OPINION: क्रिकेट में आरक्षण कब, दलित-आदिवासी कब खेलेंगे विश्व कप?

क्रिकेट में आरक्षण (reservation in cricket) क्यों नहीं होना चाहिए? सब कुछ सरकार के पैसे से, सरकार के संसाधनों से है। विशाल मैदान, बिजली और कर में भारी छूट, तो क्रिकेट में आरक्षण का पालन क्यों नहीं होना चाहिए ठीक उसी तरह जैसे दक्षिण अफ़्रीका में है।
OPINION: क्रिकेट में आरक्षण कब, दलित-आदिवासी कब खेलेंगे विश्व कप?
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बेरोज़गारी, पेपरलीक, मुसलमानों की हत्या, दलितों की बर्बर पिटाई, महिला पहलवानों पर अत्याचार,आदिवासियों के जंगल पर क़ब्ज़े के विरोध में देश में चार आदमी सड़क पर नहीं आते। EVM के विरोध में दो आदमी नहीं आते। दोस्त, पत्रकार मयंक सक्सेना इसी कायरता पर बात करते-करते असमय दुनिया से विदा हो गए। जो सोचेंगे और चिंता करेंगे, वह असमय ही चले जाएंगे। अकेले पड़ते जाएंगे। बाक़ी लोग ताली बजाते रहेंगे।

दीर्घायु होकर RSS की शाखा में जाते रहेंगे। दलितों, आदिवासियों, वंचितों के लिए क्रिकेट के दरवाज़े हमेशा ही बंद रहते हैं। उस क्रिकेट के लिए हज़ारों बेरोज़गार हाथ-बाँध कर छोड़कर खड़े हो जाते हैं। पूरी उम्र ताली बजाते हुए गुज़ार देते हैं। क्रिकेट में आरक्षण (reservation in cricket) क्यों नहीं होना चाहिए? सब कुछ सरकार के पैसे से, सरकार के संसाधनों से है। विशाल मैदान, बिजली और कर में भारी छूट, तो क्रिकेट में आरक्षण का पालन क्यों नहीं होना चाहिए ठीक उसी तरह जैसे दक्षिण अफ़्रीका में है।

दलितों-आदिवासियों के मन में यह सवाल क्यों नहीं आता? रोज़गार केवल सरकारी नौकरी में नहीं है। निजी क्षेत्र में भी आरक्षण होना चाहिए और क्रिकेट में भी। क्योंकि क्रिकेट समय देश में रोज़गार के बड़े साधनों में से एक है। गली गली में IPL के कैंप से लेकर सलेक्शन से रणजी ट्रॉफी (जो एक राजाजी के नाम पर ही है) और विश्व कप तक बड़ा बाज़ार है। ठीक उसी तरह जैसे एकलव्य का अंगूठा काट लेने वाले द्रोणाचार्य के नाम पर देश में खेल का सबसे बड़ा गुरुजी अवार्ड है। इसका विरोध कौन करेगा?

जब तक आप भीड़ में रहेंगे, आप विरोध नहीं कर सकते। आप ताली बजाते रहेंगे। राजा और द्रोणाचार्य खेलेंगे, अंगूठा काटेंगे? इस बाज़ार में वंचितों की भागीदारी कौन तय करेगा? इतनी बड़ी संख्या में जनसमूह क्रिकेट में मैदान के भीतर अपनी जगह के लिए प्रदर्शन क्यों नहीं करता?

दक्षिण अफ़्रीका की टीम भारत जैसा ही प्रदर्शन कर रही है, लेकिन उसकी टीम में विविधता है। उनके कप्तान और उप कप्तान एक ही पूंजीपति के लिए नहीं खेलते। जितने मौक़े शर्मा जी के लड़के, कोहली साहब, पंड्या के लड़के को मिल रहे हैं, क्या उतने ही मौके लुहार जी, कुम्हार जी, कहांर जी, केवट जी, निषाद जी और पासवान जी के लड़कों को नहीं मिलना चाहिए। इससे भी बड़ा सवाल -मौक़े तक वो पहुंचेंगे कैसे? इसलिए,आरक्षण होना ही चाहिए। अब तो लड़के-लड़कियाँ सबका क्रिकेट है।

इसलिए क्रिकेट में आरक्षण की माँग बुनियादी माँग है। क्रिकेट खेलने वाली लड़कियों की जाति और सामाजिक रुतबे भर फिर कभी बात कर लेंगे। भारतीय क्रिकेट टीम में पूंजीपतियों, कथित सवर्ण जातियों का प्रभाव चयन से लेकर कप्तानी तक में स्पष्ट है।

भारत में क्रिकेट पर लिखने वाले भी उन्हें जातियों के हैं,जिन जातियों के खेलने वाले? मुंबई इंडियन्स के ख़िलाफ़ कमेंटेटर क्यों नहीं बोलते? उसके ख़िलाफ़ वेबसाइटें क्यों नहीं लिखतीं? देश की बड़ी कंपनियों में इनके ख़िलाफ़ कोई आलोचना नहीं प्रकाशित होती। मुंबई, गुजरात से लेकर लखनऊ तक सभी कंपनियों के मालिक एक ही पार्टी के कार्यकर्ता हैं।

BJP ने क्रिकेट से वोट लेने का तरीक़ा बहुत पहले से सीखा था। ‘भारत रत्न’ सचिन तेंदुलकर से लेकर ‘इंडियन रत्न’ हार्दिक पंड्या तक कोई नहीं बोलता। जो बोलते हैं उनको सजा मिलती है। मैं मुंबई इंडियन की कंपनी में ही था। मुझे बोलना था मोदी के बारे में,बोलने लगा राहुल गांधी के बारे में। नतीजा आप जानते हैं। इसलिए, क्रिकेटर से लेकर पत्रकार तक भारत में सब चुप रहते है।

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गांधी, नेहरू, अंबेडकर का रास्ता और राहुल गांधी…

अमेरिकी एथलीट कैसे अमेरिका को आवाज़ देते हैं, किसी को नहीं पता। हमारे यहाँ बस ‘यस सर’ करते हैं। ताली बजाते हैं। भारत की जनता वोट देने से भी अच्छा काम ताली बजाने का करती है। इसलिए 50 ओवर वर्ल्ड कप फ़ाइनल में हार के बाद प्रधानमंत्री नियमों को EVM में रखकर ड्रेसिंग रूम में घुस गए थे।

प्रधानमंत्री जानते थे-वोटर को कैसे प्रभावित करना है? ICC उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता, लेकिन वोटर को लेकर वह चिंतित रहते हैं। जय होशियार हैं । सब संभाल लेते हैं। लेकिन इस पर कौन लिखेगा। भारतीय मीडिया IT सेल का एक्सटेंशन है।

वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी ने लिखा है- ‘जय शाह अपना जीवन क्रिकेट की सेवा के लिए समर्पित कर रहे हैं। जबकि वह कोई भी आसान नौकरी चुन सकते थे?’ इसीलिए, प्रधानमंत्री हाथरस-मणिपुर -लद्दाख नहीं जाते। उन्हें पता है, वोट पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। जिन जातियों के चयनकर्ता उन्हीं जातियों के मैदान! बस पानी के लिए, घास और गंदी नालियां साफ़ करने के लिए वे नहीं आते। नारा लगाने के लिए, भूखे-प्यासे सड़कों पर भीड़ के लिए ग़रीब गुरुआ हैं। सोचिएगा, भारत में क्रिकेट किसका खेल है और कौन खिलाता है? कौन रोटी पकाता है?

नोट- लेखक दयाशंकर मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं और टीवी न्यूज चैनल में काम कर चुके हैं।

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