कुशलगढ़, बांसवाडा। क्या आपने भारत में ऐसा कोई नगर देखा है जहां बाजारों में हर दूसरी- तीसरी दुकान कोई महिला या युवती चला रही हो? महिलाओं के कपड़े अधिकांश तौर पर पुरुषों द्वारा सिले जाते हैं और बड़े शहरों से लेकर छोटे कस्बों में भी लेडीज टेलर्स की शॉप में पुरुष दर्जी ही नजर आते हैं लेकिन दक्षिण राजस्थान के वागड़ अंचल में कुशलगढ़ नगर के बाजारों में आदिवासी महिलाएं और युवतियां द्वारा संचालित टेलरिंग यूनिट्स की भरमार है।
राजस्थान के इस सबसे सुदूर कस्बे में आकर ऐसा लगता है मानो ' बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' के स्लोगन दीवारों पर लिखने मात्र के लिए रचे गए हैं क्योंकि इस इलाके में पढ़ी लिखी युवतियां रोजगार के पर्याप्त अवसर नहीं होने से बेबस महसूस करती हैं। गुजरात और मध्यप्रदेश के बार्डर से सटा होने के बावजूद यहां पुरुषों के पास रोजगार का गहरा संकट है और महिलाओं पर घर चलाने का जबरदस्त दबाव। जनजाति कल्याण का राग अलापने वाली अब तक की सभी सरकारें इस आदिवासी बाहुल्य इलाके में जनजाति वर्ग के युवाओं को रोजगार देने या आजीविका के अवसर प्रदान करने में बुरी तरह नाकाम रहीं हैं.
यही वजह है कि जहां स्कूल कॉलेज जाने वाली लड़कियां पिता का हाथ बंटाने के लिए पढ़ाई छोड़ने को विवश हैं वहीं ऐसी अनेक महिलाएं हैं जिनके पति सीजनल खेती बाड़ी होने के कारण साल के 7-8 महीने बेरोजगार होकर घर बैठे रहते हैं और पत्नियों को घर चलाने के लिए मजबूरन टेलरिंग कार्य करना पड़ रहा है। घर के आदमी कमाने के लिए मजबूरी में गुजरात जाते हैं, वहां स्वयं का खर्चा निकालने के बाद मामूली रूपया परिवार को भेज पाते हैं ऐसे में महिलाओं के पास सिलाई के अलावा आजीविका अर्जित करने का कोई भी जरिया नहीं है. राज्य व केंद्र सरकारों द्वारा जनजाति कल्याण के दावे और महिला सशक्तिकरण को लेकर सरकारी आकंड़े मानों जैसे यहां के टेलरिंग दुकानों के बाहर कतरनों की तरह बिखरे पड़े हैं।
राजस्थान में आसन्न विधानसभा चुनावों के मद्देनजर जनजाति समाज के स्थिति की पड़ताल करने द मूकनायक बांसवाड़ा जिले के सबसे बड़े कस्बे कुशलगढ़ पहुंचा तो गले में फीता लटकाए, मशीनों पर सरपट काम करती, कहीं माप लेती तो कहीं कतरनों को जोड़ती महिलाओं को देख अचरज का पारावार ना रहा। इस कस्बे में आदिवासियों की तादाद काफी अधिक है। हालांकि यहां के मार्केट्स में दूसरे समुदाय जैसे जैन, ओबीसी और ब्राह्मण समाज की महिलाएं भी सिलाई कढ़ाई का कार्य करती हैं लेकिन बहुसंख्या में जनजाति युवतियां इस कार्य को करती देखी जा सकती हैं।
किसी बाजार में इतनी ज्यादा संख्या में महिलाओं के हाथों में कमान स्वाभाविक रूप से कौतुकता बढ़ाती है लेकिन जब द मूकनायक ने महिला सशक्तिकरण का आभास देने वाली इस तस्वीर को करीब से देखा तो एक दर्दभरा पहलू सामने आया।
