रांची- संविधान हत्या दिवस का रण कैसा होगा? असली या नकली। लगता है पक्ष विपक्ष के बीच यूक्रेन- रूस की तरह यह लंबी लड़ाई में परिणत हो सकता है। संविधान और जनतंत्र बचाओ का नारा जाने- अनजाने 2024 के लोकसभा चुनाव का महत्वपूर्ण नारा बन गया था। राहुल गांधी के आक्रामक तेवर ने सत्ता पक्ष को काफी क्षति पहुंचाने में सफल रहा। इसका संभावित जोरदार बदला लेने के लिए सत्ता पक्ष ने 25 जून 1975 की तारीख को संविधान ह्त्या दिवस की सरकारी कार्यक्रम घोषित कर डाला है।
संविधान, कानून और जनतंत्र लागू हो तभी गरीबों और वंचितों को सच्ची आजादी मिल सकती है। क्या आदिवासी समाज को अब तक इसका लाभ मिल सका है? सीमित आरक्षण के सिवाय दूसरे लाभ उपलब्ध नहीं हो सके हैं। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि आदिवासी गांव-समाज समुद्र में छोटे-छोटे टापू की तरह तैर रहे हैं। यहां अब तक संविधान, कानून, जनतंत्र आदि लागू नहीं हो सके हैं। तब क्या पक्ष- विपक्ष इस पर अपनी कृपादृष्टि रखेंगे या केवल वोट के लिए संविधान और जनतंत्र की बात करेंगे?
आदिवासी गांव समाज में गणतांत्रिक नहीं वंशानुगत राजतांत्रिक स्वशासन व्यवस्था लागू है। इसको माझी परगना, मानकी मुंडा व्यवस्था के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक गांव के लिए परंपरा के नाम पर एक स्वयंभू वंशानुगत आदिवासी प्रमुख काबिज हो जाता है और तानाशाही हुकूमत चलाता है।
मनमानी किसी को भी जुर्माना लगाना, दंडित करना, सामाजिक बहिष्कार करना, डायन बनाना आदि इसमें शामिल है। इस व्यवस्था में नशापान, अंधविश्वास, डायन प्रथा, महिला विरोधी मानसिकता, ईर्ष्या द्वेष, वोट की खरीद बिक्री आदि को खत्म करने की जगह बढ़ाने का काम होता है।
ग्राम प्रधान के चयन में ग्रामीण की कोई भागीदारी नहीं होती है। अंततः पढ़े-लिखे स्त्री पुरुष भी गांव- समाज में गुलाम की तरह जीने को मजबूर है। क्योंकि माझी बाबा शादी, श्राद्ध, छटीयरी आदि में बहिष्कार करने की धमकी देते हैं।
यह खतरनाक व्यवस्था समस्त ग्रामीणों को पंगु बना रख देता है। दूसरी तरफ चूंकि अधिकांश ग्राम प्रधान अनपढ़, पियक्कड़ और संविधान, कानून, जनतंत्र आदि से अनभिज्ञ होते हैं तो प्रत्येक आदिवासी गांव समाज में एक लंपट गिरोह काबीज होकर सर्वांगीण विकास को बाधित कर देता है। आदिवासी गांव समाज के हित में हासा भाषा जाति धर्म रोजगार इज्जत आबादी आदि को बचाने का इनके पास कोई एजेंडा और कार्यक्रम नहीं होता है।
आदिवासी गांव समाज में राजतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था के कारण संविधान के मौलिक अधिकारों का रोज उल्लंघन हो रहा है। नशापान, अंधविश्वास, जुर्माना डंडोम लगाना, सामाजिक बहिष्कार आदि के चालू रहने से संविधान के फंडामेंटल राइटस का उल्लंघन जारी है। लोग मर्यादा के साथ जी नहीं सकते हैं। सामानता, अभिव्यक्ति की आजादी और न्याय आदि का अधिकार यहां क्षीण है। आदिवासी गांव समाज गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। व्यवस्था में जनतांत्रिक और संवैधानिक सुधार के बगैर यह टापू धीरे-धीरे डूब जाने को मजबूर है।
देश में पक्ष- विपक्ष की राजनीति करने वालों के अलावा कार्यपालिका से जुड़े सभी संबंधित पदाधिकारी, जनप्रतिनिधि, न्यायपालिका, मीडिया और सिविल सोसाइटी को इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में सुधार लाने के लिए सक्रिय योगदान जरूरी है।
मगर कुछ एक राजनीतिक दल केवल वोट के संकीर्ण लालच में टापू को टापू ही बने रहने देकर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। जबकि संविधान, कानून और जनतंत्रिक व्यवस्था में सुदृढ़ता शांति और प्रगति के लिए अनिवार्य है।
- सालखन मुर्मू, पूर्व सांसद एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष -आदिवासी सेंगेल अभियान
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