चित्तौड़गढ़। गुड़, अनार की छाल, इमली की लुगदी, चाय की पत्ती, गोंद, हल्दी, कत्था...कहीं आप ये तो नहीं समझ रहे कि हम आपको कोई देसी दवा बनाने का नुस्ख़ा बता रहे हैं ? जी नहीं, ये सब सामग्री इस्तेमाल होती है सुंदर चटकीले रंग बनाने में जिनमें रंग कर तैयार होते हैं विश्व विख्यात दाबू प्रिंट के कपडे।
राजस्थान की रंग बिरंगी लोक संस्कृति विश्व विख्यात है. प्रदेश की परंपरागत वस्त्र रंगाई और छपाई के कुटीर उद्योगों में मारवाड़ का बंधेज, सांगानेर का बगरू और हाडौती की कोटा डोरिया दुनिया में मशहूर हैं लेकिन दक्षिणी राजस्थान में चित्तौड़गढ़ जिले के भूपालसागर तहसील में बसे आकोला गाँव की अपनी ख़ास पहचान और धूम है दाबू प्रिंट खासकर डार्क इंडिगो रंग के वस्त्रों के लिए जिसे यहाँ कारीगर पूरी तरह प्राकृतिक यानी वेजिटेबल, फ्रूट्स और प्लांट कलर्स से बनाते हैं. सब काम हाथों से होता है और गाँव के कारीगर किसी भी प्रकार की मशीन का उपयोग नहीं करते हैं. वस्त्र पूरी तरह से इको फ्रेंडली होने के साथ फ़ास्ट कलर्स के होते हैं जो आकोला गाँव की मिटटी और यहाँ बहने वाली बेडच नदी के रासायनिक गुणों के कारण वस्त्रों पर एकदम खिले खिले दिखते हैं और अलग ही चमक के कारण बरबस लोगों का मन मोह लेते हैं। जानकार बताते हैं कि वस्त्रों पर रंगाई छपाई की यह कला कई सदियों पुरानी है लेकिन आकोला में सौ वर्षों से पहले से छीपा समुदाय यह कार्य कर रहा है.
भूपालसागर तहसील का आकोला कस्बा उदयपुर और चित्तौड़ शहर के बीचों बीच स्थित है।दोनों तरफ़ से यह करीब 65 किलोमीटर दूर है। यहां छीपा जाति के लोग बसे हुए हैं और उनके द्वारा पारंपरिक रूप से टाई एंड डाई का कार्य किया जाता है। समुदाय के लोगों द्वारा किये जाने वाले इस विशेष प्रिंट ने इस छोटे से गाँव को इतनी ख्याति दिलाई है कि इसे छीपों-का- आकोला पुकारा जाता है। छीपा समुदाय ने इस पुश्तैनी ब्लॉक प्रिंट विशिष्ट कला को अभी भी सहेज रखा है. ऐसा माना जाता है कि छपाई का काम करने वाले लोग कालांतर में छीपा जाति के नाम से जाने गए.
यह मड रेजिस्टेंट आर्ट है और 'दाबु' का हिन्दी में अर्थ दबाना होता है। कपड़े पर मोहर दबाने की इस प्रक्रिया में एक मिश्रित पेस्ट का प्रयोग होता है जिसमें चूना, गोंद, गुड़, तेल, गेंहू एवं काली मिट्टी आदि को कुण्डे में मिलाया जाता है । साथ ही आकोला की पहचान यहां के इंडिगो रंग से है जो लगभग गहरा नीला होता है। वस्त्र रंगाई छपाई उद्योग से जुडे सभी व्यवसायी ये मानते है कि इंडिगो की जो प्रिंटिंग आकोला में उभरती है वो विश्व में अपनी अलग पहचान रखने वाली साबित हुई है। ये यहां की प्राकृतिक विशेषता ही है जो अपने प्राकृतिक रंगों की बदौलत आकोला को अलग पहचान दिलाती है।
आकोला में वस्त्र छपाई उद्योग की एक महत्वपूर्ण विशेषता इस इलाके का ' फेंट्या ' है। फेंट्या आकोला के आस-पास के ग्रामीण क्षेत्र की कृषक जातियों की स्त्रियों द्वारा पहने जाने वाला घाघरा है । चित्तौड़गढ़ के राजकीय महाविद्यालय, कपासन से समाज शास्त्र के रिटायर्ड प्रो. डॉ एच.एम. कोठारी, द मूकनायक को बताते हैं कि जाट, गायरी, माली, रेगर जाति की महिलाएं फेंट्ये पहनती हैं जिसकी लम्बाई अमूमन छ से बारह मीटर के बीच में होती है। मुख्यतः इसके दोनों किनारों पर बार्डर एवं बूटे होते हैं। यह लहंगे के स्थान पर पहना जाता है तथा लट्ठे के कपड़े पर इसकी रंगाई एवं छपाई होती है। इतना ही नहीं जाति के अनुसार उसका रंग एवं आकल्पन भी अलग-अलग होता हैं। यदि जाट एवं गायरी जाति की महिलाएं कटवा जाल का फेंट्या पहनती है तो रेगर जाति की नखल्या भांत का। वर्तमान में आकोला के वस्त्र छपाई उद्योग का लगभग दो तिहाई उत्पादन फेंट्ये का है। शादी ब्याह के बाद नव विवाहिताओं को उपहार स्वरूप यही दिया जाता है जो इन समुदायों की परंपरा का अभिन्न हिस्सा है। इसके साथ बंधेज की चुनरी ओढ़ी जाती है।