एक ओर सकारात्मक पक्ष यह कि ये लड़कियां आत्मनिर्भर होने के साथ अपने भरे पूरे परिवार का भी पेट पाल रही हैं, छोटे भाई बहनों की शिक्षा का खर्चा उठाती हैं लेकिन इस तस्वीर का एक दुखद पहलू यह है कि ये जनजाति युवतियां अपने शौक या इच्छा से ये काम नहीं कर रहीं बल्कि पारिवारिक दबाव, नौकरियां नहीं मिलने की मजबूरी, विपन्न आर्थिक हालातों के चलते रोज सुबह अपने गांवों से कई किलोमीटर का फासला तय करके कुशलगढ़ के बाजारों तक दुकान करने आती जाती हैं। कोई अपनी पढ़ाई के साथ ये काम कर रहीं हैं तो कई ड्राप आउट होकर यानी पढ़ाई छोड़कर। कोई ऑटो रिक्शा तो कोई बस से आती हैं, किसी के घर की हालत इतनी खराब है कि वह रोजाना 3-4 किलोमीटर पैदल चलकर आने को विवश हैं।
सुभाष रोड मार्केट पर द मूकनायक टीम ने रेशमा से बात की। रेशमा पहले दिहाड़ी मजदूर थी। यहीं कस्बे में निर्माण स्थलों पर तगारी तोकने ( ईंट-रेत उठाने) का काम करती थी। "मैं बिल्कुल भी पढ़ी लिखी नहीं हूँ , पहले मजदूरी करती थी, 30-40 रुपये दिन के कमाती थी। फिर मैंने सिलाई सीखी, अब चार-पांच सालों से सिलाई का काम करती हूं, ग्राहकी के ऊपर कमाई निर्भर है, औसतन 250-300 रुपये दिन के हो जाते हैं" रेशमा ने कहा। परिवार के बारे में पूछने पर वह कहती है पति घर में रहता है, बेरोजगार है। गुजरात में काम मिल जाता है तो वहां जाता है , बाकी समय घर में रहता है। सरकारी स्कीमों के लाभ को लेकर पूछने पर रेशमा कहती हैं, हां गेहूं मिलता है और दो महीने से खाने के सामान वाला पैकेट प्राप्त हो रहा है।
यही पास में टेलरिंग शॉप चलाने वाली चंपा कटारा ब्लाउज-घाघरा आदि सिलाई की एक्सपर्ट है। चंपा ने द मूकनायक को बताया उंसका पति कोई काम नहीं करता, दो बच्चों की पढ़ाई और घर का पूरा खर्चा चम्पा की कमाई से ही निकलता है। "मेरे पति ने बीएड कर रखी है, एग्जाम दिया लेकिन एक नम्बर से रह गया। पढ़ा लिखा है लेकिन नौकरी नहीं मिल रही, इसलिए गुजरात जाकर मजदूरी भी नहीं कर सकता, यहाँ मेरे पीछे घर बच्चों को संभालता है और बकरियों को देखता है", चम्पा ने सकुचाते हुए जवाब दिया।
तलाईपाडा निवासी जिंगु राणा दो महीने पहले ही अपनी दो सहेलियों के साथ मिलकर एक टेलरिंग यूनिट डाली है। बारहवीं तक पढ़ाई करने के बाद पारिवारिक परिस्थितियों के कारण जिंगु आगे शिक्षा जारी नहीं रख पाई। वो कहती है -पापा खेती बाड़ी करते हैं, चार छोटे भाई बहन हैं जिनकी पढ़ाई चल रही है। पापा की अकेली कमाई से घर नहीं चल पा रहा था इसलिए उसने सिलाई एम्ब्रॉइडरी सीखी।
यहीं पर पूजा खड़िया भी मिली जो बीए तृतीय वर्ष की छात्रा है। पूजा कहती हैं घरवाले गरीब है, बीए के आगे पढा नहीं सकेंगे और खाली बीए करके नौकरी नहीं मिलेगी। इस कारण लगा कि यदि सिलाई सीख लूं तो कम से कम अपने पांव पर खड़ी हो सकती हूं। दुकान का किराया 3 हजार रुपये और लाइट बिल सहित कुल खर्चा महीने के साढ़े चार हजार रुपये बैठता है जो निकल जाता है। ब्लाउज सिलाई चार्ज 200-250 रुपये लगते हैं, दो घंटों में एक सूट बन जाता है जिसपर 250 रुपये तक मिल जाते हैं।
