लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% सीट आरक्षित करने वाला 27 वर्ष से लंबित महिला आरक्षण बिल पास हो गया। कोई इस बिल को अपना बिल बता रहा है तो कोई बिना यह बताए कि यह कागजों के बाहर धरातल पर कब लागू होगा बधाई पर बधाई दिए जा रहा है। इस बिल के पास होने के बाद सभी वर्ग की महिलाओं से पूछने की बजाए एक ही वर्ग से हावी मीडिया यह दिखाने की कोशिश कर रही है कि सभी महिलाएँ बहुत खुश हैं। सभी वर्ग की महिलाओं की ओर से ख़ुशी का इजहार खुद करने वाली अभिजात्य वर्ग की पत्रकार महिलाओं ने क्या इसपर कोई सर्वे कराया है? जाहिर है कि नहीं।
इस बिल में ओबीसी महिलाओं को आरक्षण न देकर और अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाओं को पहले से ही आरक्षित सीट 24.03 % में से ही कोटा देकर पिछड़ी, दलित और आदिवासी महिलाओं के बीच में चिंता पैदा कर दी है। जहाँ कोटा के अंदर कोटा नहीं दिया गया। वहीं इस बिल को लागू करने के लिए जनगणना और परिसीमन की भी शर्त भी रख दी गई है। जिस आबादी को इस बिल से बाहर कर दिया गया। दरअसल, महिला आरक्षण बिल की जरूरत उन्हें ही है। ये दावे और भी सार्थक हो जाएंगे अगर जातिगत जनगणना का आंकड़ा आ जाता है। इससे पता चल जाएगा कि महिलाओं में भी सबसे पिछड़ी कौन हैं जिन्हें आरक्षण की जरूरत है।
कोटा के अंदर कोटा न देकर भारतीय जनता पार्टी की सरकार बाबा साहब डॉ. भीम राव आंबेडकर के उन चिंताओं को सही ठहरा देती हैं जो वो आजादी के बाद के अपने भाषणों और अपनी लेखनी में व्यक्त किए थे। डॉ. भीम राव आंबेडकर का कहना था कि "लोकतंत्र भारतीय भूमि का केवल ऊपरी पोशाक है" यहाँ की संस्कृति अनिवार्य रूप से अलोकतांत्रिक है। यहाँ का गाँव स्थानीयता का गंदा नाला, अज्ञानता, संकीर्णता और साम्प्रदायिकता का घर है। उनका यह भी कहना था कि हम ऐसे विरोधाभासी जीवन में प्रवेश कर रहे हैं, जहाँ राजनीतिक समानता तो होगी पर सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी भी होगी।
आजादी के 76 साल बाद राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक गैर बराबरी का विश्लेषण करने पर हमें पता चलता है कि अभी तक समाज में न तो राजनीतिक, न ही आर्थिक और न ही सामाजिक गैर बराबरी मिटी है। राजनीतिक समानता की बात करें तो संविधान के हिसाब से हर व्यक्ति की वोट की कीमत बराबर है चाहे वह अमीर हो या गरीब हो। पर जब हम राजनीति में लैंगिक प्रतिनिधित्व देखते हैं तो एक बहुत ही गहरी खाई नजर आती है। इस समय संसद में सिर्फ 14% महिलाएं हैं। वही जब हम विधानसभाओं में देखते हैं तो महिला प्रतिनिधित्व और भी कम दिखाई देता है। यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहे जाने वाले देश के लिए न सिर्फ चिंता का विषय है बल्कि बहुत शर्मनाक स्थिति भी है। देश की आधी आबादी बनाने वाली महिलाओं की भागीदारी इतना कम होना डॉ- भीम राव आंबेडकर के राजनीतिक समानता वाले सपने को कहीं से भी पूरा करता नजर नहीं आ रहा है। इसलिए महिला आरक्षण बिल में ओबीसी, एससी और एसटी महिलाओं को कोटा देकर जल्दी से जल्दी लागू करने की जरूरत है।
