OPINION: क्या सवर्ण समाज ने दलित बच्चे की हत्या को नैतिक मंजूरी दे दी है?

OPINION: क्या सवर्ण समाज ने दलित बच्चे की हत्या को नैतिक मंजूरी दे दी है?
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सलमान रूश्दी पर हमले को लेकर दुनिया भर के चिंतक अपना डर, अपनी निराशा, अपना समर्थन जता चुके हैं। लेकिन, बच्चे की हत्या उतने स्ट्रॉन्ग रिएक्शन नहीं पैदा कर रही. ज्यादा से ज्यादा मातम सा मन रहा है जिसमें एक स्वीकार्यता है कि ये तो होता ही है. प्रतीत होता है कि नैतिक रूप से माफी है हत्यारे को, कानूनी रूप से नहीं.

यह नैतिक माफी ही ट्रबलिंग है. रूश्दी वाले मामले में हत्यारे और उसकी कम्युनिटी को नैतिक माफी नहीं मिलेगी, उनका घनघोर विरोध होगा. इतना कि जिनका कोई लेना देना नहीं, वो भी माफी मांगते फिरेंगे.

लेकिन बच्चे की हत्या के मामले में कोई विचार नहीं है. हत्यारे का साइको एनालिसिस नहीं होगा, उसके परिवार का नहीं होगा, उसके समाज का नहीं होगा. उसके लिए कोई माफी नहीं मांगेगा. वो और उसका परिवार कुछ दिनों के बाद आराम से घूमते हुए पाए जाएंगे जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं है. यह एक मंडेन हत्या है जो संसार की अन्य घटनाओं की तरह निर्बाध रूप से हो रही है. जैसे सूरज उगता है, सूरज डूबता है. धरती घूमती है, हवा चलती है.

गांधी और अंबेडकर, दो लोगों ने जाति प्रथा के खिलाफ बोला और लिखा. अंबेडकर ने जाति की समस्या को जड़ से जाना. वहीं गांधी की सारी बातों में एक बात बहुत अच्छी लगी- हृदय परिवर्तन. यह सुनने में बेकार आदर्शवाद सा लग सकता है, पर वाकई में यही नहीं हो रहा. तमाम कानूनी पेचीदगियों के बावजूद, सवर्ण जातियों के हृदय से जातिगत नफरत नहीं जा रही और जाति को जारी रखने का सबसे बड़ा जरिया ही यही है. ना तो कानून इसे कम कर पा रहा है और ना ही ज्ञान. बल्कि यह और स्थायी होते जा रहा है. साथ ही इसे मोरल ताकत भी है. क्योंकि किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं है.

यही अंतर समझना है. धार्मिक सांप्रदायिकता में बोलना लोग अपनी जिम्मेदारी समझते हैं. चाहे जिसका इंटेल्कचुअल स्टेटस हाई हो या लो हो, वो बोलता है. अपनी बात रखता है और साफ साफ रखता है. पर जाति के मामले में यह आता ही नहीं.

क्योंकि एकेडमिक्स में ये है ही नहीं. 'जाति की घृणा' कहीं नहीं पढ़ाई जाती. तो लोगों के मन में बचपन से ही जाति व्यवस्था का पोषक होने की प्रवृत्ति विद्यमान हो जाती है. सांप्रदायिकता के ऊपर किताबें हैं, वो एकेडमिक्स में है. जाति के ऊपर क्यों नहीं बताते लोगों को?

अब इस बच्चे की हत्या के बाद उस स्कूल के बाकी बच्चों के ऊपर क्या असर पड़ेगा? देश के अन्य स्कूलों के बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ेगा? जिन स्कूलों में पहले से ही इस तरह की व्यवस्था मौजूद है, वह क्या और मजबूत नहीं होगी? क्या ढेर सारे बच्चे यह नहीं मान लेंगे कि यही होता है और इसी के हिसाब से वो अपना जीवन जियेंगे? क्या हम उन बच्चों की काउंसलिंग करा रहे हैं और क्या उन्हें समझा पाएंगे कि जाति की घृणा से क्या होता है? क्या इस मौत को समझा पाएंगे उन बच्चों को?

उस शिक्षक को सजा तो मिल जाएगी, पर उससे होगा क्या? हमने और ढेर सारे लोग तैयार कर दिये जो उतने ही या उससे ज्यादा जातिगत हिंसक होंगे. हम पांच या दस वर्षों के समय को देखें और उस एरिया में होने वाले जातिगत अपराधों को देखेंगे तो पाएंगे कि इस घटना ने उत्प्रेरक का काम किया है.

क्योंकि हमारा समाज इसे सैन्क्शन करता है. इसे नैतिक मंजूरी देता है. इसमें कानून क्या कर सकता है? कानून तो हमारा बहुत अच्छा है जिसमें कड़े प्रावधान हैं. इसके बावजूद कोई ऐसी हिमाकत कैसे कर रहा है? क्या वह आदमी अपने निजी जीवन में, बाकी चीजों में इतना ही हिंसक था? सवाल ही नहीं पैदा होता. अगर होता तो वह शिक्षक भर्ती ही नहीं होता. हो सकता है कि वह निजी जीवन में सामान्य आदमी हो लेकिन जातिगत नफरत ने उसके अंदर के शैतान को बाहर ला दिया. कोई सरकार, कोई कानून या कोई किताब इसे खत्म नहीं कर सकती. वो बस बता सकते हैं।

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