OPINION: आदिवासी महिला किसी की बपौती नहीं, याद रखें

आदिवासी महिलाएं
आदिवासी महिलाएंसांकेतिक फोटो
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बीजेपी से जो ज्ञान देव कुमार धान जी सीख कर आए हैं- "नारी नर्क का द्वार है", "जहन्नुम का रास्ता होती हैं औरतें", "सम्मान की पगड़ी होती है स्त्रियां", "मान सम्मान हैं ये महिलाएं, दूसरे जात धर्म में जाये तो 'खाप' की तरह काट डालो" आदि आदि ख्यालातों को वह आदिवासी समाज में भी लाने को तैयार बैठे हैं।

सरना धर्म कोड की जायज मांग के साथ आदिवासी महिला के साथ होने वाली हिंसा को यह लोग प्रोवोक कर रहे। यही वे लोग होंगे जो आदिवासी समाज में भ्रूण हत्या लेकर आयेंगे, यही वे लोग होंगे, जो बेटियों को प्रेम प्रसंग के नाम पर मारेंगे। यही वे लोग होंगे जो दहेज को आदिवासी समाज का हिस्सा बनायेंगे। यही वे लोग होंगे जो महिलाओं को सिर की पगड़ी बता कर ऑनर किलिंग के लिए समाज को उकसाएंगे।

क्या आदमी भविष्य भी नहीं देख पा रहा? बाबूलाल मरांडी, जो डेमोग्राफी के ऊपर कह रहे हैं, उसी को यह आगे नहीं बढ़ा रहे? चंपई सोरेन पर तो हमला आसान है, एल. हेमब्रॉम्ब पर तो हमला आसान है, पर ये लोग क्या भाजपा के प्यादे से बढ़ कर काम नहीं कर रहे?

आदिवासी महिला कोई सामान है, जैसे ये लोग आदिवासी महिला के ऊपर बात करते हैं। बाजार और कई संगठित धर्मों ने तो महिलाओं के विरुद्ध अपने नजरें रखी ही हैं अब ये आदिवासी समाज के तथाकथित नेता आदिवासी महिलाओं के साथ हिंसा करने को फिर तैयार बैठे रहे। भावी पीढ़ियों को खाप बनने, ऑनर किलिंग करने को प्रेरित कर रहे हैं।

2014 वेस्ट बंगाल के वीरभूम में जो संथाल वूमेन को दिक्कू से शादी के नाम पर 50 हज़ार का जुर्माना तय किया गया, गरीब महिला ने नहीं दिया तो 13 लोगों ने उसके साथ गैंग रेप किया।

क्या ऐसा आदिवासी समाज बनाना चाहता है खुद को? यह आदिवासी समाज का लक्षण नहीं है। इतने अमानवीय हम नहीं हैं।

याद रखें, आप सभी के रोज की इन हरकतों से आदिवासी महिलाएं असुरक्षित हो रही हैं। अपने ही घर में, अपने ही परिवार में, अपने ही समाज में। दूसरे समाज का डर दिखा कर उन्हें मानसिक रूप से कमजोर बताना, यह कहां की समझदारी है ?

आदिवासी समाज में जो समानता, जेंडर को लेकर लंबे से से रही है उसे आप और हम खराब न करें। जो वास्तविक समस्या है, उसके लिए लड़ने को तैयार हों।

उसके मूल जड़ तक पहुंच कर उसे ठीक करने की दिशा में आगे बढ़े नाकि इस प्रकार की भद्दी मांगों के साथ आदिवासी महिला की प्रतिष्ठा को सरे आम जार जार करें।

एक दो तीन चार किस्सों को सामने रखकर यह बताने की कोशिश कि यही सबसे बड़ी समस्या है और कुछ नहीं तो सावधान हो जाएं।

आदिवासी समाज को आपकी मंशा और चरित्र का बखूबी पता है। एक थप्पड़ को आप बहुत बड़ी बात बता कर उससे निपटने को तो कमर कस रहे हैं, लेकिन विस्थापन, शोषण, बेरोजगारी, पॉपुलेशन का सही रजिस्टर न हो पाना, बेदखली, सत्ता व पूंजीपतियों के द्वारा जमीन लूट आदि तो दिखायी ही नहीं पड़ रहा!

