भारतीय समाज ने जैसे जातिवाद, छुआछूत को जन्मा और पाला, ठीक वैसे ही, लिंग आधारित हिंसा और भेदभाव को प्रजनित कर परम्परागत रूप दिया। सरल शब्दों में कहें तो स्त्री और पुरुष में किसी एक को अपमानित, शोषित और पीड़ित करना ही लिंग आधारित हिंसा और भेदभाव है। यदि भारत में लिंग हिंसा और भेदभाव को देखा जाए तो ये सदियों से अधिकांशतः स्त्रियों के साथ किया गया है। जिसके लिए पितृसत्ता और पुरुषवादी मनोवृत्ति जिम्मेदार रही है।
ऐसे में कई बार देश में लिंग आधारित हिंसा और भेदभाव के खिलाफ संघर्ष की आहट सुनाई तो दी, लेकिन प्रतीति तब हुई, जब पुनर्जागरण के अग्रदूत राजा राममोहन के प्रयासों से सन् 1829 में सती प्रथा का अंत हुआ। आगे समाज सुधार आंदोलनों से भी स्त्री-पुरुष समानतत्व को कुछ बल मिला। फिर जब 1947 में ब्रिटिश दासता से मुल्क आजाद हुआ। तब देश चलाने के लिए भारतीय संविधान लिखा और लागू किया गया। जिसके अनुच्छेद 15 में वर्णित किया गया कि राज्य किसी नागरिक के विरुध्द केवल धर्म, जाति, लिंग किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। लेकिन आजादी के 75 वर्ष उपरांत, जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। तब विचार करने योग्य है कि महिलाओं के प्रति लिंग आधारित भेदभाव कितने प्रतिशत कम हुआ और कितना बड़ा है?
संविधान की उद्देशिका में स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुता, जैसे संवैधानिक मूल्य दर्ज किए गए, लेकिन महिलाओं के साथ लिंग आधारित हिंसा और भेदभाव खत्म करने लिए इन मूल्यों का कितना पालन किया गया? खासतौर पर उस ग्रामीण भारत में, जिस भारत को प्राचीन कल्प से गांव का देश कहा जाता है। शायद! उतना नहीं, जितना संविधान निर्माताओं ने परिकल्पना की होगी। इसलिए आज भी हमें गांव में दिखाई देता है कि महिलाओं को घूँघट प्रथा, स्त्री शिक्षा में कमी, बाल विवाह, माहवारी में छुआछूत, शारीरिक और मानसिक शोषण से पीड़ित करके रखा गया है। वहीं, स्त्री- पुरुष में भेदभाव तब से देखने मिलता है जब किसी के घर लड़का और किसी के घर लड़की जन्म लेती है।
भारत के बहुतेरे गांव में दशा यह है कि खुद को ऊंची जाति का समझने वाले लोगों के सामने दलित या अन्य महिलाएं को खुद के पैर की चप्पल हाथ में लेकर जाना पड़ता है। आज भी महिलाएं रहेगी कैसे? पहनेगी क्या? खाना क्या बनायेगी? काम क्या करेगी? जायेगी कहां? किससे बात कर सकती है? यह सब पुरुष तय करता है। जिससे साबित होता है कि महिला एक महिला नहीं पुरुष की सम्पत्ति है। यहां तक कि स्त्री के सिर पर सिंदूर लगाने से लेकर, बाल कितने लंबे रखेगी? नाक, कान, शरीर पर गहने कितने पहनेगी? सब पुरुष प्रधान समाज की ही देन है। जिससे यह प्रतीति होता है कि देश तो आजाद हो गया, लेकिन महिलाओं को रीति-रिवाज और संस्कृति के नाम पर मुलाज़िम बनाए रखा गया। कई घटनाएं ऐसी सामने आती है कि पुरुष अपनी जीविका का साधन समझते हुए पैसे के लिए महिलाओं का शारीरिक शोषण करवाते हैं और इज्जत की खातिर इसे दबाये रखा जाता है।
वहीं राजनैतिक क्षेत्र में विधानसभा, संसद अन्य राजनैतिक स्थानों में महिलाओं के पदों का प्रतिशत कितना? क्या यहां लिंग आधारित भेदभाव नजर नहीं आता? राजनैतिक पदों की छोटी इकाई सरपंच के पद पर यदि कोई महिला जीत दर्ज करती है। तब सरपंच का पद महिला को मिलता है। लेकिन सरपंची चलाता महिला का पति (पुरुष) है।
गांव में हालात इतने बदत्तर हैं कि आज भी यदि कोई महिला बांझ है तो उसके हाथ से लोग पानी नहीं पीते। महिला जूठे मुंह कुछ खाने-पीने का पदार्थ छू ले, तब पुरुष उसे खाना पसंद नहीं करते।
