30 जून संताल विद्रोह दिवस: 168 साल बाद अब धार्मिक पहचान के लिए, हूल का आगाज करेंगे मूलनिवासी

संताल लोग आजादी से लगभग 100 साल पहले अर्थात् संताल परगना गठन के साथ ही आजाद हो चुके थे। अंग्रेजी सरकार ने संतालों के लिए एक अलग देश/दिशोम प्रदान कर दिया था।
30 जून संताल विद्रोह दिवस: 168 साल बाद अब धार्मिक पहचान के लिए, हूल का आगाज करेंगे मूलनिवासी
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आदिवासी सेंगेल अभियान सरना धर्म कोड की मान्यता को लेकर पिछले दो दशकों से संघर्षरत हैं। 2024 में लोकसभा चुनाव है। चूंकि सरना धर्म कोड केंद्र सरकार का मामला है, इसलिए केंद्र सरकार पर जनदबाव बनाने की रणनीति के तहत सेंगेल अभियान समर्थकों ने विरोध व प्रदर्शन तेज कर दिए हैं। 15 जून को चुनिंदा राज्यों में भारत बंद का सफल आयोजन किया गया। अब विशाल जनसभा की तैयारी की जा रही है। 

मुख्य रूप से झारखंड व अन्य राज्यों के प्रकृति पूजक आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की मान्यता हेतु धार्मिक गुलामी से आजादी के लिए "विश्व सरना धर्म कोड जनसभा" कोलकाता चलो, का आह्वान किया गया है।

30 जून 1855 को अंग्रेजों के खिलाफ संताल विद्रोह का आगाज हुआ था। अतः इस दिन को हर साल क्रांति दिवस मनाया जाता है। 

अतः हूल दिवस के मौके पर कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड कोलकाता में अन्तर्राष्ट्रीय सरना धर्म कोड जनसभा का आयोजन किया जा रहा है। अभियान के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं पूर्व सांसद सालखन मुर्मू ने बताया कि इस जनसभा में मुख्य रूप से भारत के सात राज्यों, बिहार, बंगाल, असम, उड़ीसा, झारखंड, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और नेपाल, भूटान से भी सरना धर्मावलंबी आएंगे। 

30 जून 1855 ई को हुआ "संताल विद्रोह" 

भारत में औपनिवेशिक शासन अर्थात ब्रिटिश शासन की स्थापना के साथ ही विद्रोह- आंदोलनों का इतिहास भी प्रारंभ होता है। जनजातीय आंदोलन भी इसके अपवाद नहीं है। आंदोलन का क्षेत्र या स्वरूप कोई भी हो कुछ बातें मूल रूप से सामान्य पाई जा सकती हैं। इनमें प्रमुख था ब्रिटिश शासन द्वारा जनजातीय जीवन शैली, उनकी सामाजिक संरचना व उनकी संस्कृति में हस्तक्षेप करना। किंतु जमीन से जुड़े मामलों में हस्तक्षेप करना संभवत: इसमें सबसे प्रमुख कारण था। 

भारत में ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था के अन्तर्गत संयुक्त स्वामित्व वाली या सामूहिक सम्पत्ति की (जिसे झारखण्ड में खुण्ट-कट्टी व्यवस्था के नाम से जाना जाता है) अवधारणा वाली आदिवासी परम्पराओं को क्षीण किया गया। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में ईसाई धर्मप्रचारकों की गतिविधियों की भी प्रतिक्रिया देखी गई। किंतु जिस बात का सबसे ज्यादा रोष जनजातियों में देखा गया वह था ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ जनजातीय क्षेत्रों में जमींदार , महाजन और ठेकेदारों के एक नए शोषक समूह का उद्भव। आरक्षित वन सृजित करने और लकड़ी तथा पशु चराने की सुविधाओं पर भी प्रतिबन्ध लगाए जाने के कारण आदिवासी जीवन - शैली प्रभावित हुई क्योंकि आदिवासियों का जीवन सबसे अधिक वनों पर ही निर्भर करता है । 1867 ई. में झूम कृषि पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। नए वन कानून बनाए गये । इन सब कारणों ने देश के विभिन्न भागों में जनजातीय विद्रोहों को जन्म दिया। 

संथाल कौन हैं?

संथाल, गोंड और भील के बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा अनुसूचित जनजाति समुदाय है । यह झारखण्ड की सबसे बड़ी जनजति है । 2022 में देश की 15वीं राष्ट्रपति बनी द्रौपदी मुर्मू इसी जनजाति से हैं । वह भारत की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति हैं। 

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान (SCSTRTI) के अनुसार, संथाल शब्द दो शब्दों से बना है: ‘संथा’ और ‘अला’ । ‘संथा’ का अर्थ है शांत और शांतिपूर्ण; जबकि ‘अला’ का अर्थ है मनुष्य।

संथाल मुख्य रूप से कृषक होते हैं । संथाल आबादी ज्यादातर ओडिशा, झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में वितरित है। “संथाली” संथालों द्वारा बोली जाने वाली भाषा है और इसकी अपनी लिपि है जिसे ओलचिकी कहा जाता है। संथाली भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में भी शामिल है। संथालों की पारंपरिक चित्रकला को जादो पाटिया कहते हैं।

