मूकनायक से अपने समुदाय की पीड़ा साझा की है। शिवपुरी जिले के कोटा गाँव के रहवासी मौसम आदिवासी मजदूरी के लिए फिलहाल ग्वालियर में हैं। यहां वह अपने परिवार के साथ गेहूँ की कटाई करने गए हैं। मौसम ने बताया कि सहरिया समाज के ज्यादातर लोगों के पास खेती की जमीन नहीं है और जिनके पास है भी तो रकबा इतना कम है कि वहां खेती करने से परिवार का पालन-पोषण कर पाना मुश्किल है।
इधर, शिवपुरी जिले के रामस्वरूप आदिवासी का परिवार भी रोजगार की तलाश में पलायन कर चुका है। राजस्थान में मजदूरी कर रहे रामस्वरूप ने बताया कि सालभर में लगभग आठ महीने वह रोजगार के लिए गांव से दूर रहते हैं। रामस्वरूप बताते हैं- "उनके परिवार के पास खेती की जमीन नहीं है, न ही रोजगार के साधन हैं। परिवार को चलाने के लिए ही हम मजदूरी के ही भरोसे हैं।"
चुनाव आते ही आदिवासियों से वोट लेने के लिए राजनीतिक दल उनसे सभी तरह के वादे करते है। मध्य प्रदेश में सहरिया आदिवासी समुदाय में बढ़ती बेरोजगारी के कारण पलायन भी बढ़ रहा है। प्रदेश के ग्वालियर, श्योपुर, शिवपुरी, अशोकनगर और गुना जिले के ग्रामीण इलाकों में निवासरत विशेष पिछड़ी जनजाति सहरिया समुदाय के लोग राज्य के बाहर जाकर मजदूरी कर रहें हैं, औषधियों की पहचान में पारंगत सहरिया आदिवासी अब जैविक खेती और जंगलों से औषधियों के संकलन का काम छोड़ चुके हैं। यह लोग अपनी मूल पहचान और पुश्तैनी काम को छोड़ कर मजदूरी के तलाश में रहते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण जंगलों में औषधियों की कमी और सरकार की बेरुखी है।
द मूकनायक प्रतिनिधि से बातचीत करते हुए शिवपुरी जिले के पोहरी क्षेत्र के प्रदीप आदिवासी ने बताया कि उनके पिता और दादा आस-पास के जंगलों में जाकर औषधि लेकर आते थे, इन्ही जड़ी-बूटियों को शहर के व्यापारी गांव से खरीदकर ले जाते थे। यह उनका मुख्य व्यापार था। लेकिन बदलते समय में औषधी का व्यापार कम होने लगा। अब स्थिति यह है कि सहरिया समुदाय के पास गांव में रहकर परिवार चलाना मुश्किल हो गया है।
प्रदीप ने आगे कहा- "सिर्फ बारिश के मौसम में आज भी कुछ लोग जड़ी-बूटियों का संकलन करने जंगल में जाते हैं। लेकिन इनकी संख्या कम होना और बाजार में सही दाम नहीं मिलने के कारण ज्यादातर लोग यह काम छोड़ चुके हैं।"
आयुर्वेदिक दवाओं में उपयोग होने वाली ज्यादातर औषधियों की खेती अब किसान कर रहे हैं। इस कारण से भी इन्हें जंगल से लाने बाले सहरिया समुदाय के रोजगार पर असर हुआ है। सफेद मूसली, ग्वारपाठा, गुड़मार जैसी औषधियों की खेती सीधे ही की जा रही है।
श्योपुर मोरवन गांव के दिलीप आदिवासी एक वनोपज समूह के संचालक हैं। वह बताते हैं, “जंगलों में वनोपज की भारी कमी होती जा रही है, शतावर, सफ़ेद मूसली, गुड़मार, पमार जैसी जड़ी-बूटीयां जिनकी बाजार में अच्छी मांग है अब यहां बिलकुल नहीं हैं, जबकि इनमें से अधिकांश जड़ी-बूटी की खेती की जाने लगी है।”
एक अनुमान के मुताबिक इस क्षेत्र से सहरिया समाज के करीब 70 प्रतिशत आबादी रोजगार की तलाश में पलायन कर जाती है। सिर्फ त्यौहारों पर ही यह लोग गांव वापस आते हैं। ज्यादातर लोग अपने परिवारों को साथ ले जाते हैं, वहीं कुछ लोग गाँव में ही उन्हें छोड़ कर चले जाते है।
सहरिया जनजाति पिछड़ी जनजातियों में से एक है जिसे सरकार ने विशेष पिछड़ी जनजाति (PVTGs) में शामिल किया गया है। इनके पिछड़ेपन का मुख्यकारण शिक्षा से दूर होना है। सहरिया अति प्रचानी परम्परागत कृषि तकनीकी का उपयोग करते है। यह जंगलों में मिलने वाली औषधियों की बेहतरीन परख और समझ रखते हैं। वर्तमान में इनकी शून्य जनसंख्या वृद्धि है, और यह सर्वाधिक कुपोषित जनजाति है। देश में चार लाख के करीब अति पिछड़ेपन का शिकार जनजातीय समाज के लोग है।
द मूकनायक से बातचीत में बीयू समाजशास्त्र विभाग के शोधार्थी इम्तियाज खान ने बताया कि देश में अति पिछड़ी 75 जनजातियां है, जो की 18 राज्यों में पाईं जाती है। मध्य प्रदेश में तीन जनजातियां वैगा, भारिया और सहरिया विशेष पिछड़ी जनजातियों में शामिल है। शिक्षा का निम्न स्तर होना इनके पिछड़ेपन का मुख्यकारण है। अपनी क्षेत्रीय बोली में ही यह बातचीत करते है। इस कारण से भी यह शिक्षा के साथ मुख्यधारा से दूर हैं।
शिवपुरी और श्योपुर जिले में ही सर्वाधिक आबादी में सहरिया समाज के लोग रहते है। प्रदेशभर में कुपोषण में श्योपुर जिला टॉप पर रहा है। यहां रह रहे सहरिया समाज कुपोषण का शिकार है। प्रशासन और महिला बाल विकास कुपोषण दूर करने के लिए कई तरह के अभियान चला रहे हैं। पर तमाम कोशिशों के बाद भी परिणाम संतोषजनक नहीं है।
आदिवासी सहरिया समुदाय के लोगों के संवैधानिक अधिकारों और मूल्यों का हनन हो रहा है, शिक्षा और रोजगार के अधिकार से वंचित विशेष पिछड़ी जनजाति के यह लोगों का समता, समानता, आर्थिक न्याय जैसे संवैधानिक मूल्यों का हनन भी हो रहा है। सहरिया समाज की मूल पहचान पलायन और मजदूरी के बोझ में दब रही है। संविधान में हम सभी देश के नागरिकों को अपनी पहचान के साथ जीवन जीने का अधिकार है, लेकिन पिछड़ी जनजाति होने के बावजूद भी इनके अधिकारों का संरक्षण करने के बजाए सरकार सिर्फ इनकी दुर्दशा को देख रही है।
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