Opinion: स्त्री मुक्ति का सवाल और डॉ. अंबेडकर

डॉ. अंबेडकर
डॉ. अंबेडकर
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दलितों की तरह ही भारत में स्त्री पराधीनता का इतिहास है। लेकिन भारत में आर्यों के आक्रमण के पूर्व स्त्रियों की स्थिति काफी अच्छी थी, ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि मोहनजोदड़ों और हड़प्पाकालीन परिवार मातृसत्तात्मक थे। उनकी तत्कालीन स्थिति सम्मानजनक थी। उस दौरान पिता से ज्यादा माता के पद को ऊँचा और पवित्र समझा जाता था। लेकिन कृषि व्यवस्था के शुरू होते ही स्त्रियाँ समाज में संसाधनों पर आधा हिस्सेदार होते हुए भी उन्हें चारदीवारी के भीतर कैद करके रख दिया गया। इस कदर उनपर पितृसत्तात्मक मूल्य उनपर हावी हो गए कि उन्होंने अपना निजी अधिकार भी खो दिया। परंतु समय-समय पर उनके अधिकारों के लिए आवाज उठती रही है। विशेषकर आधुनिक काल में जैसे सावित्रीबाइ फुले, फातिमा शेख, पंडिता रमाबाई आदि ने तो कभी पुरुषों में ज्योतिबा फुले, राजा राममोहन राय आदि। इन्हीं में एक और सशक्त व्यक्ति बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का नाम आदर से लिया जाता है। उन्होंने स्त्री संबंधी समस्याओं को गंभीरता से लिया और समाधान के लिए उल्लेखनीय कार्य किया। उन्होंने सामाजिक असमानता को बढ़ावा देने वाली कुप्रथाओं को धर्म का चोला पहनाएं जाने की चालाकी को बेपर्दा किया और स्वतंत्रता, समानता के मूल्यों के साथ सामाजिक न्याय पर आधारित समाज की कल्पना की।

शुरू में तथागत बुद्ध ने समान दृष्टि से माहिलाओं को देखते हुए, अपने संघ में पुरुषों के साथ माहिलाओं का भी स्वागत किया। कालांतर में इसमें परिवर्तन आया और गुप्तकाल के दौरान ब्राहमणवाद का व्यापक प्रसार बढ़ा तो उनकी स्थित में अमूलचूल परिवर्तन आया, उनके प्रति नकारात्मक दृष्टि ने जगह ली। वे हीनभावना, असमानता और तिरस्कार का शिकार हो गईं। 

माहिलाओं की इस पीड़ा को आधुनिक भारत के निर्माता, संविधान शिल्पी डॉ भीमराव अंबेडकर ने समझा और उसे आंदोलन, कानून आदि माध्यमों से सुधारने का सफल प्रयास किया। अंबेडकर हिन्दू धर्म की संरचना को बिल्कुल नापसंद करते थे. उनका मानना था कि समाज में असमानता और भेदभाव का मूल हिन्दू धर्म ग्रंथ है। इसलिए उन्होंने  मनु द्वारा रचित मनुस्मृति को 1927 में महाड़ आंदोलन के दौरान जलाया। दरअसल मनुस्मृति असमानता को बढ़ावा देता है। निम्न श्लोक स्त्री की स्थिति को स्पष्ट करते हैं-

बाल्ये पितुर्वशे तिष्ठेत्पणि ग्राहस्य यौवने।

पुत्राणां भर्तरिप्रेते न भजेत्स्त्री स्वतंत्र स्वतंत्रतामे। 5-148 

अर्थात नारी बचपन में पिता के अधीन, यौवनावस्था में पति के अधीन और पति के देहावसान के बाद पुत्रों के अधीन रहे। काभी भी स्वतंत्र न रहे।

अस्वतंत्रयाः स्त्रीयः कार्या पुरुषः स्वैदिवी निशम।

विष्येषुः च सज्जन्त्ः संस्थप्या आत्मनौ वशै।। 9-2 

अर्थात पुरुषों को अपनी स्त्रियों को काभी स्वतंत्रता नहीं देनी चाहिए। स्त्रियाँ रूपरसादी में आसक्त हों तो भी उन्हें अपने वश में रखना चाहिए।

यस्मै दधत्पिनां त्वेना भ्रता वानुमले पितुः। 

ते शुश्रुषत जीवंत संस्थित च न लडध्येत ।। 5-51   

अर्थात पिता की आज्ञा से भाई जिस पुरुष का हाथ पकड़ा दे, स्त्री जीवित अवस्था में जी-जान से उसकी सेवा करे और मरने पर भी धर्म का उल्लंघन न करे।

ऐसे ही अनेक श्लोक हैं 5-168 ,9-14, 8-37 आदि आदि जो स्त्रियों की  स्वतंत्रता और समानता पर हमला करते हैं। उनको समाज में दोयम दर्जे का नागरिक बना देते  हैं । डॉ अंबेडकर ने इस धर्मग्रंथ को जलाकर जो असमानताओं को कानूनी वैधता देता था। समानता, सामाजिक और लैंगिक न्याय का संदेश दिया। यही ग्रंथ उन तमाम प्रथाओं की जननी है जिसके चलते स्त्रियों की स्थित  दयनीय होती चली गई जैसे, बाल विवाह, दहेज प्रथा,सती प्रथा और देवदासी प्रथा आदि।

