भोपाल। मध्य प्रदेश के घने जंगलों में रहने वाली आदिवासी बैगा जनजाति के लोग बीमार होने पर एलोपैथी दवाइयों पर निर्भर नहीं थे। पुरातन काल से ही वे स्वयं द्वारा विकसित की गई चिकित्सा पद्धति से बीमारियों का इलाज करते थे। इसके लिए वे जंगलों में पाए जाने वाले औषधीय पौधों और जड़ी-बूटियों का उपयोग करते थे, लेकिन अब यह पुरातन चिकित्सा पद्धति खत्म होने की कगार पर पहुंच गई है।
अब जंगल की उन दुर्लभ जड़ी बूटियों की पहचान करने वाले कम ही लोग बचे हैं। इसका मुख्य कारण युवाओं का रोजगार की तलाश में गांव से पलायन कर जाना है। इसके साथ ही आदिवासियों का जंगलों पर अधिकार खत्म होने के कारण भी नई पीढ़ी जनजाति चिकित्सा के ज्ञान से वंचित हो रही है। इस पूरे मामले में द मूकनायक ने पड़ताल की है, पेश है खास रिपोर्ट।
मध्य प्रदेश की विन्ध्य एवं सतपुड़ा की पहाड़ियाँ अनादिकाल से वन सम्पदा से समृद्ध रही हैं। गोंडवाना का यह भूखण्ड नर्मदा घाटी में आदिम सभ्यता की केन्द्र भूमि भी रहा है। इसके आस-पास की पहाड़ियों पर आदिमानवों द्वारा उकेरे गए कई शैल्य चित्र आज भी मौजूद हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं कि प्रदेश में जनजातियों का रहवास सैकड़ों वर्ष पुराना है।
जनजातियों की सभ्यता, संस्कृति आदिकाल से समृद्ध है। स्वास्थ्य और जीवन की परिकल्पना इनके रहन-सहन में देखने को मिलती है। यह समुदाय पूर्ण रूप से वनों पर आश्रित है। जनजाति समाज की स्वास्थ्य, जीवन शैली और चिकित्सा पद्धति विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा से अलग है।
जनजातीय समुदाय ने अस्वस्थ एवं बीमार होने का सीधा कारण भौतिक जीवन में न ढूँढ़कर पारम्परिक मान्यताओं में ढूँढ़ा जिनसे आदमी या जानवर बीमार पड़ सकता है। ऐसा उन्होंने माना है। बीमारियों के कुछ कारण उनके खान-पान की आदतों से भी संबंधित है।
जनजाति समुदाय के लोग आज भी मानते है की गर्भवती महिला का प्रसूति के समय उसे तीन दिन तक खाना नहीं दिया जाता है। मात्र चावल के आटे को पानी में उबालकर खाने के लिए दिया जाता है। वह मानते हैं ऐसा न करने पर बहुत सी बीमारियां हो सकती हैं।
जनजाति समाज ने सभी तरह की बीमारियों के इलाज के अलग-अलग तरीकों को ढूँढ़ा। गोंड, बैगा, कोरकू, अगरिया, मैना आदि जनजातियों में ऐसी चिकित्सा पद्धति को मान्यता दी है। उन्होंने बीमारियों का इलाज अपने देवी- देवताओं को प्रसन्न करने में ढूँढ़ा। इसके अतिरिक्त झाड़-फूँक, तंत्र-मंत्र, के साथ जंगली जड़ी-बूटियों के द्वारा बीमारियों के इलाज करते हैं।
द मूकनायक ने जनजातीय समुदाय की चिकित्सा पद्धति को समझने के लिए पड़ताल की। मध्य प्रदेश औषधीय वनस्पतियाँ नामक किताब के अनुसार जनजातीय समुदाय के विकास के साथ-साथ धीरे-धीरे वनस्पतियाँ, कंद-मूल, फूल, दिन का भोजन के साथ बीमारियों के इलाज में उनका उपयोगी होना इलाज का हिस्सा है। आदि काल की चिकित्सा पद्धति से बीमारियों का उपचार व उनके अनुभव की जानकारी पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाई गई। पद्धति अनुगामी हो कर वंशगत हो गई। प्रत्येक पीढ़ी ने अपने ज्ञान को अपने उत्तराधिकारी से मौखिक रूप से साझा किया। जो आज भी क्रमानुसार प्रचलित है।