करीब चार पीढ़ियों से यह काम कर रहे गाँव के विख्यात कारीगर लक्ष्मीलाल छीपा से द मूकनायक ने दाबू प्रिंट और इंडिगो फेब्रिक्स तैयार करने की इस अनूठी कला पर बात की जिसकी डिमांड न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी है. लक्ष्मी लाल बताते हैं कि आकोला में कपड़ों की रंगाई से लेकर छपाई और धुलाई सभी काम हाथ से होते हैं. गाँव में छीपा समुदाय के करीब १२० परिवार हैं जो दाबू प्रिंट का ही कार्य करता है. " हमारे गाँव की विशेषता ही यही है कि हम सारा काम हाथों से करते हैं, कोई भी मशीन का इस्तेमाल नही होता है और केमिकल रंगों की बजाय हम प्राक्रतिक रंगों से वस्त्र तैयार करते हैं जो 100 फीसदी ईको फ्रेंडली होते हैं. कॉटन और सिल्क कपड़ों पर यह दाबू प्रिंटिंग की जाती है जिसकी साड़ियाँ , सलवार कमीज , दुपट्टे , कुर्ते वगेरह बहुत डिमांड में हैं.
सूती कपड़ा दक्षिणी प्रान्तों के शहरों और गुजरात मे सूरत से आता है। छीपा परिवारों की महिलाएं भी इस पुशतैनी काम मे पूरा सहयोग करती हैं। रंगाई से लेकर छपाई और कपड़ों को धोने और सुखाने में इनका साथ होता है। हालांकि महिलाएं अपने घरों की यूनिट्स में यह काम करती हैं। इन इकाईयों में स्थानीय युवाओं को रोजगार मिलता है लेकिन महिला कारीगर नौकरी करने के लिए आगे नहीं आई हैं।
लक्ष्मीलाल बताते हैं कि आकोला का नाम आज भी इको फ्रेडली छपाई से जुडा हुआ है। ये सभी रंग प्रकृति से प्राप्त होते है जैसे गुड़, अनार की छाल, सकुड़, केसुला, हरड़ा, हर सिंगार, गोंद, कोचा हल्दी, मजीठा, कत्था, रतनजोत, लोहे की जंग, मिट्टी, गोबर, मुल्तानी, खाखरे के पत्ते, छाबड़ी के पत्ते तथा गेरु आदी वनस्पति रंगों के साथ फिटकरी, सोड़ा, एलिजर, इंडिगो तथा नेफ्थोल का प्रयोग किया जाता है।
मिट्टी को पहले रात में गलाया जाता है, फिर उसे चूने के साथ रौंदा जाता है। फिर अलग से गोंद का पानी तैयार कर उसे मिलाकर पैरों से 2 से 3 घंटा रौंदकर उसे दो से तीन बार छाना जाता है।
इस मिट्टी को साफ किया जाता है, इसे दाबु कहते हैं। इनके पास लकड़ियों के अलग-अलग डिजाइन के ब्लॉक होते हैं। कपड़े को 4 बाय 27 फीट के एक टेबल पर बिछाया जाता है और उसके बाद ब्लॉक लगाया जाता है। जहां कलर नहीं चाहिए वहां हाइड करने के लिए दाबु लगाया जाता है। इसलिए इसे दाबु प्रिंट कहते हैं। फिर टाई एंड डाई कर कपड़ा तैयार किया जाता है।
गाँव में करीब 12-15 बड़े और माध्यम यूनिट हैं जिसमे 15 से लेकर 25-30 लोग तक प्रति यूनिट में काम करते हैं. हाथों से रंग घोला जाता है, कोई ग्लव्स नहीं इस्तेमाल करता क्योंकि यह पूरी तरह नेचुरल रंग होते हैं. " हम घंटों काम करते हैं. हाथों में रंग होता है. भोजन अवकाश में खाना खाते हैं तो कोई साबुन से हाथ नहीं धोता ना ही रंग मुंह में जाने पर किसी भी प्रकार की चिंता होती है, यह हमारे यहाँ बनने वाले वस्त्रों की सबसे बड़ी खासियत है ईको-फ्रेंडली और स्किन फ्रेंडली हैं. लक्ष्मी लाल बताते हैं कि दाबू प्रिंट परंपरागत और आधुनिक डिजाइन दोनों प्रकार में होती है.