गुजरात के फतहपुरा गांव से कुशलगढ में ब्याही गीता डामोर ने द मूकनायक को बताया कि यहां महिलाएं खुद का खर्चा निकालने के साथ घर की जिम्मेदारी उठाने के लिए यह काम करती हैं गीता के पति खेती बाड़ी से छोटी मोटी कमाई करते हैं जो परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिये नाकाफी है। गीता रोजाना 10 किलोमीटर टेम्पो से आती जाती है , दुकान का किराया प्रतिमाह पांच हजार रुपये चुकाती है। " हाथों में बहुत कम बचता है लेकिन जैसे तैसे गुजारा करना पड़ता है। गीता बताती हैं बारहवीं पढ़ाई के बाद शादी हो गयी थी तो आगे पढ़ नहीं सकी , फिर बच्चा हो गया। ससुराल में इतना पैसा नहीं है तो बच्चे को पढ़ाने के लिए यह काम शुरू किया है।
गीता की सहेली प्रमिला कटारा भवरकोट गांव की हैं जो 12 किलोमीटर दूर है, वो कहती हैं सीजन जैसे सावों, होली दीपावली नवरात्र आदि में अच्छी ग्राहकी होती है लेकिन चौमासे यानी आषाढ़ से कार्तिक माह तक बिल्कुल काम नहीं होता जो बहुत कठिनाईयों से गुजरता है। सीजन पर टिका होने से यह काम स्थायी रोजगार की गारंटी नहीं देता है लेकिन जैसे तैसे इज्जत की रोटी कमा रहे हैं।
सोशल रिसर्चर एवं एक्टिविस्ट डॉ निधि सेठ यहां स्टूडेंट्स और महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए 2016 से एक विशिष्ट सखी प्रोजेक्ट चला रही हैं। प्रतिध्वनि नामक अपनी संस्थान के जरिये निधि इस क्षेत्र में सखियों का एक व्यापक नेटवर्क तैयार कर चुकी हैं जिसमें अब तक करीब 5 हजार महिलाएं सिलाई-कटिंग-क्ले आर्ट-कम्प्यूटर आदि का प्रशिक्षण प्राप्त कर अपने पांवों पर खड़ी होने का सामर्थ्य हासिल कर चुकी हैं। 6 माह का कोर्स पूरा करने वाली कई जनजाति बालिकाओं को संस्था द्वारा कुछ सरकारी सहयोग जुटाकर मशीनें भी उपलब्ध करवाई गई हैं ताकि ये अपना स्वयं का काम कर सकें।
सामाजिक अध्ययन की रिसर्चर होने के नाते निधि बताती हैं कि बेरोजगारी एक सबसे अहम मुद्दा है, यहां से हजारों महिला पुरुष गुजरात पलायन करते हैं लेकिन अब तक की भाजपा और कांग्रेस दोनों ही सरकारें आदिवासी समुदाय के मुद्दों को समझने और इनके निराकरण करने में विफल रही हैं।
सुदूर स्थानों में आदिवासी महिलाओं की स्थिति पर शोध के लिए निधि की क्षेत्रीय यात्राओं के दौरान 'सखी' का विचार सामने आया। वह परेशान करने वाले शोध निष्कर्षों से चिंतित थी, जिसमें भारी संख्या में पुरुषों का काम की तलाश में गुजरात के शहरों की ओर पलायन पाया गया। निधि कहती हैं, "ज्यादातर महिलाओं को अपने पति द्वारा हर महीने घर भेजे जाने वाली मामूली रकम से घर चलाना पड़ता है। इसलिए कौशल विकास कार्यक्रम के रूप में 'सखी' का उदय हुआ।"
निधि ने पहले सरकारी अधिकारियों से संपर्क किया, लेकिन उनकी प्रतिक्रिया निराशाजनक थी और इसलिए अपनी बचत से धन लगाकर, निधि ने 2016 में क्षेत्र में महिलाओं को मजबूत करने के मिशन पर काम शुरू किया।
आज 8 साल के बाद, 5 हजार महिलाओं का वर्क फोर्स, सिलाई के संसाधन और सबसे बढ़कर काम करने की दृढ़ इच्छाशक्ति के बावजूद, ये महिलाएं राज्य या केंद्र सरकार की किसी भी एजेंसियों से बड़ा काम का ऑर्डर प्राप्त करने में नाकाम रहीं हैं।
इन वर्षों में सरकारी प्रोत्साहन के नाम पर केवल 7 लाख रुपये के ऑर्डर मिले हैं। बल्क आर्डर नहीं होने के कारण मजबूरी में युवतियां खुले बाज़ार के लिए काम कर रहीं हैं जो मौसमी है और इसमें निश्चित आय की कोई गारंटी नहीं है।
