भारत में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े समूहों को बराबरी पर लाने के लिए अफरमेटिव एक्शन के रूप में राजनीति और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण प्रदान किया गया। परंतु यदि हम आरक्षण का इतिहास देखें तो पाएंगे कि जिस दिन भारत में दलितों को आरक्षण देने की घोषणा हुई, उसी दिन से सवर्णों ने इस पर प्रहार करने शुरू कर दिए। इन प्रहारों का रूप समय समय पर बदलता गया परंतु उद्देश्य आरक्षण को कमजोर और खत्म करना ही रहा और सवर्णों द्वारा किए गए निरंतर प्रहारों से आज आरक्षित सीटों पर अपने प्रतिनिधित्व के नाम पर दलित समाज को रबर स्टैंप मिलती है जो सवर्णों के इशारों पर उनके हितों को साधते हुए कार्य करती है।
अर्थात दलित समाज को प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिए पंचायत से लेकर संसद तक सीटें तो आरक्षित की गई परंतु उन सीटों पर चुनाव वही जीतता है जिसे सवर्ण जीतवाना चाहें। इस प्रकार दलित समाज के लिए अब राजनीतिक आरक्षण का कोई अर्थ नहीं रह गया क्योंकि इन आरक्षित सीटों पर भी सवर्णों द्वारा निर्धारित किए गए उम्मीदवार ही जीत पाते हैं।
भारत में सबसे पहले डॉ. अंबेडकर ने 1930, 1931 और 1932 में लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलनों में भाग लेते हुए अंग्रेजी हुकूमत के सामने भारतीय दलितों की वास्तविक स्थिति पेश की और उन्हें दो मतों का अधिकार दिलवा पाने में सफल रहे। जिसमें दलित समाज का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए कुछ सीटें आरक्षित की गई और इन आरक्षित सीटों पर दलित मतदाता एक मत दलित समाज के उम्मीद्वार को देंगे और दूसरा मत सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार को। क्योंकि डॉ. अंबेडकर का सोचना था कि जो दलित उम्मीदवार दलित मतदाताओं से चुन कर आयेंगे वो दलितों की आवाज सदन में रखेंगे और अपने समाज के हितों की रक्षा करेंगे।
अंग्रेजों का यह फैसला निश्चित रूप से यहां के दबे कुचले मूल निवासियों को राजनीतिक भागीदारी देने के पक्ष में था। परंतु इस फैसले से सवर्णों की रातों की नींद उड़ गई क्योंकि इससे उन्हें अपना आधिपत्य टूटता नजर आ रहा था। इसलिए महात्मा गांधी ने यरवदा जेल में भूख हड़ताल कर दी और अंत में डॉ. अंबेडकर को मानना पड़ा और दलितों के लिए एक वोट के अधिकार से ही संतोष करना पड़ा। गांधी और अंबेडकर के बीच हुई इस बातचीत को "पूना पैक्ट" का नाम दिया गया। अर्थात पूना पैक्ट के माध्यम से दलितों को मिला पहला अधिकार छीन लिया गया।
भारत की आजादी के बाद डॉ. अंबेडकर ने दलित समाज के उत्थान के लिए संविधान में प्रावधान किए ताकि दलितों के अधिकार और प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किया जा सके। परंतु इसका तोड़ भी सवर्णों ने ढूंढ लिया और इन आरक्षित सीटों पर उन्हीं दलितों को चुनाव लड़वाना शुरू किया जो केवल उनके कहे अनुसार चले और उनके पक्ष में काम करे। इस प्रकार दलितों को राजनीतिक भागीदारी तो मिली परंतु केवल नाम की।
