प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने लगभग एक वर्ष से चले आ रहे विरोध प्रदर्शन के बाद 20 नवंबर को तीनों कृषि क़ानूनों को संसद के ज़रिए वापस लेने का निर्णय लिया है।
इस फ़ैसले के बाद पक्ष एवं विपक्ष दोनों तरफ़ और विशेषकर बुद्धिजीवी तबक़े में एक आम अवधारणा है कि उत्तरप्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए ये फ़ैसला लिया गया है।
हालांकि तर्क का ये एक पक्ष हो सकता है कि आगामी विधानसभा चुनावों को नज़र में रखते हुए सरकार यह फ़ैसला कर रही है लेकिन इस मुद्दे पर सरकार का पीछे हटने का फ़ैसला इतना भी अचानक नहीं है।
मोदी एवं अमित शाह की छवि और उनके राजनीतिक चरित्र को देखते हुए ऐसा मान लेना सही नहीं है।
फिर ऐसी क्या मज़बूरी थी कि सरकार इन क़ानूनों पर पीछे हट गई है?
राजनीति एक चक्र है। पावर के इस खेल में यह चक्र घूमता रहता है। देश की आंतरिक राजनीति को भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति प्रभावित करती है और अंतरराष्ट्रीय राजनीति को भी क्षेत्रीय राजनीति प्रभावित करती है।
इसलिए सरकार के इस क़दम को अंतरराष्ट्रीय राजनीति के लेंस से भी देखा जाना चाहिए।
17 सितम्बर 2020 को लोकसभा और 20 सितम्बर को राज्यसभा में ऑर्डिनेंस पास होने के बाद कृषि बिल का विरोध पश्चिमी उत्तरप्रदेश के जाट किसानों के द्वारा शुरू नहीं किया गया था बल्कि सर्वप्रथम पंजाब के सिक्ख किसानों ने 24 सितम्बर को तीन दिवसीय रेल रोको अभियान का ऐलान करके विरोध शुरू किया था।
26 सितम्बर को शिरोमणी अकाली दल ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
27 सितम्बर को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद क़ानून बन गया। उसके बाद विरोध का दायरा बढ़ा और पंजाब, हरियाणा के किसानों ने 25 नवम्बर को "दिल्ली चलो" का नारा लगा दिया।
26 नवंबर को अम्बाला में किसानों को रोकने की कोशिश हुई। उस समय तक राकेश टिकैत इस आंदोलन के प्रमुख चेहरा नहीं थे बल्कि पंजाब के किसान ही इस विरोध का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। राकेश टिकैत की एंट्री बतौर एक चेहरे के रूप में जनवरी में हुई है।
इस विरोध में सिक्ख किसानों के प्रतिनिधित्व के कारण देश की मीडिया सहित सरकार के लोगों ने इस विरोध को ख़ालिस्तानी बनाम राष्ट्रवादी बनाने की कोशिश शुरू कर दी थी।
इस विरोध की फ़ंडिंग के विदेशी तार जोड़े गए। केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इसे टुकड़े-टुकड़े गैंग बताया।
26 जनवरी को लाल क़िला पर झंडे को मुद्दा बनाया गया, सिक्ख समुदाय की राष्ट्रभक्ति पर प्रश्नचिन्ह खड़ा किया गया।
लखीमपुर खीरी में केंद्रीय मंत्री के बेटे के द्वारा सिक्ख किसानों को रौंदा गया। पिछले एक वर्षों में सिक्खों को मुसलमानों की तरह अलग-थलग करने की पूरी कोशिश की गई। अकाल तख़्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने भी इस तरफ़ इशारा किया है। ये सारे मुद्दे ऐसे थे जो अंतरराष्ट्रीय कम्युनिटी में लगातार चर्चा का विषय रहे हैं। जो लोग अंतरराष्ट्रीय राजनीति की समझ रखते हैं वे इंडियन डायस्पोरा में सिक्खों की सहभागिता को बख़ूबी समझ सकते हैं।
सिक्खों को बदनाम करने की लगातार की जा रही कोशिश के कारण इंटरनेशनल कम्युनिटी में सिक्ख डायस्पोरा ने अहम भूमिका निभाई। इसलिए ही 'टूलकिट' का मामला सामने आया था। सिक्ख डायस्पोरा की ही देन है कि ग्रेट थंबर्ग, पॉप गायिका रिहाना, पोर्नस्टार मियां ख़लीफ़ा, अमेरिकन उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की भतीजी मीना हैरिस, एथलीट जुजु स्मिथ, बास्केट बॉल खिलाड़ी बैरन डेविस और कैले अलैक्ज़ेंडर कुज़मा, मॉडल अमांडा सरनी, यूट्यूबर लिली सिंह, कॉमेडियन हसन मिन्हाज, अमेरिकन कांग्रेस के मेंबर इल्हाम ओमेर, जिम कोस्टा जैसे बड़े सेलेब्रिटीज़ ने ट्विटर पर किसानों का समर्थन किया।
बल्कि जब यूनाइटेड नेशन्स जनरल असेम्बली का सेशन चल रहा था तब सिक्ख डायस्पोरा ने इस मुद्दे को यूनाइटेड नेशन्स तक पहुंचाने का प्रयास किया। सिक्खों के लिए कृषि क़ानून का मुद्दा महज़ एक क़ानून को वापस लेने तक सीमित नहीं रह गया था। बल्कि उन्होंने इसे अपनी आइडेंटिटी और अस्तित्व (Existence) से जोड़ लिया था। क्योंकि मीडिया और सरकारी मशीनरी लगातार इसे ख़ालिस्तानी और राष्ट्रविरोधी बताने की कोशिश कर रहे थे।
