लोकसभा चुनाव 2024: दो गठजोड़ के बीच हाशिए पर समाज का बड़ा हिस्सा

लोकसभा चुनाव 2024
लोकसभा चुनाव 2024ग्राफिक- द मूकनायक
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भारत की चुनावी व्यवस्था में एक बड़ा बदलाव देखा जा रहा है। जिस देश में 1980 के बाद विभिन्न वर्गों के राजनीतिक नेतृत्व की यात्रा शुरू हुई और राजनीतिक व्यवस्था में विविधता और समानता ने एक नया मोड़ लिया। वर्ग अंतर को कम करके सामाजिक न्याय का मार्ग प्रशस्त हुआ। यह राजनीतिक व्यवस्था अब फिर से एक नई दिशा में आगे बढ़ती दिख रही है। देश में फिर से दो-दलीय और द्वि-गठबंधन प्रणाली स्थापित हो रही है। विशेष रूप से भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार के गठन के कारण बने माहौल में 2014 में नरेंद्र मोदी द्वारा और 2019 में उनकी सत्ता की पुनः स्थापना के बाद।

2024 के लोकसभा चुनावों के लिए भाजपा और कांग्रेस गठबंधन यानी एन.डी.ए बनाम इंडिया के बीच मैदान सजता नज़र आ रहा है। इस परिदृश्य का सकारात्मक पहलू यह है कि देश में सरकार के परिवर्तन की अत्यंत आवश्यकता मानी जा रही है। निश्चित रूप से यह परिवर्तन एक मजबूत विपक्षी गठबंधन के माध्यम से ही हो सकता है जो की अब संभव होता दिख रहा है। लेकिन यह राजनीतिक माहौल देश को दो-दलीय/राजनीतिक गठबंधन प्रणाली की ओर धकेल रहा है, जिससे लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्थिरता पैदा होने की संभावना ज्यादा ही है। गठबंधन के ऐलान के बाद से इसके प्रभाव भी सामने आने लगे हैं।

इंडिया गठबंधन जो ये मान कर चल रही है कि भाजपा विरोधी वोट केवल कांग्रेस, प्रमुख प्रांतीय दलों और वामपंथी दलों के गठबंधन द्वारा ही एकजुट हो पाएगा। लेकिन पिछड़े वर्गों के पार्टी को साथ लाने के लिए थोड़ी भी कोशिश नहीं दिख रही है। इंडिया गठबंधन के तरफ से वामपंथी दलों के छोटे दलों को भी गठबंधन का हिस्सा बना लिया है। लेकिन दूसरी तरफ दलित राजनीतिक दलों को पूरी तरह से किनारे कर दिया है। अभी तक बहुजन समाज पार्टी को साथ लाने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया गया है। बसपा के अलावा भी चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी, प्रकाश अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी और बामसेफ की राजनीतिक शाखा बहुजन मुक्ति पार्टी को अब तक गठबंधन का हिस्सा नहीं बनाया गया है। इसके अलावा पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी 'हम' को भाजपा की तरफ़ जाने से रोकने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की गई। यही नहीं बल्कि दलित सामाजिक संगठनों को मिशन के करीब लाने की पहल भी नहीं दिख रही है।

अगर मुसलमानों की बात कि जाए तो इंडिया गठबन्धन का पहला और सबसे मजबूत वोट बैंक मुस्लिम वोट बैंक के रूप में देखा जाता है। लेकिन इंडिया गठबन्धन में कश्मीर के राजनीतिक दलों और केरल व तमिलनाडु में कांग्रेस की पुरानी सहयोगी रही मुस्लिम लीग और एमएमके के अलावा किसी पार्टी को गठबंधन में शामिल करने का कोई संकेत भी नहीं दिया गया है। जबकि असम में मौलाना बदरुद्दीन अजमल की पार्टी असम यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट वहां की मुख्य प्रांतीय पार्टी है और बंगाल में कांग्रेस-वाम गठबंधन कि इंडियन सेक्युलर फ्रंट वर्तमान में बंगाल में एक मजबूत राजनीतिक दल है जो की पूरे गठबन्धन से एकमात्र विधायक जीतने में भी सफ़ल हुई थी। सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया ने केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड और गुजरात आदि के स्थानीय निकाय चुनावों में सर्वोत्तम परिणाम दर्ज करके एक महत्वपूर्ण राजनीतिक दल के रूप में अपना अस्तित्व साबित किया है। जिसके लाखों कार्यकर्ता देश भर में फैले हुए हैं। इस पार्टी में मुसलमानों के साथ-साथ ईसाई, दलित और आदिवासी वर्ग भी अच्छी संख्या में हैं।