किसी  भी समाज में शिक्षित वर्ग समाज की दशा और दिशा दोनों बदलता है, खासकर उस समाज के लोग तो और जिन्हें मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखा गया हो। भारतीय समाज में करीब 3000 हजार साल से दलित और माहिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा गया। उसका परिणाम यह हुआ कि सवर्ण वर्ग ने अपने मनचाहे ढंग से उनका इस्तेमाल किया। डॉ अंबेडकर ने शिक्षा की शक्ति को समझा और संदेश दिया कि, “शिक्षा वह शेरनी का दूध है, जो पिएगा वह दहाड़ेगा”। इसलिए उन्होंने शुरू से ही स्त्री शिक्षा की वकालत की और कहा,- नारी शिक्षा पुरुष शिक्षा से भी अधिक आवश्यक है। वह राष्ट्र के भावी निर्माताओं का निर्माण करने की महती भूमिका निभाती है, किन्तु मनु जैसे स्मृतिकारों ने नारी को मूक  पशु की तरह रखने के लिय उन्हें शिक्षा से वंचित रखने की राष्ट्रघाती नीति आपनाई”। स्त्रियों की  सही दिशा में उन्नति और प्रगति हो और समाज में स्त्री और पुरुषों में समानता आए इसके लिए संदेश दिया कि- “समाज की उन्नति का अनुमान इस बात से लगाता हूँ कि उस समाज में माहिलाओं की कितनी प्रगति हुई है। नारी की उन्नति के बिना समाज एवं राष्ट्र की उन्नति असंभव है”। नारी प्रगति को समाज की प्रगति मानने वाले डॉ अंबेडकर ने एक महिला सभा में संबोधित करते हुए उन्हें ”राष्ट्र की निर्मात्री” का दर्जा दिया था।

विडंबना देखिए, जो राष्ट्र निर्मात्री हैं, उन्हें राष्ट्र के मंदिरों में भी प्रवेश करने के लिए संघर्ष करना पड़ा और वर्तमान में भी करना पड़ रहा है। अतीत में देखें तो 12 अक्टूबर 1929 को पुणे के पार्वती मंदिर में दलित स्त्रियों के प्रवेश हेतु आंदोलन किया जिसमें नानाबाई कांबले ने हजारों माहिलाओं के साथ बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। ये लड़ाई वहीं नहीं खत्म हुई वर्तमान में भी ऐसे उदाहरण  हमारे सामने है। लैंगिक आधार पर वह आज भी मंदिरों में प्रवेश की लड़ाई लड़ रही हैं। उदाहरण के तौर पर 28 सितंबर 2018 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि हर आयु समूह की माहिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रेवश न देना, भेदभावपूर्ण है और सभी माहिलाओं को इस मंदिर में जाने का अधिकार मिलना चाहिए। इसपर विश्व हिन्दू परिषद के नेतृव में हिन्दू दक्षिणपंथी संगठनों ने ‘सबरीमाला बचाओ’ का नारा देते हुए रजस्वला आयु समूह की स्त्रियों को मंदिर में प्रवेश करने से रोक दिया, वहीं केरल में भगवान अयप्पा के मंदिर प्रजनन योग्य माहिलाओं का प्रवेश वर्जित है। न्यायालय  माहिलाओं को धार्मिक या परंपरा के नाम पर समानता से वंचित नहीं किया जा सकता कहता रह जाता है, मगर धर्म के अफीम के नशे में डूबा समाज आँख खोलने को तैयार नहीं। यह सिर्फ एक या उदाहरण नहीं है, हमारे सामने महाराष्ट्र का शनि शिंगणापुर मंदिर व हाजी अली दरगाह का मामला भी है। वर्तमान में भी परंपरावादी रूढ़िवादी शक्तियां स्त्रियों को हाशिये पर और समाज में द्वयं दर्जे का नागरिक बनाएं रखने के लिए उत्सुक हैं।

किसी भी लोकतान्त्रिक देश में मतदान का अधिकार बेहद महत्वपूर्ण पहलू होता है, उसी से नागरिक को अपनी शक्ति का अहसास होता है। विश्व में माहिलाओं को मतदान के अधिकार को प्राप्त करने  के लिए संघर्ष करना पड़ा। 19 वीं सदी का न्यूजीलैंड में महिला मताधिकार आंदोलन को उदाहरणस्वरूप देखा जा सकता है । लेकिन भारत में अंबेडकर ने 1931 के गोलमेज सम्मेलन  के अंतर्गत अछूत (स्त्री-पुरुष) को पृथक मतदान देने का अधिकार दिलाने के लिए अपनी आवाज उठाई। भारत में 1950 में, जब संविधान लागू  किया गया तो राजनीतिक समानता को ध्यान में रखते हुए ‘सारभौमिक वयस्क मताधिकार’ को व्यवहार में अपनाया गया, जिसके तहत “हर वयस्क महिला तथा पुरुष को बिना किसी भेदभाव के वोट डालने का अधिकार प्रदान करता है”।