1982 में "पूना पैक्ट" की 50 वीं वर्षगांठ मनाते हुए दलित बहुजनों के महान नेता "साहब कांशीराम" ने कहा कि 1932 में इस समझाते के माध्यम से फल का सारा रस तो गांधी और सवर्णों ने चूस लिया और हमारे हिस्से में आई गुठलियां। अर्थात भारत में आरक्षित सीटों पर भी सवर्णों के चमचे ही चुनाव जीतते हैं, जो दलित समाज के हितों को किनारे करके सवर्णों के हितों को साधने का काम करते हैं।
परंतु साहब कांशीराम ने इन चमचों को चलाने वाले सवर्ण हाथों पर प्रहार किया तथा सवर्णों को चमचों से दूर करना शुरू किया। और समय के साथ साथ दलित समाज में भी जागरूकता आई और इन्होंने इन सवर्ण चमचों की पहचान करके इन पर प्रहार किया और अपने समाज के सही प्रतिनिधियों जिन्होंने खुल कर दलित समाज के अधिकारों व उनके हितों की बात की और उनके उत्थान के लिए कार्य किया को चुनना शुरू किया। जैसे सितंबर 2021 में जब पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को पहला दलित मुख्यमंत्री बनाया गया तो उन्होंने शपथ लेते ही कहा कि "जे ताज साडे सर ते हेगा ए तां राज वी अस्सी करांगे" अर्थात उन्होंने साफ संदेश दे दिया था कि वो कोई कठपुतली नहीं है और यदि मुख्यमंत्री वो हैं तो सरकार और शक्तियां वो अपने अनुसार ही चलाएंगे। जिसका नतीजा ये हुआ कि सवर्णों ने अगले चुनाव में न केवल उन्हें हराया बल्कि कांग्रेस पार्टी के खिलाफ भी मतदान करके एक संदेश देना चाहा कि हमें ऐसा दलित मुख्यमंत्री नहीं चाहिए जो सरकार हमारे अनुसार न चलाए।
इतना ही नहीं अब सवर्ण समाज ने दलितों को मिले राजनीतिक आरक्षण पर कब्जा करने के लिए एक नई तरकीब ढूंढ निकाली है, जो अब सामने आने लगी है। ये तरकीब है "दलित लड़कियों से शादी कर लो" अर्थात कुछ गैर दलितों ने दलित लड़कियों से शादी करना शुरू कर दिया है और शादी के बाद आरक्षित सीटों से इन दलित लड़कियों को चुनावी मैदान में उतारना शुरू कर दिया है क्योंकि ऐसा करने से पूरी की पूरी शक्ति सवर्ण लोगों के पास उन्ही के घर में रहेगी और दलित लड़की जिस पर दोहरा दबाव ताउम्र बना रहेगा कि एक तो हमने सवर्ण होकर तुझ से शादी की, दूसरा तुझे चुनाव जितवा कर इस मुकाम पर पहुंचाया है।
इस प्रकार सवर्णों द्वारा आरक्षण पर प्रहार करने और आरक्षित सीटों को भी अपने कब्जे में करने के लिए अपनाए गए इस नए तरीके से दलित समाज को हर पक्ष से नुकसान है, जैसे सबसे बड़ा नुकसान तो उनके समाज की एक लड़की सवर्णों के कब्जे में चली गई, दूसरा सवर्णों ने एक आरक्षित सीट उस दलित लड़की के नाम पर दलितों से छीन ली।
हाल फिलहाल में महाराष्ट्र से नवनीत राणा जो एक दलित महिला है और गैर दलित से शादी करके आरक्षित सीट से चुनाव लड़ी और जीती, इसी प्रकार पंजाब की आरक्षित विधानसभा सीट बल्लूआना से 2022 में भारतीय जनता पार्टी की टिकट पर चुनाव लड़ने वाली वंदना संगवाल जो खुद दलित जाति से संबध रखती है परंतु गैर दलित से शादी करके इस आरक्षित सीट से चुनाव लड़ी। बात यदि राजस्थान की गंगानगर (आरक्षित) लोकसभा सीट करें तो यहां पर इस बार भाजपा की ओर से चुनावी मैदान में प्रत्याशी प्रियंका बालान एक दलित है, जो बनियों की बहू है। एक इत्तेफाक की बात ये है कि उपरोक्त तीनों महिलाओं का संबंध भाजपा से है तो क्या ये कहना ठीक होगा कि भाजपा जानबूझकर ऐसी दलित महिलाओं को चुनावी मैदान में उतार रही है, जिन्होंने गैर दलित जातियों में शादी की है ताकी अप्रत्यक्ष रूप से दलितों को आरक्षण से दूर किया जा सके।