संथालों की प्रमुख ख्याति 1855-56 के संथाल विद्रोह के कारण भी है । कार्ल मार्क्स ने इस विद्रोह को भारत की प्रथम जनक्रांति की संज्ञा दी थी इसकी चर्चा उन्होंने अपनी बहुचर्चित पुस्तक “द कैपिटल” में भी की है।

विद्रोह की पृष्ठभूमि/कारण

इतिहासकारों का मानना है की कृषक आन्दोलन सहित अन्य सभी प्रकार के आंदोलनों की तुलना में जनजातीय आन्दोलन अधिक संगठित और अधिक हिंसक होते थे।

संथाल विद्रोह जिसे क्षेत्रीय तौर पर “संथाल- हूल” के नाम से बेहतर जाना जाता है। हिंदी में "हूल" का अर्थ होता है - विद्रोह जिसे संताली भाषा में "हूल" कहते हैं। झारखंड के इतिहास में होने वाले सभी जनजातीय आंदोलनों में संभवत: सबसे व्यापक एवं प्रभावशाली विद्रोह था। यह वर्तमान झारखंड के पूर्वी क्षेत्र जिसे संथाल परगना “दामन-ए-कोह” (भागलपुर व राजमहल पहाड़ियों के आस पास का क्षेत्र) के नाम से जानते हैं, में 1855-56 में घटित हुआ था। यह क्षेत्र झारखण्ड के सबसे बड़े जनजातीय समूह “संथालों” का निवास स्थल था। 

संथालों के आक्रोश का मुख्य कारण यह था कि ब्रिटिश काल में साहूकार तथा औपनिवेशिक प्रशासक दोनों ही संथालों का शोषण करते थे। दीकुओं (बाहरी लोगों) तथा व्यापारियों द्वारा संथालों द्वारा लिए गए ऋणों पर 50% से लेकर 500% तक ब्याज वसूले जाने के उदाहारण मिलते हैं। और भी कई तरीकों से आदिवासियों का शोषण किया और उनसे धोखेबाजी की गई। आदिवासी चूँकि पढ़े -लिखे नही थे ,अतः उनसे जालसाजी कर तय दर से अधिक ब्याज वसूलना व यहाँ तक की उनकी जमीनों को भी हड़प लेना आम बात थी। जब वे ऐसी शिकायतें लेकर प्रशासन या पुलिस के पास जाते तो भी उन्हें निराशा ही हाथ लगती थी। इसी बीच ब्रिटिश सरकार ने भागलपुर -वर्दमान रेल परियोजना के तहत रेल लाइनें बिछाने के लिए बड़ी संख्या में संथालों को बेगार मजदूरों के तौर पर बलात भर्ती किया। इस घटना ने संथाल विद्रोह के तात्कालिक कारण का काम किया।

विद्रोह की प्रमुख घटनाएं

इन्हीं अत्याचारों की पृष्ठभूमि में संथालों ने दरोगा महेश लाल दत्त एवं प्रताप नारायण की हत्या कर दी और इसी के साथ संथाल हूल की चिंगारी उठी। 30 जून, 1855 को भोगनीडीह में 400 आदिवासी गाँवों के लगभग 6000 आदिवासी इकट्ठा हुए और सभा की। सिद्धू , कान्हू, चाँद तथा भैरव नाम के 4 भाइयों व फूलो तथा झानो नाम की उनकी 2 बहनों के नेतृत्व में यह घोषणा हुई कि बाहरी लोगों को भगाने और विदेशियों का राज्य समाप्त कर सतयुग का राज स्थापित करने के लिए विद्रोह किया जाए। सिद्धू और कान्हू ने घोषणा की कि देवता ने उन्हें निर्देश दिया है कि “आजादी के लिए हथियार उठा लो”। विद्रोहियों ने सिद्धू को राजा, कान्हू को मंत्री, चांद को प्रशासक तथा भैरव को सेनापति घोषित किया। इन लोगों ने ब्रिटिश दफ्तरों एवं संस्थानों,थाना ,डाकघरों व अन्य सभी ऐसे संस्थाओं पर हमला करना शुरू कर दिया जिन्हें वे “गैर - जनजातीय” प्रतीक के द्योतक मानते थे। भागलपुर और राजमहल के बीच सभी सरकारी सेवाएँ ठप्प कर दी गई।

विद्रोह का दमन एवं इसकी महत्ता 

सरकार को संथालों के विद्रोह को कुचलने के लिए उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों में मार्शल लॉ लगाना पड़ा। मेजर बरो के नेतृत्व में सेना की 10 टुकडियां भेजी गई ,लेकिन उन्हें संथालों ने परस्त कर दिया। फिर विद्रोही नेताओं को पकड़ने के लिए 10 हजार रुपए का इनाम घोषित किया गया। सबसे पहले सिद्धू पकड़ा गया और उसे 5 दिसम्बर को फांसी दे दी गई। चाँद व भैरव पुलिस की गोली से मारे गये। अंततः कान्हू भी पकड़ा गया और उसे 23 फरवरी ,1856 को फांसी दे दी गई। इस प्रकार इस विद्रोह का दमन कर दिया गया। जनरल लोयड, ले. थोम्सन, रीड तथा कैप्टन एलेग्जेंडर को इस विद्रोह के दमन का श्रेय दिया जाता है।