मध्य प्रदेश की 45 जनजातियों जो इस चिकित्सा पद्धति को पीढ़ियों से सीखते आ रहे हैं। प्रदेश के वनों में पाई जाने वाले पौधे, लता, गुल्म, झाड़ी या वृक्ष के छाल, फल-फूल, पत्तियाँ जड़ आदि सब में कुछ-न-कुछ औषधीय गुण होते हैं, लेकिन उनका उपयोग किस बीमारी में कब और किस प्रकार किया जाए यह ज्ञान कालांतर में धीरे-धीरे जनजाति चिकित्सकों ने प्राप्त किया। जनजातियों में वैद्य का कार्य मुख्यतः बैगा और गुनिया करते हैं। वंशानुगत रूप से इन्हें ही जड़ी-बूटियों का ज्ञान रहता है।
जनजाति चिकित्सा पद्धति में उपयोग होने वाली कुछ जड़ी-बूटियाँ मौसमी होती हैं जिसे बैगा, गुनिया वैद्य एकत्रित कर घरों में रख लेते हैं। दूसरी जड़ी-बूटियाँ ऐसी होती हैं, जिन्हें खास महीने एवं दिन को ही एकत्र किया जाता हैं जिसकी बैगा और गुनिया ही पहचान कर पाते हैं। तीसरी प्रकार की जड़ी-बूटियाँ वे होती हैं जो जंगलों में प्रचुर मात्रा में होती हैं। उन्हें इलाज के लिए तुरंत ही जंगलों से लाया जाता है।
चिकित्सा के लिए जड़ी-बूटियों के प्रयोग को धार्मिक भावनाओं से भी जोड़ा गया है। जनजातियों के लिए ये जड़ी-बूटियाँ औषधी होने के साथ उनकी धार्मिक श्रद्धा होती है। वह मानते हैं कि इन पेड़-पौधों पर उनके अधिकांश देवी-देवताओं का निवास होता है। छोटी-छोटी सामान्य बीमारियों के इलाज के लिए इन जड़ी-बूटियों का उपयोग घरेलू चिकित्सा के रूप में किया जाता है लेकिन गंभीर बीमारियों के लिए जनजातीय लोग गुनिया से विशेष चिकित्सा क्रिया कराते हैं। गुनिया को जड़ी-बूटी के प्रभाव को असर करने के लिए तंत्र-मंत्र और सूपा-तूमा का उपयोग के साथ हवन आदि का भी उपयोग करते हैं।
जनजातीय चिकित्सा में अनेक बीमारियों का इलाज जड़ी-बूटियों के माध्यम से किया जाता है जैसे कि मोतियाबिंद, पीलिया, चक्कर आना, पेट फूलना, बुखार, सिर दर्द, जोड़ों का दर्द, टूटी हड्डी जोड़ना, मिर्गी, सर्दी-जुकाम, दस्त, चेचक, उल्टी, दाद-खाज, टीबी, कुष्ठ रोग, साँप और बिच्छू काटना, नपुंसकता, मधुमेह, बवासीर, दमा, ब्लडप्रेशर का इलाज किया जाता है।
कैंसर का भी इलाज इन औषधियों से किया जाता है। कैंसर के इलाज के लिए 7 गमलों में गेहूँ बोकर इनके अंकुर के रस को गौमूत्र के साथ पीने से कैंसर ठीक होता है, ऐसा वह विश्वास रखते हैं।
मध्य प्रदेश के मंडला जिले में जनजातीय बैगा समुदाय की चिकित्सा पद्धति पर वर्ष 1990 में एक शोध किया गया। जनजाति अनुसंधान और विकास संस्थान भोपाल के अमानुल्लाह, डॉ. जीपी पटेल, एसआर पाटिल और एसपी भट्ट ने संयुक्त रूप से मण्डला जिले की बैगा जनजाति में परंपरागत चिकित्सा पद्धति विषय पर शोध किया था। शोध के अनुसार वर्ष 1980-81 के सांख्यिकी गणना के अनुसार जिले के कुल भौगोलिक विस्तार का 50.29 प्रतिशत वनों से आच्छादित है। यहां के जंगलों मैं साल, साज, बीजा, बांस, कोटा, पलाश, हर्रा, महुआ, तेंदू, खरार, जामुन, अचार आदि वृक्ष पाए जाते थे। इसके अतिरिक्त बबूल, नीम वेट, पीपल, गूलर आदि भी गांव के आस-पास पाए जाते हैं। वन्य प्राणियों के लिए यह जिला विख्यात है। रिसर्च में बैगा चिकित्सों से बातचीत कर उनकी चिकित्सा पद्धति और क्रियाओं को साझा किया गया है।