अब सबसे चिंतनीय प्रश्न ये है कि बनियों के घर में रह कर या गैर दलितों के घर में रहकर क्या ये दलित महिलाएं दलितों की आवाज बन पाएंगी? क्या दलित समाज के हितों को साध पाएंगी? क्या उनके उत्थान और विकास के लिए कुछ कर पाएंगी? ऐसे असंख्य प्रश्नों का जवाब एक ही है और वो है कि ये महिलाएं कुछ "नहीं" कर पाएंगी। क्योंकि हम देखते हैं जब एक महिला अपनी जाति में, अपने घर में रहकर अपने अधिकारों के लिए नही लड़ पाती, अपने लिए आवाज नहीं उठा पाती तो कैसे ही वो दूसरी जाति के दूसरे लोगों के बीच रहकर अपनी जाति और समाज की बात उठा पाएगी।
दूसरी चिंता का विषय ये है कि अब जब महिला आरक्षण बिल लागू कर दिया जाएगा तब ऐसे मामलों की संख्या और ज्यादा बढ़ जाएगी क्योंकि जब आरक्षित सीटों की भी एक तिहाई सीटें केवल दलित महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाएंगी तब सवर्ण बड़े स्तर पर दलित समाज को लूटेंगे और डाका मारेंगे। क्योंकि ऐसी सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए दो आवश्यक शर्तें होंगी, एक तो चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार को दलित जातियों से संबंधित होना होगा और दूसरा यहां उम्मीदवार केवल महिला ही होगी। तो इन शर्तों को पूरा करने के लिए सवर्ण निश्चित तौर पर दलित लड़कियों से शादी करेंगे और शादी के नाम पर इस लूट व डाके में दलितों की बेटियां, उनका प्रतिनिधित्व और उनका आरक्षण सवर्णों की दहलीज पर चला जायेगा।
यदि समय रहते इस लूट की तरफ ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में आरक्षण केवल नाम का रह जायेगा जिसका कोई अर्थ नहीं बचेगा और सवर्ण अपनी दलित बहुओं के नाम पर सभी आरक्षित सीटों पर कब्जा कर लेंगे।
सर्वोच्च न्यायालय को भी ऐसे मामलों की तरफ ध्यान देना चाहिए ताकि आरक्षण पर हो रहे इस अप्रत्यक्ष प्रहार को रोका जा सके। क्योंकि यदि सभी आरक्षित सीटों पर सवर्णों ने दलित लड़कियों से शादी कर ली और उन्हें चुनावी मैदान में उतार दिया तो ये निश्चित है कि आरक्षण का कोई अर्थ नहीं बचेगा क्योंकि वहां पर एक तरफ सवर्ण और उनकी बहू होंगी तो दूसरी तरफ कोई दलित। और ये हम भली भांति जानते हैं कि यदि कोई दलित सवर्णों के सामने चुनाव जीत पाने की स्थिति में होता तो दलित समाज के लिए कुछ सीटों को आरक्षित करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। ये सीटें इसीलिए ही आरक्षित की गई ताकि इन पर दलित ही जीत कर आए और दलित समाज को प्रतिनिधित्व प्रदान कर सके, उनके हकों के लिए आवाज उठा सके क्योंकि बिना आरक्षण के किसी भी दलित के लिए सवर्ण के सामने चुनाव जीतने की संभावना न के बराबर है।
ये समय की आवश्यकता है कि सवर्णों द्वारा दलित समाज में कर रहे इस लूट और डाके को रोका जाना चाहिए ताकि दलितों को उनका हक और प्रतिनिधित्व जिसकी संविधान गारेंटी देता है, मिलता रहे।
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