आरक्षण का मतलब होता है समाज में व्याप्त गैर बराबरी को ख़त्म करके समानता को स्थापित करना। इसलिए महिला आरक्षण बिल को लागू करते समय यह भी देखना होगा कि सभी वर्ग की महिलाओं के बीच में गैर-बराबरी कितनी है। अलग-अलग पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं की अलग-अलग समस्याएं हैं। अभिजात्य वर्ग से आने वाली महिलाओं के ऊपर अगर पितृसत्ता की मार है तो वहीं दलित और पिछड़ी जातियों की महिलाओं के साथ जातिवाद, पितृसत्ता और गरीबी तीनों तरह की समस्याएं हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो सहित कई सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि दलित महिलाओं के साथ अन्य महिलाओं कि तुलना में सबसे ज्यादा अत्याचार होता है।
मौजूदा राजनीति में पैसों का महत्व जिस तरह से बढ़ता जा रहा है वह इस बात का चिंता प्रकट करता है कि क्या गरीब महिला किसी आर्थिक रूप से मजबूत और पढ़ी लिखी महिला के साथ मुकाबला कर पाएगी? जब कमजोर और मजबूत महिला के बीच में समानता के सिद्धांत के आधार पर प्रतियोगिता की छूट देंगे जबकि हमें पहले से ही पता है कि कमजोर महिला इसमें निश्चित रूप से हारेगी तब यह कोई प्रतियोगिता नहीं बल्कि एक तरह का नाटक चल रहा होगा। जहां पर पहले से ही सामाजिक और आर्थिक विषमता हो वहां पर कोटा के अंदर कोटा न देना राजनीतिक विषमता की खाई को और भी गहरा करना है।
जब किसी विधानसभा या लोकसभा के लिए आरक्षित सीट पर दो महिला चुनाव लड़ेंगी, जिसमें एक महिला जिसे पढ़ने-लिखने का मौका मिला और जो आर्थिक रूप से सक्षम है और दूसरी महिला जो गरीबी और तमाम सामाजिक कारणों से स्कूल व कॉलेज नहीं पहुँच पाई और जो आर्थिक रूप से मजबूत नहीं है । दोनों में मुकाबला कराना एक तरह कि बेईमानी होगी । इसलिए महिला आरक्षण बिल में ओबीसी, एससी, एसटी और अल्पसंख्यक महिलाओं को अलग से कोटा दिया जाए।
लेकिन साथ में यह भी जरूरी है कि ओबीसी, एससी और एसटी महिलाओं के शिक्षा पर भी ध्यान दिया जाए। उन समस्याओं के भी जड़ में जाने कि जरूरत है, जिसकी वजह से पिछड़े समाज से आने वाली महिलाओं की स्कूल और कॉलेज से ड्राप आउट रेट बहुत ज्यादा है। सारी पोलिटिकल पार्टियों को महिलाओं को लिए अलग से प्रशिक्षण केंद्र स्थापित करने की जरूरत है। जिस तरह से क्रिकेट सहित तमाम खेलों के लिए प्रशिक्षण केंद्र होते हैं उसी तरह से जरूरी है कि महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किये जाए।
लोकसभा को "पीपल ऑफ़ द हाउस" कहते हैं। इसमें हर समाज से आने वाली महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो तभी महिला आरक्षण बिल का मकसद पूरा हो पाएगा। सामंतवाद, मनुवाद, जातिवाद और पितृसत्ता से लड़ने वाली फूलन देवी जैसी महिला भी संसद पहुंचे तो पत्थर तोड़ने वाली भगवतिया देवी जैसी महिला भी संसद पहुंचे। तभी सही मायने में राजनीतिक समानता होगी और आर्थिक और सामाजिक गैर बराबरी का अंत होगा।
बाबा साहब भीम राव आंबेडकर का कहना था कि “मैं एक समुदाय की प्रगति को उस डिग्री से मापता हूं जो महिलाओं ने हासिल की है।” इसलिए कोटा के अंदर कोटा देकर पिछड़े समाज कि महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी सुनिश्चित किया जाए तभी सही मायने में पूरे देश कि प्रगति होगी।
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