38 से घटकर 26 प्रतिशत रह गई आदिवासी जनसंख्या, सरना धर्म कोड जरूरी !

झारखण्ड सीएम का प्रधानमंत्री को पत्र: विगत आठ दशकों में झारखण्ड के आदिवासियों की जनसंख्या 38 से घटकर 26 प्रतिशत ही रह गई है। वर्ष 1951 के जनगणना के कॉलम में इनके लिए अलग कोड की व्यवस्था थी परन्तु कतिपय कारणों से बाद के दशकों में यह व्यवस्था समाप्त कर दी गई। सरना कोड आदिवासी समुदाय के समुचित विकास के लिए अत्यंत ही आवश्यक है एवं इसके मद्देनजर झारखंड विधानसभा से इस निमित्त प्रस्ताव भी पारित कराया गया है, जो वर्तमान में केंद्र सरकार के स्तर पर निर्णय हेतु लंबित है।
प्रकृति-पूजा करम पर्व के अवसर पर आदिवासी समुदाय के साथ उपासना करते मुख्यमंत्री
प्रकृति-पूजा करम पर्व के अवसर पर आदिवासी समुदाय के साथ उपासना करते मुख्यमंत्री (फाइल चित्र)
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रांची: झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक पत्र लिखा है जिसमें उन्होने आदिवासी समाज की सरना धर्म कोड को मान्यता देने की वर्षों से लाबित मांग पर शीघ्र विचार करने का आग्रह किया है. सोरेन ने अपने पत्र की प्रति को एक्स (ट्विटर) पर शेयर करते हुए लिखा कि "मैंने पत्र लिखकर माननीय प्रधानमंत्री से देश के करोड़ों आदिवासियों के हित में आदिवासी/सरना धर्म कोड की चिरप्रतीक्षित माँग पर यथाशीघ्र सकारात्मक निर्णय लेने की कृपा करने का आग्रह किया है।

सोरेन ने अपने पत्र में लिखा कि आदिवासी समुदाय पिछले कई वर्षों से अपने धार्मिक अस्तित्व की रक्षा के लिए जनगणना कोड में प्रकृति पूजक आदिवासी/सरना धर्मावलंबियों को शामिल करने की मांग को लेकर संघर्षरत है।

" हम आदिवासी समाज के लोग प्राचीन परंपराओं एवं प्रकृति के उपासक हैं तथा पेड़ों, पहाड़ों की पूजा और जंगलों को संरक्षण देने को ही अपना धर्म मानते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में लगभग 12 करोड़ आदिवासी निवास करते हैं। झारखंड प्रदेश जिसका मैं प्रतिनिधित्व करता हूँ एक आदिवासी बाहुल्य राज्य है, जहाँ इनकी संख्या एक करोड़ से भी अधिक है। झारखंड की एक बड़ी आबादी सरना धर्म को मानने वाली है। इस प्राचीनतम सरना धर्म का जीता-जागता ग्रंथ स्वंय जल, जंगल, जमीन एवं प्रकृति हैं। सरना धर्म की संस्कृति, पूजा पद्धति, आदर्श एवं मान्यताएँ प्रचलित सभी धर्मों से अलग है।

विलुप्ति के कगार पर कई आदिवासी समूह

सोरेन ने पत्र में आगे लिखा कि, " झारखंड ही नहीं अपितु पूरे देश का आदिवासी समुदाय पिछले कई वर्षो से अपने धार्मिक अस्तित्व की रक्षा के लिए जनगणना कोड में प्रकृति पूजक आदिवासी सरना धर्मावलंबियों को शामिल करने की माँग को लेकर संघर्षरत है। प्रकृति पर आधारित आदिवासियों के पारंपरिक धार्मिक अस्तित्व के रक्षा की चिंता निश्चित तौर पर एक गंभीर सवाल है। आज आदिवासी सरना धर्म कोड की माँग इसलिए उठ रही है ताकि प्रकृति का उपासक यह आदिवासी समुदाय अपनी पहचान के प्रति आश्वस्त हो सके। वर्तमान में जब समान नागरिक संहिता की मांग कतिपय संगठनों द्वारा उठाई जा रही है, तो आदिवासी सरना समुदाय की इस मांग पर सकारात्मक पहल उनके संरक्षण के लिए नितांत ही आवश्यक है। आप अवगत हैं कि आदिवासी समुदाय में भी कई ऐसे समूह हैं जो विलुप्ति के कगार पर हैं एवं सामाजिक न्याय के सिद्धांत पर इनका संरक्षण नहीं किया गया तो इनकी भाषा, संस्कृति के साथ-साथ इनका अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा।"