सरकार की उदासीनता इतनी निराशाजनक है कि महिलाएं चुनावों का बहिष्कार करने के विचार पर भी विचार कर रही हैं। निधि कहती हैं, "जब कई प्रवासी महामारी के कारण हुए लॉकडाउन के कारण बड़े शहरों से घर लौटे, तो उन्हें दो वक्त के भोजन के लिए चिंता करने की ज़रूरत नहीं थी क्योंकि उनकी पत्नियाँ, जो सखी कार्यक्रम से जुड़ी थीं, अपने परिवार का समर्थन करने के लिए पर्याप्त कमाई करती थीं।"
लेकिन, इस मजबूत आर्थिक विकास को राज्य द्वारा पूरी तरह से अनदेखा कर दिया गया है जो महिला शक्ति के लिए निराशाजनक है। "मुख्यमंत्री कार्यालय से लेकर संभागीय आयुक्त तक, आदिवासी कल्याण विभाग के अधिकारी, विधायक से लेकर सांसद तक, मैंने हर किसी से मुलाकात की है, लेकिन वास्तव में किसी को परवाह नहीं है। मुझे केवल झूठे आश्वासन मिले हैं। वे ब्रांड को काम देंगे लेकिन हमें नहीं। हमारी कुशल टीम के लिए जो हर तरह के फैशनेबल और ट्रेंडी कपड़े और जटिल कढ़ाई बनाने में सक्षम है, निधि नाराजगी भरे स्वर में कहती है।
यहां सिलाई सीखने आई सेकेंड ईयर की छात्रा पीनल डामोर कहती हैं कि मेरे जैसी कई लड़कियां कुशलगढ तक प्राइवेट वाहनों जीपों में लटक लटक कर रोजाना आती जाती हैं। बसें नही चलती, प्राइवेट वाहन चालक मनमाना किराया वसूलते हैं उसपर भी टूटी फूटी सड़कों पर जोखिमभरा सफर तय करना मजबूरी है।
"सरकारों को हमारी कुछ भी नहीं पड़ी है। बेटी पढ़ाओ स्लोगन ढकोसला मात्र है- हमको स्कूल कॉलेज में टीचर्स अच्छा नहीं पढ़ाती क्योंकि वो सिर्फ अपनी नौकरी करने आते हैं ताकि उनको वेतन मिले। हम लड़कियों को वास्तव में ज्ञान देकर काबिल बनाने की मंशा ना सरकार को है ना किसी भी विभाग को। पुस्तकालय में किताबें नही है, जो है वो भी हमें नहीं मिलती। कहते हैं कि बाहर से खरीद लो- हम कैसे खरीदे महंगी किताबें?.. परिवार वाले भी कहते है पढ़कर क्या करोगी, कमाई करो तो आगे पढ़ाएंगे...कहते हुए पीनल फफक पड़ती है।
वो आगे कहती है कि "नेताओ को लोगों से वोट चाहिए तो वे अभी हमारे चरणों मे हैं, बाद में हम उनके चरणों मे जाते हैं। घर पर होते हुए भी मना करवा देते हैं कि वो नहीं हैं, एक दस्तखत करने के लिए भी 100 रुपये लेते हैं तब साइन करते हैं। "
उत्तर प्रदेश के वाराणसी की खुशबू ग्रेजुएट है जिसकी शादी यहां कुशलगढ में हुई। खुशबू ने द मूकनायक को बताया "मैं बीएड करना चाहती थी, अच्छा टीचर बनना चाहती थी लेकिन घर की स्थिति अच्छी नहीं थी, फीस इतनी ज्यादा थी कि परिवार ने पढ़ाई रोक दी। मैं कम्प्यूटर का काम जानती हूं, कई प्राइवेट जॉब्स के लिए अप्लाई भी किये लेकिन काम नहीं मिला। पति प्राइवेट स्कूल में टीचर हैं, मैं घर में खाली बैठकर बोझ नहीं बनना चाहती तो सिलाई सीख ली ताकि हाथ का हुनर सीखकर कुछ कमा सकूं। खुशबू बताती हैं कि उसका ससुराल जमराई गांव में है , रास्ता नहीं होने से रोज 2-3 किलोमीटर पैदल घाटी पार करके आना पड़ता है। बहुत डर लगता है एरिया अच्छा नहीं है, दारू पीने वाले रहते हैं । हम डर के आते हैं डर के जाते हैं। कई बार ऐसा होता है रास्ता अच्छा नहीं होने के कारण बहुत सारे पीने वाले लड़के पीछे लग जाते हैं और कांच की बोतल लेकर हमें मारने के लिए भी आते हैं। हमारे घर पर पानी नहीं है, पानी दूर हैंडपंप से लाना पड़ता है, बहुत सारी समस्या है।"