शोध के अनुसार जनजाति चिकित्सा में खांसी आने पर हल्दी को शुद्ध घी के साथ गर्म किया जाता है एवं उसके साथ लॉग को तवे पर गर्म करके रोगी को खिलाने से यह बीमारी ठीक हो जाती है। गले का दर्द के इलाज के लिए गर्म पानी में नमक घोल कर गले की सिकाई की जाती है। पेशाब में जलन के उपचार के लिए आम बटुआ की छाल को पीसकर पना पीते हैं, इसके अलावा कृषि कांदा को खिलाया जाता है। यदि बार-बार पेशाब आती है तो अमटा की छाल को पीसकर पानी के साथ पिलाया जाता है। चेचक के इलाज के लिए पत्थर चट्टी की पत्ती खिलाई जाती है। दाद-खाज और खुजली के लिए पताली बैंगन छोटे टमाटर के पत्ते को पीसकर लगाते हैं। नीम के पत्ते को भी पीसकर लगाते हैं। इसके अलावा पताली बैंगन के पत्ते को गुड़ के साथ भी खिलाया जाता है। पागलपन संबंधी बीमारी को दूर करने हेतु टिरिस का दाना खिलाते हैं। इसी तरह विभिन्न तरह की बीमारियों के लिए अलग-अलग तरह की जड़ी बूटियों से उपचार किया जाता है।
द मूकनायक से बातचीत करते हुए आदिवासी अनुसंधान एवं विकास संस्थान के सहायक शोध अधिकारी एमडी कनेरा ने बताया कि जनजाति समुदाय की चिकित्सा पद्धति सैकड़ों वर्ष पुरानी है। यह अपनी पद्धति को मौखिक रूप से अपनी आने वाली नई पीढ़ी को सिखाते आए हैं। उन्होंने बताया ट्राईबल रिसर्च सेंटर आदिवासियों की कला, संस्कृति, उनके जीवन के हर एक गतिविधियों पर शोध करता रहता है।
जनजाति चिकित्सा पद्धति को आदिवासी समुदाय धार्मिक क्रिया भी मानते हैं। यह उनका आस्था का भी विषय है, लेकिन वर्तमान में इस पद्धति को सीखने वालों की संख्या नहीं के बराबर है। जनजाति बैगा समुदाय के लोग चिकित्सा के काम को छोड़कर खेती और मजदूरी करने लगे हैं। वहीं युवा गांव में रोजगार नहीं होने के कारण शहरों में पलायन कर गए हैं। इस संबंध में द मूकनायक से बातचीत करते हुए गोंडवाना गणतंत्र संगठन से जुड़े नीरज बारिवा ने बताया कि आदिवासियों पहचान उनकी संस्कृति, और जीवन शैली है। युवाओं में बेरोजगारी के कारण जनजाति समुदाय की चिकित्सा पद्धति के विस्तार के साथ ही कला और संस्कृति पर भी गहरा असर पड़ा है। रोजगार की तलाश में युवाओं ने गांव, बाड़े छोड़ दिए है। पलायन कर शहर में मजदूरी कर जीवन यापन कर रहे हैं, लेकिन एक तरफ संस्कृति और आदिवासियों की विरासत को संरक्षित करने के लिए कुछ लोग आगे आए है। आदिवासियों की एकता की मूल जड़ उनकी संस्कृति है। हम अपनी पहचान को बरकरार बनाएं रखने के लिए शहरों में पढ़ने के बावजूद भी अपनी संस्कृति के संरक्षण व विस्तार के लिए काम कर रहे हैं।
रतलाम झाबुआ से बीजेपी सांसद गुमान सिंह डामोर ने हाल में एक बैठक में कहा कि तमिलनाडु में ज्यादा पैसे मिलते हैं, इसलिए वहां ट्राइबल्स काम के लिए जाते हैं। आदिवासी पलायन नहीं करते हैं, बल्कि अच्छे रोजगार की तलाश में बाहर जाते हैं। गर्मियों के दिनों में आदिवासियों द्वारा बाहर पलायन करने के सवाल पर भाजपा सांसद ने कहा कि पलायन का यह मतलब होता है प्राकृतिक और ऐसे कारण जो व्यक्ति जहां रहा है, वह वहां नहीं रह पाता है। मजबूर हो बाहर जाने के लिए वह पलायन होता है। हमारे जो ट्राइबल एरिया हैं झाबुआ का हो, रतलाम का हो या अलीराजपुर का हो यह सभी क्षेत्रों में हमारे जो आदिवासी लोग हैं। वह अच्छे रोजगार की तलाश में जाते हैं और मानसून के पहले वापस आ जाते हैं।
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