हेमन्त सोरेन
हेमन्त सोरेन

"विगत आठ दशकों में झारखण्ड के आदिवासियों की जनसंख्या के क्रमिक विशलेषण से ज्ञात होता है कि इनकी जनसंख्या का प्रतिशत झारखण्ड में 38 से घटकर 26 प्रतिशत ही रह गया है। इनकी जनसख्या के प्रतिशत में इस तरह लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है जिसके फलस्वरुप संविधान की पाँचवी एवं छठी अनुसूची के अंतर्गत आदिवासी विकास की नीतियों में प्रतिकूल प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।"

हेमंत सोरेन , मुख्यमंत्री

सीएम ने आगे लिखा , " उपरोक्त परिस्थितियों के मद्देनजर हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई, जैन धर्मावलम्बियों से अलग सरना अथवा प्रकृति पूजक आदिवासियों की पहचान के लिए तथा उनके संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण के लिए अलग आदिवासी / सरना कोड अत्यावश्यक है। अगर यह कोड मिल जाता है तो इनकी जनसंख्या का स्पष्ट आकलन हो सकेगा एवं तत्पश्चात हम आदिवासियों की भाषा, संस्कृति, इतिहास का संरक्षण एवं संवर्द्धन हो पाएगा तथा हमारे संवैधानिक अधिकारों की रक्षा की जा सकेगी। यहाँ उल्लेखनीय है कि वर्ष 1951 के जनगणना के कॉलम में इनके लिए अलग कोड की व्यवस्था थी परन्तु कतिपय कारणों से बाद के दशकों में यह व्यवस्था समाप्त कर दी गई। अतः आदिवासी / सरना कोड आदिवासी समुदाय के समुचित विकास के लिए अत्यंत ही आवश्यक है एवं इसके मद्देनजर झारखंड विधानसभा से इस निमित्त प्रस्ताव भी पारित कराया गया है, जो वर्तमान में केंद्र सरकार के स्तर पर निर्णय हेतु लंबित है।

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पत्र में सोरेन ने यह भी लिखा, " मुझे अपने आदिवासी होने पर गर्व है और एक आदिवासी मुख्यमंत्री होने के नाते मैं ना सिर्फ झारखंड, बल्कि पूरे देश के आदिवासियों के हित में आपसे विनम्र आग्रह करता हूँ कि हम आदिवासियों की इस आदिवासी / सरना धर्म कोड की चिरप्रतीक्षित माँग पर आप यथाशीघ्र सकारात्मक निर्णय लेने की कृपा करें। आज पूरा विश्व बढ़ते प्रदूषण एवं पर्यावरण की रक्षा को लेकर चिंतित है, वैसे समय में जिस धर्म की आत्मा ही प्रकृति एवं पर्यावरण की रक्षा है उसको मान्यता मिलने से भारत ही नहीं पूरे विश्व में प्रकृति प्रेम का संदेश फैलेगा।"

सरना धर्म क्या है?

सरना धर्म को उसके अनुयायी एक अलग धार्मिक समूह के रूप में स्वीकार करते हैं, जो मुख्य रूप से प्रकृति के उपासकों से बना है। सरना आस्था के मूल सिद्धांत "जल (जल), जंगल (जंगल), ज़मीन (जमीन)" के इर्द-गिर्द घूमते हैं, जिसमें अनुयायी वन क्षेत्रों के संरक्षण पर जोर देते हुए पेड़ों और पहाड़ियों की पूजा करते हैं। पारंपरिक प्रथाओं के विपरीत, सरना विश्वासी मूर्ति पूजा में शामिल नहीं होते हैं और वर्ण व्यवस्था या स्वर्ग- नरक की अवधारणाओं में विश्वास नहीं करते हैं। सरना के अधिकांश अनुयायी ओडिशा, झारखंड, बिहार, पश्चिम बंगाल और असम जैसे आदिवासी बेल्ट में केंद्रित हैं।