कमजोर माली हालात के चलते कुशलगढ क्षेत्र में अधिकांश महिलाएं और युवतियां कुपोषण (Malnutrition) का शिकार हैं । ग्रामीण इलाकों में औसतन एक परिवार में पांच-सात सदस्य होते हैं, आजीविका का स्थायी जरिया नहीं होने की वजह से दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से नसीब होती है। कम उम्र में शादी , एक के बाद एक प्रसव के कारण अधिकांश महिलाएं एनीमिया (Anemia) की शिकार हैं वहीं बच्चे भी कमजोर और कुपोषित हैं। नमक मिर्च के साथ रोटी खाने वाले परिवारों के लिए हरी सब्जी, दूध और पोषक आहार बहुत दूर की कौड़ी प्रतीत होती है। सिलाई का काम करने आने वाली युवतियां कई बार खाली पेट ही घर से निकल कर आती हैं, किसी दिन कमाई हुई तो ठीक वरना पूरे दिन भूखे रहना और घर लौटकर एक वक्त का खाना इनकी रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा ही बन चुका है।
बकौल निधि, " वसुधंरा राजे जब सीएम रहीं, स्वयं एक महिला होने के बावजूद आदिवासी बाहुल्य इस इलाके में महिलाओं के कल्याण के लिए कोई ठोस प्रयास नही कर सकी वहीं वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत स्वयं को गांधीवादी विचारधारा का अनुयायी बताते हैं लेकिन इन्होंने भी गांधीवादी सिद्धान्तों पर चलने वाले इस केंद्र और हमारे व्यापक नेटवर्क को किसी प्रकार का कोई प्रोत्साहन नहीं दिया। केंद्र सरकार के जनजाति मंत्रालय के अधीन संचालित ट्राइबल कोऑपरेटिव मार्केटिंग डेवलपमेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया ( TRIFED) से भी हमें कोई प्रोजेक्ट नहीं मिल सका जबकि हमारी लड़कियां किसी भी बड़े डिजायनर को टक्कर देने में सक्षम हैं।
कुशलगढ में पिछले कई सालों से लड़कियों को टेलरिंग के गुर सिखाने वाले मास्टर जी मेहताब खान उत्तरप्रदेश के बदायूं जिले के मूलनिवासी हैं । खान ने द मूकनायक को बताया कि उन्होंने जयपुर और अन्य शहरों में भी टेलरिंग सिखाई है लेकिन यहां आदिवासी लड़कियों को सिखाने में बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। "उसकी वजह यह है कि सिलाई बुनाई सब गणितीय फॉर्मूले पर चलता है और इन लड़कियों का फाउंडेशन ही इतना कमजोर है कि 6 माह के कोर्स में शुरू के 2 महीने बेसिक्स सिखाने में ही लग जाता है। साफ महसूस होता है कि आदिवासी इलाके में भले ही सरकारी स्कूल और कॉलेज खुले हो लेकिन इन्हें सलीके से पढ़ाया नही जाता है। इन लड़कियों के पास डिग्रियां हैं लेकिन ज्ञान की बहुत कमी है।"
जनजाति कल्याण के नाम पर ट्राइबल सब प्लान (TSP) एरिया, इस वर्ग को समर्पित एक पूरा ट्राइबल वेलफेयर डिपार्टमेंट और इनको सशक्त करने के लिए सलाना करोड़ों रुपये का बजट-इन सबके बावजूद दक्षिण राजस्थान में आदिवासी वर्ग खासकर लड़कियों की हालत दयनीय है।
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