उदयपुर। 'पैरों में न साया कोई सर पे न साये रे'। गुलजार की लिखी कविता की उपरोक्त पंक्तियां कथौड़ी जनजाति से ताल्लुक रखने वाले इन परिवारों पर सटीक बैठती है। कड़ाके की ठंड, सख्त जमीं पर नंगे पांव चलते ठिठुरते बच्चे। ना पहनने को ढंग के गर्म कपड़ें ना ही इनके नसीब में पेट भर खाना। चार कोनों पर बांस की लकड़ियों पर तिरपाल, खजूर की टहनियों और प्लास्टिक बिछाकर बनाई जुगाड़ की झोपड़ियां और फर्श पर बिछी बोरियां, यही है इनका घर।
जिले के दूरस्थ जनजाति बाहुल्य तहसील झाड़ोल में घाटा फला क्षेत्र में रहने वाले कथौड़ी परिवारों का जीवन विषम है। इन्हें सरकारी योजनाओं का कोई लाभ नही मिल पा रहा है। कहने को तो सरकार द्वारा जनजातियों के लिए कई कल्याणकारी योजनाओं का संचालन किया जा रहा है, लेकिन धरातल पर हकीकत कुछ और ही बयां करती है। बिजली, पानी एवं स्वास्थ्य सेवाओं से हर मोड़ पर वंचित ये परिवार जिन्दगी गुजार नहीं रहे, बल्कि जीवन के दिन काट रहे हैं। इन लोगों के पास ना आधार कार्ड है, ना जनाधार कार्ड। ऐसे में किसी भी सरकारी पहचान पत्र के बिना इन्हें किसी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है, कारण यह है कि ये आज भी सरकार की योजनाओं से अनजान हैं।
बाल श्रम और तस्करी की रोकथाम के लिए राज्य सरकार द्वारा हाल में गठित हाई पॉवर कमेटी के सदस्य भोजराज पदमपुरा के समक्ष कथौड़ी परिवारों ने अपनी पीड़ा बयां की। उनके साथ मौके पर उदयपुर जिला बाल कल्याण समिति के सदस्य भी थे। वनवासियों ने टीम को बताया कि वे सभी सरकारी योजनाओं से महरूम हैं। ना तो प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत इन्हें पक्के मकान मिले हैं ना ही उज्ज्वला स्कीम के तहत रसोई गैस इन्हें मुहैया हो सका है। ये लकड़ियां जलाकर खाना पकाते हैं और इन्हीं का अलाव बनाकर आंच से स्वयं को गर्म रखने का प्रयास करते हैं।
दूरस्थ वन क्षेत्रों में रहने वाले इन वनवासियों का गुजर बसर लघु वन उपज बीनकर होता है। आंवला, शिकाकाई, अरीठा आदि बीनकर, इन्हें धूप में सुखाकर ये ठेकेदारों को औने-पौने दामों में बेच देते हैं जिससे इसके लिए दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता है। नदी के एक ओर सात आठ परिवार बसे हुए हैं जिनके सदस्यों की संख्या करीब 40 बताई जाती है। इनमें बच्चों की संख्या करीब 15 है। कुछ बच्चों का स्कूल में नामांकन हुआ है लेकिन दूर होने से ये बच्चे स्कूल भी नहीं जाते और आंवला आदि बीनने में माता पिता की सहायता करते हैं। कड़ाके की ठंड में इन परिवारों का जीवन मुहाल है।
जिले की झाड़ोल, फलासिया, पानरवा और कोटड़ा आदि सघन जनजाति क्षेत्र को बाल श्रम और बाल तस्करी के लिहाज से हॉट स्पॉट माना जाता है। हाईवे निर्माण के बाद गाड़ियों की आवाजाही बढ़ने और सुलभ होने से बाल श्रमिकों को गुजरात की विभिन्न औद्योगिक इकाइयों में लेबर कार्य के लिए ले जाना भी आसान हो गया है। द मूकनायक से बातचीत में भोजराज ने बताया कि कुछ वर्ष पहले एक बड़े रेस्क्यू ऑपरेशन के तहत काफी संख्या में बच्चों को गुजरात से राजस्थान लाया गया था जिनमें बहुत बच्चे झाड़ोल से थे।
जनजाति वर्ग के लिए निःशुल्क शिक्षा के प्रावधानों के बावजूद सैकड़ों गरीब आदिवासी बच्चे शिक्षा के दायरे से वंचित हैं। लगभग 100 बच्चों पर यहां 30 प्रतिशत ड्रॉप आउट हैं। स्कूल दूर होने या कई बार अत्यंत गरीबी की दशा में परिवार जन किशोर वय के बच्चों को चाय की दुकान या होटलों में काम पर लगा देते हैं जिसके बाद वे कभी पढ़ाई की मुख्य धारा से नहीं जुड़ पाते हैं।
जनजाति कल्याण के लिए सरकार में एक पूरा विभाग तैनात है। करोड़ो रूपये का बजट सालाना जनजाति विकास मद में आवंटित और खर्च किये जाते हैं। निशुल्क शिक्षा, चिकित्सा सुविधाओं के साथ बच्चों के लिए स्कूलों में मिड-डे मील तक की व्यवस्था है लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। "जिले के सुदूर जनजाति बाहुल्य इलाकों का दौरा कर एक ग्राउंड रिपोर्ट बनाई जा रही है जिसे कमेटी की मीटिंग में रखी जायेगी। इसपर एक संकलित रिपोर्ट तैयार करके सरकार को प्रस्तुत की जाएगी ताकि सभी वंचित परिवारों को मूलभूत सुविधाएं तो मय्यसर हो सके", भोजराज ने बताया।
राजस्थान की कुछ मुख्य जनजातियों में काथोड़ी जनजाति (Kathodi Tribe) का नाम भी सम्मिलित है। यह जनजाति राजस्थान में बहुत कम संख्या में पाई जाती है। 2011 की जनगणना के अनुसार इसकी कुल जनसंख्या 4833 थी जिसका 50% भाग उदयपुर जिले में निवास करता है। राज्य की कुल कथौड़ी जनजाति की आबादी की लगभग 52 प्रतिशत कथौड़ी लोग उदयपुर जिले की कोटडा, झाडोल, एव सराडा, पंचायत समिति में बसे हुए हैं। शेष मुख्यतः डूंगरपुर, बारां एवं झालावाड़ में बसे हैं।
ये महाराष्ट्र के मूल निवासी है। खैर के पेड़ से कत्था बनाने में दक्ष होने के कारण वर्षों पूर्व उदयपुर के कत्था व्यवसायियों ने इन्हें यहाँ लाकर बसाया। कत्था तैयार करने में दक्ष होने के कारण ये कथौड़ी कहलाए गए।
वर्तमान में वृक्षों की अंधाधुध कटाई व पर्यावरण की दृष्टि से राज्य सरकार द्वारा इस कार्य को प्रति बंधित घोषित कर दिए जाने कथौड़ी लोगों की आर्थिक स्थिति बडी शोचनीय एवं बदतर हो गयी है। आज यह जनजाति समुदाय जंगल से लघु वन उपज जैसे बांस, महुआ, शहद, सफेद मूसली, डोलमा, गोंद, कोयला एकत्र कर और चोरी-छुपे लकड़ियाँ काटकर बेचने तक सीमित हो गया है। राज्य की अन्य सभी जनजातियों की तुलना में इस जनजाति के लोगों का शैक्षिक एवं आर्थिक जीवन स्तर अत्यधिक निम्न है।
चित्र साभार: भोजराज पदमपुरा
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