इसलिए सिक्ख डायस्पोरा द्वारा भारत के ऊपर लगातार दबाव बनाया गया। इसके बदले में बॉलीवुड सेलेब्रिटीज़ भी मैदान में उतरे तब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मामला बहुत आगे बढ़ चुका था और डैमेज कंट्रोल नहीं किया जा सका।
दूसरा अहम मुद्दा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पावर स्ट्रगल भी है। एशिया में लगातार पॉवर शिफ्टिंग हो रही है। अमेरिका पहले ही अफ़ग़ानिस्तान से निकल चुका है। चीन और रूस ने अफ़ग़ानिस्तान की तरफ़ हाथ बढ़ा दिया है। बल्कि तालिबान के नेता चीन का दौरा भी कर चुके हैं।
पाकिस्तान पहले से ही चीन के बहुत क़रीब है। ऐसे में कूटनीतिक रूप से अमेरिका के लिए भारत ही एकमात्र विकल्प है। भारत और अमेरिका पहले से कूटनीतिक स्तर पर एक-दूसरे के सहयोगी रहे हैं। अमेरिका चाहता है कि वह भारत के ज़रिये चीन को कंट्रोल करे लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। क्योंकि सत्ता में आते ही मोदी सरकार देश के आंतरिक मामलों में उलझ गई।
नोटबन्दी के समय जनता सड़क पर निकल आयी। CAA/NRC के विरोध में जनता सड़क पर रही और जिसके कारण लंबे समय तक देश आंतरिक मामलों में उलझा रहा।
आरक्षण के मामलों को लेकर लोग सड़क पर थे। धारा 370 को हटाने से आजतक कश्मीर अशांत है और स्थिति में सुधार नहीं हुआ है। अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत दौरे के दरमियान हफ़्तों तक दिल्ली में नरसंहार होता रहा। अभी त्रिपुरा जल रहा था। इसी बीच किसान पिछले एक वर्षों से सड़कों पर है।
कई तरह से कड़े फ़ैसले करने के बावजूद भी सरकार मुद्दों को निपटा नहीं सकी है बल्कि अनुच्छेद-370, नागरिकता संशोधन क़ानून और कृषि बिल इसके गले का फंदा बन चुका है। इतने सारे आंतरिक मामलों में उलझने के कारण चीन लगातार भारत को कूटनीतिक रूप से पछाड़ रहा था। बल्कि चीन लद्दाख़ और अरुणाचल की तरफ़ भारतीय सीमा के काफ़ी क़रीब भी पहुंच चुका है। ऐसे में अमेरिका को ये लगने लगा है कि स्ट्रेटेजिक तौर पर चीन के साथ डील करने में भारत असफ़ल रहा है।
अमेरिका की तरफ़ से भी आन्तरिक मामलों को ख़त्म करके बाह्य मामलों पर ध्यान केन्द्रित करने का भी एक कूटनीतिक दबाव भारत के ऊपर लगातार बन रहा है। इसलिए ही आंतरिक मामलों से निपटने के लिए ही सरकार ने किसान विरोधी क़ानून को वापस लेने का फ़ैसला किया है।
वापस लेने का समय भले ही उत्तरप्रदेश चुनाव के नज़दीक है लेकिन सिक्ख डायस्पोरा और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पॉवर शिफ्टिंग दो ऐसे महत्वपूर्ण कारण हैं जिसकी वजह से मोदी सरकार बैकफुट पर हैं।
वरना पूर्व में भी नोटबन्दी, जीएसटी, कोरोना और लॉकडाउन में पलायन जैसे मुद्दों के बाद भी भाजपा चुनाव में उतरी है और चुनाव जीती है।
पहली बात, अगर मामला केवल उत्तरप्रदेश चुनाव में हारने का होता तब मोदी अपनी दृढ़ता और मज़बूत इच्छाशक्ति वाली इमेज को दांव पर लगाकर इतना बड़ा यूटर्न नहीं लेते।
दूसरी बात, कृषि क़ानून से समूचे प्रदेश में नहीं बल्कि पश्चिमी उत्तरप्रदेश में कुछ प्रभाव पड़ सकता था। स्वर्गीय चौधरी अजीत सिंह की पार्टी जाटों को संगठित करके अधिकतम 10 सीटें जीत सकती थी। मेरी समझ से मोदी सरकार ने क़ानून को वापस लेने का यह बहुत सही समय चुना है। एक तरफ़ अंतरराष्ट्रीय दबाव को कम कर लिया है और दूसरी तरफ़ पश्चिमी यूपी में जाटों की राजनीति को साध लिया है।
पहला, आगामी तीन-चार महीनों में जाटों को वापस भाजपा की तरफ़ लाने की कोशिश होगी।
दूसरा, कलतक जाटों की चुनावी राजनीति जिस चौधरी चरण सिंह के परिवार यानी अजीत सिंह के दरवाज़े से शुरू होती थी अब वह राकेश टिकैत के दरवाजे़ की तरफ़ मुड़ जाएगी। इस प्रदर्शन ने राकेश टिकैत को जाटों में स्थापित कर दिया है और अब वे बिना किसी पार्टी में रहते हुए भी विधायक और सांसद बनाने की कोशिश करेंगे। ऐसे में उत्तरप्रदेश जाटों की राजनीति का दो केंद्र बन जाएगा…..!
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