गाँव में अधिकांश परिवार जिनकी संख्या 100 से भी ज्यादा है ट्रेडिशनल मोटिफ के डिजाइन का काम करता है जिसकी डिमांड लोकल में अधिक है. यह मोटे कपड़ों पर बनता है जबकि मॉडर्न डिजायन में बारीक प्रिंटिंग का काम होता है जो सूती और सिल्क में होता है. वे बताते हैं दाबू प्रिंट की सूती साड़ियां 850 से 1200 रुपयों की रेंज में पड़ती है जबकि सिल्क साड़ियां 1800 से 2800 रुपयों तक में बनती है। कॉटन कपड़ा 200 रुपये प्रति मीटर और सिल्क 500 रुपये प्रति मीटर तक में बेची जाती है। दाबू प्रिंट की चादरें भी बनती हैं।
कारीगर पुरुषोत्तम छीपा बताते हैं कि एक जमाने में भारत में उत्पन्न होने वाला नील दुनिया भर में मशहूर था . लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद उन्होंने फूट डालने और भारत के नील का डिमांड घटाने के लिए इस किस्म को जमीन की उर्वरकता के लिए खराब बताते हुए 'जर्मन इंडिगो' का प्रचार किया जबकि विदेशी किस्म का नील भारत के नील से कमतर था. उन्होंने बताया कि गाँव में नील की खेती को बढ़ावा देने के लिए प्रयास किये जा रहे हैं और कारीगर अपने खेतों में इसके पौधे लगा रहे हैं. "नील एक नगदी फसल होती है जिसके बीज बेचने से किसानों को खासा मुनाफ़ा हो सकता है. चूँकि आकोला में भारी तादाद में नील प्रिंट के कपड़े बनते हैं, ऐसे में किसानों को अपना माल बेचने के लिए बाहर बाजार तलाश करने की भी जरूरत नही होगी। यहां के वस्त्र छपाई यूनिट ही सबसे बड़े क्रेता बन जायेंगे", पुरुषोत्तम कहते हैं।
गाँव के सबसे बुजुर्ग कारीगरों में 82 वर्षीय किशनलाल कहते हैं कि इस कला में बहुत मेहनत लगती हैं, कारीगर 9 से 12 घंटों तक श्रम करके रंग का घोल तैयार करते हैं, छपाई होती है, वस्त्रों को धोते और सुखाते हैं. 4-5 लोग मिलकर एक दिन काम करते हैं तब जाकर 60-70 लीटर घोल तैयार होता है. पूरा परिवार काम में लगता है. नामी गिरामी संस्थानों के जॉब आर्डर मिलते हैं, कई यूनिट्स में बड़ी तादाद में आर्डर तैयार किये जाते हैं लेकिन इन सबके अनुपात में आकोला की दाबू कला को वो ख्याति नहीं मिली है जो उसे मिलनी चाहिए।
दो वर्ष पूर्व उद्योग विभाग ने इस यूनिक काम को विशिष्ट पहचान दिलाने के ध्येय से GI (ज्योग्राफिकल इंडिकेशन) से जोड़ने के लिए प्रपोजल भिजवाया था लेकिन अधिकारियों के स्थानांतरण के कारण यह कार्य पूर्ण नहीं हो सका । यदि जीआई टैग मिल जाए तो इसकी अंतर्राष्ट्रीय पहचान में वृद्धि हो सकेगी.