विचारणीय है कि आधुनिक युग में एक दुनियां वो है जो चांद पर पहुंच चुकी। दूसरी वो महिलाओं की दुनिया है, जिनके जीवन जीने की स्वतंत्रता पुरुष प्रधान समाज तय करता है। इस विकट दशा में भी हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं।
वहीं, जब खासतौर पर गांव में महिलाओं के विरुध्द लिंग आधारित भेदभाव रोकने के लिए यदि गांव का कोई शिक्षित परिवार सामने आता है। तब समाज ऐसे परिवार का हुक्का-पानी बंद कर देता है और उसके साथ मारपीट भी करता है। इससे ज्ञात यह होता है कि संविधान ने महिलाओं के लिए जो अधिकार दिए, कानूनों और दिशा-निर्देशों को बनाया उन पर आज भी समाजिक कुप्रथाएं और परम्पराएं हावी हैं।
जब हम महिलाओं के प्रति लिंग आधारित भेदभाव के साथ हिंसा की बात करें। तब हमें यह समझने की दरकार है कि महिलाओं के साथ हिंसा भी एक कुप्रथा जैसी है जो सदियों से इसलिए बनायी रखी गयी है कि पुरुषों का वर्चस्व कायम रह सके।
महिलाओं के साथ लिंग आधारित हिंसा अक्सर घरेलू हिंसा होती है जो कभी-कभार मीडिया की सुर्खी बन पाती है। ऐसी हिंसा ग्रामीण परिवेश में अधिक की जाती है। जो परिवार टूटने के डर से दबायी भी जाती है।
महिलाओं द्वारा सामाजिक प्रथाएं न मानने, बिना पूछे समाज में बात करने, घर का काम न करने, यहां तक अच्छा खाना न बनाने पर भी, पति, सास, ससुर अन्य परिवारिक सदस्य द्वारा उन्हें (महिलाओं को) मारा-पीटा और प्रताड़ित किया जाता है जो सरासर महिलाओं के मूल, नागरिक अधिकार, मानवाधिकारों का हनन है।
भारत में यदि हम महिला हिंसा के आंकड़ों पर गौर फरमाएं तब एनसीआरबी का डेटा बताता है कि, वर्ष 2021 में देश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा के 4 लाख 28 हजार 278 केस दर्ज हुए। ऐसे में रोजाना महिलाओं के साथ रेप के 86 केस दर्ज किए जाते हैं। अपराध के औसतन एक घंटे में 49 दर्ज किये जाते हैं। हम वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक में भारत की स्थिति देखें तब मालूम होता है कि लैंगिक अंतराल सूचकांक 2020 में भारत 153 देशों में 112वें स्थान पर रहा।
वहीं एसबीआई इकोरैप की रिपोर्ट का दावा है कि कोरोना काल में महिलाओं के खिलाफ 15.3 प्रतिशत अत्याचार बड़े हैं। इसी वर्ष महिलाओं को पूर्ण सम्मान देने की स्थिति में भारत 123वें स्थान पर भी रहा।
महिलाओं के खिलाफ लिंग आधारित भेदभाव और हिंसा के विभिन्न गंभीर मुद्दों और आकड़ों पर गौर करने के पश्चात यह प्रश्न उत्पन्न होना लाजमी है कि सरकारों ने महिला लिंग आधारित हिंसा और भेदभाव खत्म करने के क्या फलीभूत प्रयास किये? किये तो कितने प्रतिशत किये? अगर इसका अच्छा परिणाम रहा तब महिला हिंसा के आकड़ों में इजाफा क्यों हो रहा है? भारतीय संविधान में तो सामाजिक न्याय की बात की गयी है, लेकिन असलियत में क्या समाज और सरकार महिलाओं को समाजिक न्याय दे पायी? शायद नहीं।
महिला लिंग आधारित हिंसा और भेदभाव को खत्म कैसे किया जाए? इस पर विचार करें, तब हमें यह समझना आवश्यक है कि समाज की मनोदशा को सदियों से बीमार करके रखा गया है। जिसे स्वस्थ करने के लिए सरकार को अलग से कानून बनाना और उस पर जमीनी स्तर तक प्रभावी कार्य, जागरुकता करना अपरिहार्य है। जिससे समाज यह स्वीकार कर सकने की स्थिति में आ सके कि, मानव समाज में महिलाएं स्वतंत्र पैदा हुई हैं और उन्हें गरिमापूर्ण जीने का प्राकृतिक अधिकार है। अगर इस स्वस्थ मानसिकता की दृढ़ता के लिए फलीभूत प्रयास किया गया। तब सही मायनों में देश प्रेम की भावनाओं को बल मिलेगा और हम खुशी-खुशी आजादी का अमृत महोत्सव मना सकेंगे।
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