हालाँकि संथाल विद्रोह का दमन कर दिया गया, लेकिन यह विद्रोह झारखण्ड के इतिहास में अपना महत्त्व रखता है। इस विद्रोह ने आदिवासियों को जागरूक करने का कार्य किया जिससे आगे होने वाले आंदोलनों के मार्ग प्रशस्त हो सके। सरकार ने 22 दिसम्बर 1855 को संथाल लोगों के लिए पृथक् सन्थाल परगना बनाकर शान्ति स्थापित की। दुमका, देवघर, गोड्डा व राजमहल उप-जिले बनाए गये। इस क्षेत्र को निषिद्ध क्षेत्र (regulating area) घोषित कर यहाँ बाहरी लोगों के प्रवेश व उनकी गतिविधि को नियंत्रित किया गया जो की आदिवासियों की एक पुरानी मांग थी। जॉर्ज युल के नेतृत्व में नया पुलिस कानून पारित किया गया। और आगे चलकर संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम (S.P.T ACT-1949) पारित किया गया ताकि जनजातीय भूमि के हस्तांतरण पर रोक लगाई जा सके। 

चूंकि, सिदो मुर्मू के नेतृत्व में 30 जून 1855 को साहेबगंज जिला के भोगनाडीह जाहेर पूजा स्थान विधिवत रुप से पूजा अर्चना कर हूल क्रांति आंदोलन का आगाज किया गया था, उसके बाद एक बड़ा जन आंदोलन हुआ। भारत देश 15 अगस्त 1947 को आज़ादी मिली किन्तु संताल लोग आजादी से लगभग 100 साल पहले अर्थात् संताल परगना गठन के साथ ही आजाद हो चुके थे। अंग्रेजी सरकार ने संतालों के लिए एक अलग देश/दिशोम प्रदान कर दिया था।

भारत आजाद होने के बाद से संताल परगना और अन्य जिलों को शामिल कर अलग झारखंड का मांग किया जाने लगा। किन्तु सरकार द्वारा इस मांग को ठुकराया जाता रहा। अंततः बिरसा मुंडा के जन्म दिवस पर संतालों के लिए एक अलग झारखंड राज्य का निर्माण किया गया। किन्तु आदिवासियों का जो नारा था - "आबुआ दिशुम रे आबुआ राज " वह आज भी अधूरा है।

सरकार के प्रति घोर असंतोष

सालखन मुर्मू कहते हैं कि आज भी झारखंड के आदिवासियों को झारखंड सरकार के प्रति घोर असंतोष है। संतालों की संताली भाषा जो संविधान के आठवीं अनुसूची में सूचीबद्ध है की घोर उपेक्षा की जा रही है। संतालों द्वारा संताली भाषा को झारखंड की राजभाषा बनाने के लिए विगत कई वर्षों से आंदोलनरत हैं किन्तु झारखंड राज्य में एक आदिवासी मुख्यमंत्री होने के बावजूद आदिवासी संताली भाषा को राजभाषा का दर्जा नहीं दिया जा रहा है जिससे आदिवासी बच्चों को पठन पाठन में क‌ई तरह की समस्याओं को झेल रहे हैं। गैर झारखंडी जो आदिवासियों के लिए एक विदेशी भाषा की तरह है भाषा से जबरन पढ़ाई-लिखाई कराया जाता है जिससे आदिवासी समाज के बच्चों का मानसिक विकास अवरूद्ध होता जा रहा है। यही कारण है कि आदिवासी समाज के लोग हर क्षेत्र में पिछड़ेपन का शिकार हैं।

मूलनिवासी धार्मिक पहचान से वंचित

मुर्मू कहते हैं भारत सरकार द्वारा पूरे आदिवासी समुदाय को धार्मिक पहचान से वंचित कर दिया है। आदिवासी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन और बौद्ध धर्म के नहीं है। आदिवासियों की पूजा पद्धति इन सभी धर्मों से अलग है बावजूद आदिवासियों के लिए कोई कॉलम नहीं है। जिससे आदिवासी समाज अन्य के कॉलम में अपना धर्म को लिखते हैं। आदिवासी समाज के लोग अपना धर्म को सरना लिखते हैं इसलिए वर्षों से सरना धर्म कोड की मांग कर रहे हैं किन्तु वर्तमान बीजेपी सरकार इस पर बिल्कुल भी गंभीर नहीं है। बीजेपी एवं आर‌एस‌एस जबरन आदिवासियों को हिंदू बताती है जो सीधे-सीधे  आदिवासियों के धार्मिक पहचान पर हमला है।

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