भारत एक घोर निराशाजनक वास्तविकता से जूझ रहा है। दुनिया का सबसे बड़े लोकतंत्र के नाम से जाना जाने वाले देश में महिलाओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा और बलात्कार की घटनाएं सामने आ रही है। हाल ही में मणिपुर की दिल दहला देने वाली घटना महिलाओं के लिए समाज में व्याप्त असंवेदनशीलता और उदासीनता की एक झलक है। न्यू इंडिया पर इस देश की महिलाओं का नजर था खासकर दलित समुदाय से आने वाली लड़कियों को क्योंकि उन्हें यह उम्मीद थी कि शायद न्यू इंडिया में उनके साथ अत्याचार कुछ कम हो पर निराशा के अलावा और कुछ नजर नहीं आ रहा है। महिलाओं की पीड़ित होने की घटना लगातार बढ़ती जा रही है और यह बढ़ती हुई घटना प्रधानमंत्री सहित सत्ता में बैठे लोगों की चुप्पी, तथाकथित "न्यू इंडिया" में महिलाओं की सुरक्षा और संरक्षा पर सवाल उठाती है।
ऐसा नहीं है की मणिपुर की घटना पहली घटना है, 21 साल पहले गुजरात में हुए दंगों में भी महिलाओं को लक्ष्य बनाया गया था। बिलकिस बानो जिनके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ और उनके परिवार को मार डाला गया 21 साल से वो न्याय की गुहार लगा रही हैं। बिलकिस बानो को न्याय मिलने के बजाय दोषियों को छोड़ दिया गया और जेल से बाहर आने के बाद उन दोषियों को फूल माला से स्वागत किया गया। जिस देश में बलात्कारियों और हत्यारों का फूल माला से स्वागत किया जाता हो वहां पर महिलाएं न्याय की उम्मीद कैसे कर सकती हैं? मणिपुर में जिन दो महिलाओं को निर्वस्त्र करके सड़क पर घुमाया गया क्या उन महिलाओं को इस सरकार में न्याय मिलेगा यह देखने वाली बात है क्योंकि नरेंद्र मोदी के ही मुख्यमंत्री कार्यकाल में बिलकिस बानो के साथ हुई घटना में अभी तक न्याय नहीं मिल पाया है।
70 दिन से ज्यादा हो गए मणिपुर को जलते हुए। घर जल रहे थे, लोग मारे जा रहे थे पर जलते हुए राज्य को छोड़कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश के दौरे पर थे। अपने ही देश के लोगों को जलते और मरते हुए छोड़कर कोई प्रधानमंत्री चैन से दूसरे देश में कैसे रह सकता है? 70 दिन से ज्यादा जलते हुए मणिपुर पर नरेंद्र मोदी का 30 सेकंड का दुःख भरा बयान तब आया जब 2 महिलाओं को सड़क पर निर्वस्त्र करके घुमाया गया और उनके साथ गैंगरेप हुआ। ऐसा लग रहा है कि शायद मणिपुर पर मुंह खोलने के लिए देश के प्रधानमंत्री इसी दिन का इंतजार कर रहे थे।
जेंडर और जाति आधारित हिंसा और बलात्कार ने भारत में एक संस्कृति बना ली है। जेंडर और जाति आधारित हिंसा की घटनाओं की जड़ें देश में लंबे समय से प्रचलित लिंग भेदभाव, पितृसत्ता और जाति आधारित भेदभाव से जुड़ा हुआ है। जिसे न ही तो आपराधिक कानूनों और न्याय पालिका के द्वारा सम्बोधित किया गया और न ही राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता पर पर्याप्त जोर दिया गया। क्योंकि राजनीति और न्याय पालिका में उन्हीं का बोलबाला है जिनके जाति से आने वाले लोग इस तरह की घटनाओं को अंजाम देते हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के नवीनतम संकलन से पता चलता है कि 2021 के दौरान भारत में कुल 31,677 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए थे यानी की औसतन हर दिन लगभग 87 बलात्कार के मामले। देश में महिलाओं के खिलाफ कुल 4,28,278 अपराध दर्ज किए गए। रिपोर्ट यह भी बताती है कि 2020 की तुलना में 2021 में महिलाओं के खिलाफ कुल अपराधों में 13.2% की वृद्धि हुई है। इन घटनाओं को अगर जाति के आधार पर देखें तो सबसे ज्यादा घटनाएं दलित महिलाओं के साथ घटित हुई हैं। भारत में दलित महिलाएँ मुख्य रूप से जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर तिहरी हिंसा की शिकार हैं। दलित महिलाओं को दलित होने के कारण तथाकथित "उच्च जाति" के लोगों द्वारा, गरीब होने के कारण अमीर लोगों द्वारा और एक महिला होने के कारण उन्हें अपने समुदाय सहित सभी समुदायों के पुरुषों से पितृसत्तात्मक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।
मणिपुर की घटना में हर वह व्यक्ति दोषी है जो इस घटना को अंजाम होते हुए देख रहा था और भीड़ के साथ चल रहा था। यह कहना की वह घटना सामान्य आवेगों से जुड़ा हुआ, था गलत धारणाओं को कायम रखेगा। इसलिए सजा हर उस व्यक्ति को मिलनी चाहिए जो इस घटना को देखते हुए भी चुप्पी साधे हुआ था। समस्त महिलाओं को चाहे वो किसी भी जाति से हों इस पर चुप्पी तोड़नी होगी। दो समुदाओं, दो व्यक्तियों या दो देशों में टकराव के दौरान यौन हिंसा एक गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन है जो युद्ध के किसी भी हथियार के समान विनाशकारी है। इसका प्रभाव तत्काल पीड़ितों से परे, परिवारों, समुदायों और राष्ट्र के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देता है। जिसका प्रभाव इतना होता है कि महिलाओं को न केवल संघर्ष क्षेत्रों में बल्कि अपने घरों, सड़कों और आभासी दुनिया में भी हिंसा का सामना करना पड़ता है।
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