कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा अपने अंतिम पड़ाव पर है और राहुल गांधी आत्मविश्वास से भरे दिख रहे हैं, ऐसे में उनके सलाहकार अति उत्साह और जल्दबाजी में उन्हें महा-मानव साबित करने में जुटे हैं। लेकिन असली चुनौतियां और राजनीतिक नफा-नुकसान का आकलन इस यात्रा से नहीं बल्कि 2024 के परिणाम से किया जाएगा।
भारत जोड़ो यात्रा से राहुल गांधी के आत्मविश्वास में बढ़ोतरी हुई है और इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता की राहुल गांधी का राजनीतिक कद बढ़ा है। लेकिन आपकी एक छोटी सी गलती आपको फिर वहीं लाकर खड़ा कर देगी जहां से आप चले थे। उदाहरण के तौर पर यूपीए-2 में राहुल गांधी का अपने ही सरकार के खिलाफ खड़ा हो जाना कांग्रेस की छवि पर एक बड़ा धब्बा था और उस घटना ने देश में राहुल की छवि को एक हद तक खराब भी किया। 2014 और 2019 की भयंकर विफलता के बाद राहुल गांधी को रिलॉन्च कर उनकी छवि सुधारने की कोशिश की जा रही है तो फिर रणनीतिकार या खुद राहुल गांधी द्वारा अति उत्साह दिखाते हुए अपने ही भाई वरुण गांधी पर बयानबाजी को एक बड़ी चूक की तरह देखा जा सकता है।
वरुण गांधी पिछले कुछ सालों से जन सरोकार के मुद्दे पर अपनी ही सरकार को घेरते हुए नजर आ रहें हैं और भाजपा सांसद रहते हुए किसान हित, एमएसपी, बेरोजगारी तथा अग्निवीर जैसी स्कीम पर अपनी ही सरकार का खुल कर विरोध करते देखे गए हैं। ऐसे में ये कयास लगाया जाना गलत नहीं था की वह भाजपा छोड़ किसी अन्य पार्टी में जाने की तयारी में हैं।
कयासों का दौर चला सोशल मीडिया और मीडिया में ये चर्चा आम हो गई की वरुण गांधी शायद कांग्रेस में शामिल हो जाएं। वहीं दूसरी ओर राहुल गांधी की नफरत मिटाओ, भाई को भाई से मिलाओ जैसे भाषणों ने इस कयास को और बल दे दिया की शायद अब वरुण गांधी कांग्रेस में शामिल होंगे। हालांकि वरुण गांधी ने सार्वजनिक तौर पर कभी ऐसी बात नहीं कही और ना ही वह किसी कांग्रेस नेता से मिलते नजर आए, लेकिन मीडिया के सूत्र अपने कयासों पर सवाल पूछते रहे।
इसी क्रम में एक सवाल के जवाब में राहुल गांधी ने वरुण गांधी को आरएसएस विचारधारा वाला बता दिया और साथ ही साथ पार्टी ने उन्हें ना लेने की घोषणा करते हुए यह भी कह डाला की उन्होंने वरुण गांधी को अपने परिवार का इतिहास पढ़ने के लिए कहा था।
गौरतलब बात यह है कि वरुण के शामिल होने पर फैसला पार्टी अध्यक्ष को करने देते, न की खुद ही अपने भाई की छवि धूमिल करने की कोशिश करते। एक तरफ राहुल गांधी नफरत मिटाने की बात करते है वहीं दूसरी ओर आइडियोलॉजी की दुहाई दे वरुण गांधी को पार्टी में न शामिल करने की घोषणा कर रहे।
पिछले दस सालों में सैकड़ों जगहों पर कांग्रेस ने अपनी आइडियोलॉजी से भटकती नजर आई है। इसका एक बड़ा उदहारण शिव सेना के साथ कांग्रेस का गठजोड़ है। अगर हम राहुल की विचारधारा की बात करें तो वह अपने कैरियर के शुरुआती दस सालों में शायद ही किसी मंदिर में गए होंगे, लेकिन पिछले कुछ सालों में उन्होंने खुद को जनेऊधारी, तपस्वी, शिवभक्त आदि साबित करने की मुखर कोशिश करते हुए देश के सैकड़ों मंदिर के दौरे कर डालें। ऐसे में सवाल यह उठता है कि परेशानी विचारधारा से है या फिर मसला कुछ और है?
हालांकि वरुण ने कभी अपने मुंह से नहीं कहा कि वह कोंग्रेस में जाना चाहते हैं, लेकिन फिर भी अगर वह कांग्रेस में शामिल होते तो कांग्रेस को उत्तर भारत में खासी मजबूती मिलती जहां फिलहाल कांग्रेस फिसड्डी है। जैसा कि हम सब जानते हैं की उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, दिल्ली, पंजाब, जम्मू और कश्मीर में पार्टी की स्थिति दयनीय है।
राजनैतिक पंडितों का मानना है उनके आने से कांग्रेस की स्थिती इन प्रदेश में मजबूत हो सकती थी और वह पार्टी को पुनः जीवित करने में अहम भूमिका निभा सकते थे। अतः सवाल यह उठता है क्या राहुल गांधी ने जल्दबाजी, असुरक्षा और अति उत्साह में एक बड़ी राजनीतिक गलती कर दी? वहीं दूसरी ओर एक सवाल और है कि वरुण गांधी जब अपने राजनैतिक पत्ते कब खोलेंगे?
लेख, डॉ. मेराज हुसैन (पूर्व सदस्य, सेंसर बोर्ड, राजनीतिक विश्लेषक एवं कांग्रेस सदस्य)
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