जो आपका अस्तित्व बुलडोज करने तलवार-भाले , तोप और बम लिये आ रहे हैं, आप उनसे जूझने को तैयार नहीं। आपको चिंता है कि मुझे इसने च्योंटी काटी, उसने मुझे गाली दी, वह मुझे थप्पड़ मार रहा है आदि आदि। लेकिन सही जगह जहां लड़ना है, वहां के लिए आपकी सामर्थ्य सरेंडर कर देती है।

खुद समाज सहित बच लीजिए, फिर आदिवासी महिलाओं को बचाने का ठेका, उनकी नौकरियों का ठेका, उनके रिजर्व्ड सीट का ठेका आदि देखिएगा।

पहले इन सवालों का जवाब दें-

कितनी आदिवासी महिलाएं ऐसी हैं, जो दिक्कू से शादी कर विधानसभा में हैं? कितनी ऐसी महिलाएं हैं जो संसद में हैं? कितनी ऐसी आदिवासी महिलाएं हैं जो मेयर के पद पर हैं? ‘अनगिनत’! यह अंगुल में गिने जाने लायक नाम? या कोई नाम नहीं? फिर यह सवाल इतना बड़ा करके क्यों दिखाया जा रहा है? क्या है आपकी मंशा? क्या है आपकी पॉलिटिक्स? क्या है जो आप छुपाना चाहते हैं ?

कृपया आदिवासी महिलाओं के साथ यह भाषिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, मानसिक हिंसा बंद करें। सती प्रथा को सेलिब्रेट करने वाली संस्कृति के साथ आपके राजनैतिक संबंध रहे, आपने उसी चश्मे से देखते हुए आदिवासी महिलाओं की गरिमा को हानि पहुंचाई है।

आपको माफी पब्लिसन मांगनी पड़ेगी।

आपकी भाषा बोलने वाले आज सैकड़ों लोग मिल जाएंगे, कृपया आदिवासी लड़कों को आदिवासी लड़कियों के खिलाफ खड़ा करके अपनी हल्की राजनीति को हवा मत दीजिए।

समस्या अगर दिख रही है कि आदिवासी लड़कियां जाति से बाहर शादी कर रही हैं, तो उसके मूल कारणों को खोजें। उस पर काम करें। मैं ऐसी शादियों को बढ़ावा देने वाली कोई नहीं। ना ही ऐसी शादियों के खिलाफ झंडा ढोने वाली हूं। मुझे फर्क बस इस बात से पड़ता है कि आदिवासी महिलाओं का भविष्य इन चिल्लर हरकतों से दूरगामी प्रभाव बनायेंगे। आदिवासी महिलाएं अपने ही समाज में हिंसा को भोगेंगी। इसी से इन्हें बचाना चाहती हूं और आप सभी को एक स्ट्रॉन्ग ‘ना’ कहना चाहती हूं।

आदिवासी समाज में पहले भी ऐसे शादियों के लिए सामाजिक बहिष्कार ही आज तक मैक्सिमम पनिशमेंट होता था, उसकी जाति, उसकी रोटी छीनने की भद्दी राजनीति कोई नही करता था। अतः कृपया इस घटिया सोच से बाहर आइये। आदिवासी फेमिनिज्म को ललकारने की जहमत मत उठाइए।

जन्म से मिले अधिकार को संविधान भी संरक्षण देता है, आप जैसे लोगों की मंशा में स्त्री कमतर है, पर संविधान और न्याय के सामने नहीं।

मधुमक्खी के छत्ते हैं हम सब, हाथ मत डालिये। नुकसान आपको उठाना पड़ेगा। याद रखें, आदिवासी वोट बैंक में आदिवासी महिलाएं पुरुषों से ज्यादा है। हमारे साथ अन्याय करने में आगे आये तो नुकसान ही भोगेंगे।

सावधान!

इस पर्चे में भी आप सभी ‘समस्त आदिवासी संगठन’ लिखते हैं! हद बेहयाई है यह। कोई आदिवासी महिला संगठन ऐसे कारणों पर आपके साथ नहीं है।

हमें मजबूर न करें कि आप कालिख पुता हुआ मुंह लिये घूमते दिखाई दें।

हम महिलाएं सृजन करती हैं। विध्वंस न देखना पड़े, इसकी आस लगाइए।

लेखक- नीतिशा खलखो एक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।
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