इसी तरह  28 जुलाई 1928 को बंबई विधान परिषद में कामकाजी माहिलाओं को प्रसूति अवकाश देने के लिए बिल पर विचार व्यक्त करते हुए कहा था “माहिलाओं को प्रसूति अवकाश प्रदान करना राष्ट्रीय हित में एक महत्वपूर्ण कदम है, राष्ट्र की निर्मात्री को प्रसूतावस्था में विश्राम देने और उसे सुनिश्चित करने का दायित्व सरकार का है”।

डॉ. अंबेडकर ने सामाजिक शोषण को बचपन से महसूस किया। इसलिए उसकी पीड़ा से वह भलीभाँति वाकिफ थे। उसी शोषण में स्त्री पिसती रही है। क्योंकि आजादी के बाद भी हिन्दू धर्म ग्रंथों के प्रति लोगों की श्रद्धा अटूट थी। वही धर्मग्रंथ स्त्रियों की बेड़ियाँ हैं, शोषण का श्रोत और असमानता का आधार भी। स्त्रियाँ वर्णव्यवस्था के अनुसार लिखित रूप से भले शूद्र ना हों, लेकिन व्यावहारिक रूप में उनके साथ शूद्रों जैसा ही व्यवहार होता आया है।स्त्रियों की सुरक्षा और सम्मान के लिए हिन्दू धर्म और धार्मिक ग्रंथों में कोई विधि-विधान नहीं था। इसलिए  इन्हीं बेड़ियों को तोड़ने के लिये  डॉ अंबडेकर ने स्थायी समाधान सोचा। विधि मंत्री रहते हुए स्त्रियों को वैधानिक अधिकार दिलाने के लिए ‘हिन्दू कोड बिल’ का प्रारूप तैयार किया। इसके तहत स्त्रियों को संपत्ति में समान अधिकार, विधवाओं को पुनर्विवाह अधिकार, माहिलाओं को भी तलाक का अधिकार, राजनीतिक अधिकार, बहुपत्नी विवाह का अंत आदि मुख्य प्रस्ताव किए गए थे। परंतु ये सारे प्रावधान हिन्दू कट्टरपंथियों को नामंजूर थे। इस कारण इसका खूब विरोध हुआ और यह बिल संसद से पास नहीं हो सका। इससे डॉ. अंबेडकर टूट गए और विधि मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। इतने बड़े पद से इस्तीफा देना दिखाता है कि वह स्त्रियों के अधिकार और सामाजिक न्याय के प्रति कितना समर्पित थे। 

डॉ. अंबेडकर हर समुदाय के प्रेरणा स्रोत हैं। किसी भी शोषित समाज के लिए वे मुक्ति का मार्ग हैं। स्त्री मुक्ति के वाहक के साथ ही उन्होंने ‘स्वतंत्रता,समानता और स्वाभिमान से जीवन जीने की राह दिखाई और पीड़ित समुदाय के लिए दो मूलमंत्र देकर गए। इनमें पहला है –शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो तथा दूसरा है ‘अप्प दीपो भव’ अर्थात अपना दीपक स्वयं बनो। इस तरह भारत के इतिहास में अमिट छाप छोड़ने वाले डॉ अंबेडकर को  संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए ‘संविधान प्रारूप समिति’ का अध्यक्ष बनाया गया। पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर ऐसे संविधान का निर्माण किया जिसमें स्त्री, दलित, अल्पसंख्यक आदि शोषित आबादी को समानता, स्वतंत्रता का वैधानिक  अधिकार दिया। वर्तमान में स्वाभिमान से वह जीवन जी पा रहा तो वह डॉ. अंबेडकर के त्याग और निष्ठा का ही परिणाम है।

वर्तमान में फ़्रांस ने 8 मार्च 2024 में  महिला दिवस के अवसर पर ‘गर्भपात’ को संवैधानिक अधिकार का दर्जा दिया। फ़्रांस विश्व में ऐसा करने वाला पहला देश बन चुका है। भारत की सरकार को भी इस तरफ देखना चाहिए और समाज को स्त्रियों की शारीरिक स्वतंत्रता के इस पहलू को आगे बढ़कर स्वीकार करने में हिचकना नहीं चाहिए।

 संदर्भ  

  1. “अंबेडकर दलित और स्त्री प्रश्न” -  सम्पादक रविकांत

  2. “मिशन बाबा साहब अंबेडकर” -  डॉ वीरेंद्र कुमार श्रीवास्तव 

  3. “अंबेडकर के विचार समरस समाज” – डॉ ओंकार नाथ मिश्र, डॉ ममता मणि त्रिपाठी 

  4. “अम्बेडकरवादी स्त्री चिंतन” -  तेज सिंह 

  5. “डॉ बाबासाहब अंबेडकर” - वसंत मून 

  6. “मनुस्मृति” - मनु

लेखक- अंकित कुमार सरोज (शोधार्थी, लखनऊ विश्वविद्यालय)
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति The Mooknayak उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं. इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार The Mooknayak के नहीं हैं, तथा The Mooknayak उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है.

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