नई दिल्ली- नेशनल कन्फेडरेशन ऑफ दलित एंड आदिवासी ऑर्गेनाइजेशन (एनएसीडीएओआर) ने सुप्रीम कोर्ट के हालिया "क्रीमी लेयर" और अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) वर्गों के उप-वर्गीकरण पर दिए गए फैसले को चुनौती देते हुए पुनर्विचार याचिका दाखिल की है। संगठन का तर्क है कि यह निर्णय दलितों और आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को कमजोर कर सकता है, जिससे उनके उत्थान के लिए बनाए गए आरक्षण प्रणाली पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। संगठन का मानना है कि इस व्यवस्था से आगे चलकर रिजर्व्ड कोटा की सीट्स को भी सवर्ण और प्रभुत्व वर्गों द्वारा अपने अधिकार में कर लिया जायेगा जिससे आरक्षित वर्ग के लोग अपने अधिकारों से वंचित हो जायेंगे.
एनएसीडीएओआर के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक भारती ने द मूकनायक से बातचीत में इस फैसले को एससी और एसटी समुदायों के कल्याण और विकास के लिए हानिकारक बताया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यह फैसला सात न्यायाधीशों की पीठ द्वारा 6:1 के अनुपात में पारित किया गया, जिसमें आरक्षित वर्गों का उचित प्रतिनिधित्व नहीं था। भारती ने कहा, "निर्णय में उपयोग की गई भाषा अत्यधिक आपत्तिजनक है और यह न्यायाधीशों की दलितों और आदिवासियों के प्रति नकारात्मक सोच को दर्शाती है, हमने इसपर भी आपत्ति दर्ज की है"।
उन्होंने आगे जोर देकर कहा कि चाहे उनकी आर्थिक स्थिति कुछ भी हो, आर्थिक कठिनाइयों के साथ-साथ जाति आधारित उत्पीड़न दलितों और आदिवासियों को व्यापक रूप से प्रभावित करता है। भारती ने बताया कि आरक्षण प्रणाली के बावजूद, राज्य और केंद्र सरकार के 60% नौकरी के पद अब भी प्रभुत्वशाली वर्गों के पास हैं, जबकि एससी, एसटी और ओबीसी समुदायों के बीच केवल 40% ही बांटे गए हैं। उन्होंने सवाल उठाया, "यह अजीब है कि 60% 'सवर्णों' द्वारा भोगे जा रहे पदों में अल्पसंख्यकों के लिए भी कोई स्थान नहीं है। क्या यह असमानता नहीं है?"। भारती ने कहा कि सरकार में कार्यरत एससी/एसटी/ओबीसी कर्मचारियों पर जाति आधारित डेटा का तत्काल सार्वजनिक किया जाना आवश्यक है ताकि उनकी सही प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सके।
भारती ने चिंता व्यक्त की कि सुप्रीम कोर्ट का उप-वर्गीकरण पर निर्णय एससी-एसटी समुदायों के भीतर विभाजन पैदा कर सकता है और प्रभुत्वशाली वर्गों को आरक्षित कोटा में और अधिक हस्तक्षेप करने का मौका दे सकता है, जिससे अंततः आरक्षण प्रणाली का उद्देश्य विफल हो सकता है।
एनएसीडीएओआर की पुनर्विचार याचिका में अनुरोध किया गया है कि इस मामले की पुन: सुनवाई 9 या 11 न्यायाधीशों की बड़ी पीठ द्वारा की जाए, जिसमें एससी, एसटी और ओबीसी समुदायों का उचित प्रतिनिधित्व हो। भारती ने यह भी आलोचना की कि यह निर्णय सैद्धांतिक अवधारणाओं पर आधारित है, जबकि निर्णयों को अनुभवजन्य डेटा, तथ्यों और परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित होना चाहिए।
एनएसीडीएओआर को उम्मीद है कि उनकी पुनर्विचार याचिका से सकारात्मक परिणाम प्राप्त होगा और हाशिए पर पड़े समुदायों के लिए न्याय सुनिश्चित होगा।
1 अगस्त 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण मुद्दे पर एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 6-1 के बहुमत से फैसला देकर साफ कर दिया है कि राज्यों को आरक्षण के लिए कोटा के भीतर कोटा बनाने का अधिकार है. अदालत ने कहा कि सभी अनुसूचित जातियां और जनजातियां एक समान वर्ग नहीं है। इसके अंदर एक जाति दूसरे से ज्यादा पिछड़ी हो सकती है इसलिए उनके उत्थान के लिए राज्य सरकार सब-क्लासिफिकेशन कर अलग से आरक्षण दे सकती है। इसके साथ ही अदालत ने एससी, एसटी वर्ग के आरक्षण से क्रीमीलेयर को चिह्नित कर बाहर करने की जरूरत पर भी जोर दिया।
चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, बीआर गवई, विक्रम नाथ, बेला एम त्रिवेदी, पंकज मित्तल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा की सात सदस्यीय पीठ ने इस मुद्दे पर लंबित करीब दो दर्जन याचिकाओं पर यह फैसला सुनाया है। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2004 के अपने पुराने फैसले को पलट दिया।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को विभाजनकारी माना जा रहा है कि अब दलित और आदिवासी एक समूह नहीं रह जाएंगे बल्कि उनके अंदर भी अलग-अलग वर्ग बन जाएंगे और फिर नई राजनीति शुरू हो जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सियासत में बड़े बदलाव दिख सकते हैं। साथ ही एससी-एसटी के अलग-अलग वर्गों के अलग अलग राजनीतिक नेतृत्व उभर सकते हैं।
एनएसीडीएओआर के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक भारती कहते हैं कि इस निर्णय की आड़ लेकर राज्य सरकारें अपने राजनितिक हितों को साधने का प्रयास करेंगी.
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