वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा उच्च शिक्षा पर लगातार प्रहार किया जा रहा है. उसी का एक और नमूना है एमफिल कोर्स को खत्म करने तथा इसको अवैध घोषित कर दिए जाने का फैसला। दशकों से शिक्षा जगत में एमफिल ने जो लोकप्रियता हासिल की थी, उच्च शिक्षा में अपनी एक मजबूत जगह बनाई थी, लेकिन एक अस्थिर मानसिकता वाली सरकार ने एक झटके में इसे स्मृतियों तक सीमित कर दिया है।
इसका सीधा प्रतिकूल असर उच्च शिक्षा में जाने का सपना देखने वालों पर पड़ेगा। एमफिल को बहुत वर्षों से मास्टर डिग्री और पीएचडी के बीच एक पुल की तरह देखा गया है। अब इसको खत्म कर देने के फैसले द्वारा इस पुल को ही तोड़ दिया गया है।
यह कोर्स रिसर्च की बारीकियों के बारे में शोधार्थी को प्रशिक्षित करने में मदद करता है। सीधे शब्दों में कहें तो पीएचडी के लिए यह एक अग्रदूत के भांति था। दरअसल, पीएचडी में रिसर्च किया जाता है और एमफिल में सिखाया जाता है कि रिसर्च कैसे किया जाता है। अब पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद सीधे पीएचडी में रिसर्च करना उन शोधार्थियों के लिए मुश्किल होगा, जिनके पास एमफिल का अनुभव नहीं होगा। क्योंकि एमफिल कोर्स का मुख्य मकसद ही यही होता है रिसर्च कैसे करना है।
दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बड़ी-बड़ी व अच्छी नामी यूनिवर्सिटी जैसे डीयू, जेएनयू,जामिया मिल्लिया,आईआईटी जैसे यूनिवर्सिटी से पीएचडी करने की इच्छा रखने वालों के लिए एमफिल अब तक गेटपास साबित होता आया है। अब इन यूनिवर्सिटी में पीएचडी में एडमिशन लेना बहुत ही कठिन होगा। अभी तक ऐसा था कि किसी भी कारण से (चाहे सीट कम हो या किसी भी अन्य कारण से) अगर पीएचडी में एडमिशन नहीं मिला और एमफिल में दाखिला मिल गया तो पीएचडी की राह आसान हो जाती थी। क्योंकि हर यूनिवर्सिटी अपने विद्यार्थियों को पहली प्राथमिकता तो देते ही हैं पीएचडी एडमिशन की प्रक्रिया में। शोध निर्देशक उन कैंडिडेट को पीएचडी में लेने को इच्छुक होते थे, जिनके पास एमफिल में लघु शोध प्रबंध लिखने का अनुभव होता था, जिससे पीएचडी के दौरान रिसर्च कराना उस यूनिवर्सिटी और वहां के शोध निर्देशकों के लिए आसान हो जाता था।
तो इस दृष्टि से अच्छी तथा बडी यूनिवर्सिटी में पीएचडी में एडमिशन लेना मुश्किल और चुनौतीपूर्ण हो जाएगा। इस तरह एमफिल को खत्म कर दिया जाना,इस कोर्स को अवैध करार दिया जाना उच्च शिक्षा में जाने को इच्छुक विद्यार्थियों के लिए एक दुर्भाग्य साबित होगा। साथ ही उच्च शिक्षा पर यह मौजूदा सरकार द्वारा कुठाराघात है.