उत्तर प्रदेश में डॉ. अयूब की पीस पार्टी और मौलाना तौकीर रजा खान की इत्तेहादे मिल्लत काउंसिल, तेलंगाना में मजलिस बचाओ तहरीक और अलग-अलग राज्यों में वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया अच्छी पकड़ रखती है। लेकिन इन सभी पार्टियों को इंडिया गठबंधन पूरी तरह से दूर रखी है। झारखंड की सत्ताधारी झारखंड मुक्ति मोर्चा को गठबन्धन में रखा गया है। जबकि गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र के आदीवासी समाज की पार्टियों भारत आदिवासी पार्टी व भारतीय ट्राइबल पार्टी को अछूत बना कर रखा गया है। इसका असर यह हुआ कि एक ओर जहां दो राजनीतिक गठबंधनों के बीच टकराव ने देश में अन्य राजनीतिक दलों के अस्तित्व पर खतरा पैदा कर दिया है। ऐसा लगता है कि देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था दो ठाकुरों के बीच सिंहासन की लड़ाई बन गयी है। जिसने देश में दलितों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों की राजनीतिक शक्ति के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। इन वर्गों के प्रतिनिधित्व के इण्डिया गठबन्धन में न होने के कारण उनकी चिंताएँ और मुद्दे भी राजनीतिक चर्चा से गायब है। यह बहुत चिंताजनक स्थिति है!

आवश्यकता है कि इन वर्गों का राजनीतिक एवं सामाजिक नेतृत्व जागरूक हो और इंडिया गठबन्धन में नेतृत्व स्तर पर अपने वर्गों का सशक्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने का प्रयास करे। जिसमेें सफलता की आशा बहुत कम है। अन्यथा अपने सभी छोटे मोटे मतभेद भूल कर देश भर की दलित,अल्पसंख्यक,आदिवासी वर्ग के नेतृत्व वाले राजनीतिक दल जिनका वास्तविक अस्तित्व है। उन्हें एक मजबूत गठबंधन यानी तीसरा मोर्चा बनाना चाहिए और इस गठबंधन में पिछड़े समाज के उन दलों को भी शामिल करें, जिनकी अपने क्षेत्र में हैसियत है। लेकिन फिर भी इंडिया गठबंधन उनको खुद अलग रखी है जैसे बिहार में पप्पू यादव की पार्टी जन अधिकार पार्टी! इस गठबंधन को मजबूत विचारधारा और मजबूत सोशल इंजीनियरिंग के आधार पर स्थापित किया जाना चाहिए और डेटा व ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर संपूर्ण सामाजिक न्याय और राष्ट्रीय विकास के लिए सर्वोत्तम रोड मैप बनाकर लोगों के सामने प्रस्तुत किया जाना चाहिए।

लेकिन साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि देश को खतरा है कि अगर भारतीय जनता पार्टी 2024 में दोबारा सरकार बनाने में सफल हो गई तो देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था और संविधान नष्ट कर दिया जाएगा। आर्थिक रूप से देश एक गहरी खाई में गिर जाएगा। देश को सामाजिक स्तर पर खतरनाक अराजकता का सामना करना पड़ेगा। देश की सुरक्षा और भविष्य को सामने रखकर सभी संसदीय क्षेत्रों में लड़ने के बजाय, जमीनी विश्लेषण के आधार पर उन निर्वाचन क्षेत्रों को लक्षित किया जाना चाहिए जहां से गठबंधन उम्मीदवार पूरी तरह से मुकाबला कर सके। ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या लगभग 200 संसदीय निर्वाचन क्षेत्र होगी। इसलिए उन्हीं पर मेहनत के साथ लड़ कर सरकार की कुंजी प्राप्त करने के लिए कोशिश की जाए। साथ ही मुसलमानों, दलितों, ईसाइयों, आदिवासियों के वास्तविक आवाज़ को अच्छी संख्या में संसद में पहुंचाया जाए।

दलित, मुस्लिम, आदिवासियों की वर्गीय राजनीतिक शक्ति को और अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए संघर्ष करना होगा। अगर अच्छी रणनीति के साथ काम किया जाए तो देश को फांसीवादी ताकतों से सुरक्षित रखते हुए बहुजन समाज के अच्छे प्रतिनिधित्व वाली एक वास्तविक लोकतांत्रिक संसद देश को दी जा सकती है।

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