कारीगर अनिल शासवाल बताते हैं कि राजस्थान के कुटीर उद्योगों को प्रमोट करने हेतु वर्ष 2006 में 26 कलस्टर में से आकोला भी एक कलस्टर के रुप में चुना गया था जहां बंधेज और दाबु ब्लोक छपाई को प्राथमिकता से चिन्हित भी किया गया। राजस्थान सरकार ने उद्योग विभाग के निर्देशन में वर्ष 2007 में कारीगरों को प्रशिक्षण भी कराया गया।
राज्य सरकार ने यहां 55 लाख की लागत से सी.एफ.सी. (कोमन फेसिलिटी सेन्टर) को वर्ष 2007 में प्रारंभ किया गया। लेकिन कारीगर मानते हैं कि दाबू प्रिंट के वस्त्रों की मार्केटिंग प्रभावी नहीं है जिसके कारण कस्टमर बेस बढ़ नही सका है। लक्ष्मीलाल कहते हैं अभी हम लोग जॉब वर्क ज्यादा करते हैं जिसका फायदा बिचैलियों को होता है। यदि राज्य सरकार एक प्लेटफार्म उपलब्ध करवा दें जहां खरीददार सीधे हमें आर्डर कर सके तो हमें अपने परिश्रम का उचित मूल्य मिलेगा और खरीददार को उत्पाद अपेक्षाकृत सस्ते मिलेंगे-दोनो पक्षों को इसका फायदा होगा।
लक्ष्मीलाल बताते हैं उनके परिवार की चौथी पीढ़ी यह काम कर रही है। दादा और पिता से उन्होंने यह काम सीख लिया लेकिन उनके बड़े भाई ने इस कला को नही अपनाया। लक्ष्मी लाल कहते हैं यह काम कड़ी मेहनत और धैर्य का है। दिनभर रंगों में हाथ पांव रंगे रहते हैं, जब ऑर्डर लगे होते हैं वर्क लोड बहुत ज्यादा होता है। पढ़ाई लिखाई के बाद नई पीढ़ी यह काम नहीं करना चाहती। इसके अलावा भट्टी से निकलने वाली राख से स्वास्थ्य की समस्या होती है और एक उम्र के बाद शरीर भी इस कड़े परिश्रम के कार्य को करने में सक्षम नही रहता, ऐसे में नए कारीगर तैयार करना, उन्हें इस कला की बारीकियों के लिए प्रशिक्षित करने के लिए भी सरकारी स्तर पर प्रयास जरूरी हैं।
वर्तमान समय में आकोला की वस्त्र छपाई का उद्योग अनेक समस्याओं से प्रभावित है जिनमें से एक गंभीर समस्या पानी के अभाव की है। इस उद्योग को प्रचुर मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है। पूर्व में इसके लिए एक बड़ा स्त्रोत बेड़च नदी था, किन्तु वर्तमान में यहां के कामगार पानी की समस्या से परेशान है क्योंकि बेड़च सालभर बहने वाली नदी नहीं रही। दूसरी समस्या ये कि फैशन एवं बाजा़र की तड़क भड़क के इस दौर में परम्परात्मक वस्त्रों की घटती मांग की है। छोटे स्तर पर हो रहे इस मेहनतभरे काम में आय की गुंजाईश तो है मगर फिर भी और प्रोत्साहन की ज़रूरत है। इसका समाधान यहां के कामगारों को वर्तमान की मांग के आधार पर उत्पादन के प्रशिक्षण में निहित है।
डॉ एच.एम. कोठारी कहते हैं भूमण्डलीकरण के इस दौर में परम्परागत शैली की अपनी यह आकोला दाबु छपाई हालांकि बाज़ार से अभी भी लड़ रही है मगर इन मझले कारीगरों की अपनी सीमाएं हैं। नवीन दिशाएं तलाशी जा रही है, युवा अपनी पढ़ाई का उपयोग इस काम में करना सीख रहे हैं।इंटरनेट और ऑनलाइन ट्रेडिंग के समीकरण भी यहाँ के कुछ युवा समझने लगे हैं ये सभी कुछ सकारात्मक संकेत हैं।
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