दरअसल, इस समय जो विचारधारा सत्ता में बैठी है, उसकी बस एक ही मंशा है कि उसकी भी कुछ पहचान बने, लेकिन इसके लिए वो अपनी लकीर बड़ी नहीं कर सकती क्योंकि वो विमर्श से ज्यादा विचारों को थोपना पसंद करती है। ऐसे में उसने एक आसान अपनाया है, वो दूसरी सरकारों की लकीर छोटी कर रही है। वो स्वयं सृजन नहीं कर सकती, इसलिए वो दूसरों के सृजन पर अपने रंग से पुताई कर के अपना नाम लिख दे रही है। वो स्वयं स्वीकार्य मानक स्थापित नहीं कर सकती तो वह दूसरी सरकारों द्वारा स्थापित लोकप्रिय स्वीकार्य मानकों को खत्म कर रही है। एमफिल के साथ भी यही किया गया है।
एमफिल कोर्स को समाप्त कर देना न सिर्फ शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित करेगा बल्कि इसका असर सामाजिक जीवन पर भी पड़ेगा। इसे तीन बातों से समझा जा सकता है।
पहली बात, एमफिल एक लघु शोध कार्यक्रम है, जिसके आधार पर छात्र भारत या भारत से बाहर के अकादमिक क्षेत्र तथा रोजगार के क्षेत्र में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराते रहे हैं। यह कार्यक्रम उन छात्रों के लिए भी बहुत ही उपयोगी होता है, जिनको पीएचडी करने में थोड़ी असमर्थता होती है। ऐसे समय में जब सरकार नई शिक्षा नीति को लेकर अपनी तारीफ करते नहीं थक रही, यह दिखाने का प्रयास कर रही है कि इसमें छात्रों के पसंद के हिसाब से शिक्षा और विषय के चयन की स्वतंत्रता दी गई है। ऐसे में छात्रों से लघु शोध करने का विकल्प छीन लेना कहीं ना कहीं छात्रों के साथ अन्याय है तथा उन पर इस चीज का आरोपण है कि वे जब भी करेंगे तो पीएचडी के रूप में 5 वर्ष या उससे अधिक का शोध कार्य करेंगे।
दूसरी बात कि एमफिल सिर्फ एक सामान्य पाठ्यक्रम नहीं है बल्कि यह पीएचडी की पूर्वपीठिका है। जिसमें छात्र को न सिर्फ शोध करने का अभ्यास होता था बल्कि वह पीएचडी के दौरान अगले कुछ वर्ष एक विद्यार्थी और एक व्यक्ति के रूप में कैसे शिक्षा को समर्पित कर सके इसका भी अभ्यास होता था। नई शिक्षा नीति के तहत भले ही शोध की, शोध- प्रविधियों की जानकारी स्नातक पाठ्यक्रम में दे दी जाएगी, लेकिन नई शिक्षा नीति ने एक छात्र से अध्ययन व सामान्य जीवन के बीच संतुलन स्थापित करने का एक अभ्यास तो छीन ही लिया है।
तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात, एमफिल उन शैक्षणिक कार्यक्रमों में से एक है जो स्त्रियों को आगे बढ़ने के लिए संबल प्रदान करता है। हम इस चीज से इनकार नहीं कर सकते कि आज भी सामान्य भारतीय परिवारों में स्त्रियों के साथ शैक्षणिक स्तर पर दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। यह एक कटु सामाजिक तथ्य है कि अधिकतर स्त्रियों की पढ़ाई सिर्फ तभी तक कराई जाती है जब तक कि वह मूलभूत शिक्षा प्राप्त न कर लें अथवा उनका विवाह न हो जाए। ऐसे में स्त्रियां अगर एमफिल कोर्स में शामिल होती थी तो न सिर्फ इस आधार पर वह आर्थिक रूप से समर्थ होती थी बल्कि उनके पास अपनी पढ़ाई आगे जारी रखने के लिए, ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक मजबूत तर्क होता था। लेकिन, एक ऐसी सरकार जो नई शिक्षा नीति के नाम पर हर कुछ समय के बाद पढ़ाई छोड़ने के लिए एक ‘सॉफ्ट डोर’ खोल रही है, उससे एमफिल जैसे कोर्स के महत्व को समझने की उम्मीद रखना और उसे जारी रखने की उम्मीद करना भी बेमानी है।
साथ ही एमफिल करने के बाद कैंडिडेट को एक एक्सपर्ट के तौर पर जाना जाता है इसलिए टीचिंग में करियर बनाना अधिक आसान था, लेकिन इस कोर्स को खत्म कर देने के इस फैसले से शिक्षण व्यवसाय,रिसर्च फील्ड में असीमित संभावनाओं का द्वार हमेशा के लिए बंद कर दिया गया है।
फिर भी बेहतर होता कि सरकार इसे एक स्वतंत्र डिग्री के रूप में जारी रखती जो न सिर्फ अकादमिक और रोजगार के क्षेत्र में छात्रों का सहयोगी सिद्ध होता बल्कि सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में भी उनकी मदद करता।
लेखक- डॉ. आनंद प्रकाश, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, एग्जीक्यूटिव मेम्बर, दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ सदस्य, अन्य पिछड़ा आयोग, दिल्ली सरकार
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