सरना धर्म के पैरोकार कई बार राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य को संबोधित पत्रों में अपने विचार व्यक्त करते हुए आदिवासियों के लिए एक अलग धार्मिक संहिता की स्थापना की मांग करते रहे हैं। वे दावा करते हैं कि स्वदेशी लोग प्रकृति के उपासक हैं और उन्हें एक अलग धार्मिक समुदाय के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। सालखन मुर्मू कहते हैं कि एक अलग धार्मिक समुदाय के रूप में मान्यता जनजातियों को उनकी भाषा और इतिहास के संवर्द्धन के लिए बेहतर सुरक्षा प्रदान करेगी। इस तरह की मान्यता के अभाव में ही कुछ समुदाय के सदस्यों ने अल्पसंख्यक स्थिति और आरक्षण का लाभ उठाने के लिए हाल ही में ईसाई धर्म अपनाया।

विशेषज्ञों का तर्क है कि प्रदूषण को दूर करने और वनों के संरक्षण पर वैश्विक फोकस के साथ, मूल समुदायों को सबसे आगे रखा जाना चाहिए। सरनावाद को एक धार्मिक संहिता के रूप में मान्यता देना और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि इस धर्म का सार प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण में निहित है।

नवंबर 2020 में, झारखंड सरकार ने सरना धर्म को मान्यता देने और इसे 2021 की जनगणना में एक अलग कोड के रूप में शामिल करने के लिए एक प्रस्ताव पारित करने के लिए एक विशेष विधानसभा सत्र आयोजित किया। हालांकि, केंद्र सरकार ने अभी तक इस प्रस्ताव पर प्रतिक्रिया और कार्रवाई नहीं की है। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) ने भी भारत की जनगणना के लिए धर्म कोड के भीतर एक स्वतंत्र श्रेणी के रूप में सरना धर्म की सिफारिश की है।

आदिवासी सेंगेल अभियान [एएसए] का आन्दोलन

भारत में हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, सिख, जैन और बौद्घ छह प्रमुख धर्मों में शामिल हैं। कम संख्या में पारसी समुदाय भी हैं जो ज़ोरोएसट्रियानिस्म को मानता है। देश मे मूलनिवासियों के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए कार्यरत संगठन आदिवासी सेंगेल अभियान [एएसए] सरना धर्म संहिता की प्रतीक्षित मान्यता के लिए लंबे समय से आंदोलन कर रहा है।

संगठन का कहना है कि एक निर्दिष्ट कोड के अभाव में भी जब 2011 कि जनगणना में 50 लाख से अधिक आदिवासी लोगों ने सरना को अपने धर्म के रूप में दर्ज करवाया तो केंद्र सरकार इसे आधिकारिक रूप से सरना धर्म कोड की मान्यता क्यों नहीं प्रदान कर रही है जबकि 2011 में जैन धर्मावलंबियों की संख्या 44 लाख ही थी और जैन दर्शन को धर्म के रूप में मान्यता है।

एएसए के राष्ट्रीय प्रमुख सालखन मुर्मू आजाद भारत में आदिवासियों की अधीनता के बारे में मार्मिक सवाल उठाते हैं। अधिकारों की गारंटी देने वाले संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद वे आदिवासी आबादी की वर्तमान में दयनीय सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक दशा पर दुख व्यक्त करते हैं।

मुर्मू कहते हैं कि ये एक विसंगति है कि 2011 की जनगणना में प्रकृति-उन्मुख सरना धर्म के लगभग 50 लाख भक्तों ने अपनी आस्था घोषित की फिर भी सरना धर्म संहिता आधिकारिक स्वीकृति का इंतजार कर रही है।

जैनियों की संख्या 44 लाख है, जिन्हें पहले से ही एक अलग धार्मिक समुदाय के रूप में मान्यता दी जा चुकी है। सरना धर्म कोड की मांग पर सेंगल अभियान ने कई जनजातीय संगठनों के साथ पिछले नवंबर में जंतर मंतर पर धरना दिया था। कोलकाता और रांची में भी सरना धर्म संहिता की मान्यता की वकालत करते हुए प्रदर्शनों की एक श्रृंखला चलाई गई।

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