मुज़फ्फरनगर. एससी/एसटी एक्ट को बचाने के लिए छह साल पहले आहुत भारतबंद के दौरान हुई हिंसा में जान गँवा देने वाले युवक का परिवार आज भी न्याय की आस लगाये बैठा है। उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के भोपा थाना क्षेत्र के गांव गादला में सुरेश कुमार का परिवार दो अप्रैल को जवान बेटे अमरेश की पुण्यतिथि मनाता है।
2 अप्रैल 2018 को 20 वर्षीय अमरेश की मौत उस समय हो गयी थी। जब वह आंदोलनरत प्रदर्शनकारियों सँग गांव से मुजफ़्फरनगर गया था। 2 अप्रैल का दिन दलित परिवार के लिये आज भी कष्टकारी है। अमरेश के पिता सुरेश कुमार व माता जलसो आज भी न्याय की आस लगाये बैठे हैं।
द मूकनायक को जलसो देवी बताती हैं- "एक अप्रैल मखियाली में अमरेश की मंगेतर की पारम्परिक रस्म कर घर लौटी थी। परिवार में खुशी का माहौल था। 2 अप्रैल की सुबह सुरेश खेत की सिंचाई करने जंगल गये थे। मैं पशुओं के लिये चारा लेने खेत पर गयी थी। अमरेश को अपनी दवा लेने के लिये मुजफ़्फरनगर जाना था। गांव के कुछ युवक मुजफ़्फरनगर जा रहे थे। अमरेश भी उन युवकों के साथ चला गया। उसके बाद अमरेश की मौत की सूचना मिली।"
अमरेश की मौत के बाद सुरेश के घर पर सांत्वना देने वालों का तांता लग गया था। बसपा, भीम आर्मी व रालोद नेताओं ने अमरेश के परिवार को न्याय दिलाने के लिये आश्वस्त किया था। दलित सुरेश का परिवार मजदूरी का कार्य कर आजीविका चलाता है। परिवार में सुरेश कुमार व जलसो देवी के अलावा भाई इंद्रेश व दीपक का परिवार है।
परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर है। मृतक अमरेश के पिता सुरेश ने बताया कि अमरेश की मौत के बाद मुजफ़्फरनगर के थाना नई मंडी में उस समय तैनात एसआई द्वारा अज्ञात व्यक्ति के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज किया गया था।
पुलिस ने जांच के दौरान पुरकाजी थाना क्षेत्र के गाँव मेघाखेड़ी निवासी व्यक्ति को हत्यारोपी बताकर जेल भेज दिया था। किंतु वह निर्दोष था जिसको जेल भेजने का विरोध भी किया था। वह अमरेश की हत्या के दोषी को सजा चाहते हैं।
सरकार की ओर से कोई मुआवजा राशि भी परिवार को नही मिली। घर से कुछ ही दूरी पर स्थित गुरु रविदास मंदिर में अमरेश को दलित समाज द्वारा शहीद का दर्जा देने की मांग को लेकर अमरेश की प्रतिमा स्थापित की गयी है जो दलित आंदोलन की याद दिलाती है।
दरअसल 2 अप्रैल 2018 का दिन भारतीय इतिहास में संपूर्ण भारत बंद के रूप में दर्ज है। इस दिन देश के दलित और आदिवासी भारी संख्या में सड़कों पर उतर गए थे। इसका कारण यह था कि उनके लिए ‘सुरक्षा कवच’ कहे जाने वाले अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम में सुप्रीम कोर्ट द्वारा संशोधन किया गया था जिससे देशभर के दलितों और आदिवासियों में गुस्सा भर उठा था।
इससे देशभर के दलित और आदिवासी समुदाय ने मिलकर 2 अप्रैल को संपूर्ण भारत बंद का एलान कर दिया। देश के अलग अलग हिस्सों में आगजनी और हिंसा भी भड़क गई। टाइम्स ऑफ इंडिया के एक खबर के मुताबिक बंद में शामिल 11 लोगों की जान भी चली गई। दूसरी तरफ, उत्तरप्रदेश, बिहार, गुजरात, राजस्थान, हरियाणा, पंजाब व मध्यप्रदेश जैसे कई राज्यों में अनगिनत दलित-आदिवासी कार्यकर्ताओं के ऊपर मुकदमे दर्ज हुए। इस दौरान पंजाब व राजस्थान के कई इलाकों में इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गई। मध्य प्रदेश के ग्वालियर में प्रदर्शन के दौरान गोलियां चल गईं। भारत बंद के दौरान कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा हिंसा भड़काने का प्रयास भी किया गया।
2 अप्रैल, साल 2018 के बाद एक ऐतिहासिक दिन बन गया था। इस दिन देश के संपूर्ण हिस्से से बहुजन समाज के लोगों ने एकजुट होकर देशव्यापी सफल भारत बंद किया था। ‘हम अंबेडकरवादी हैं संघर्षों के आदि हैं’ नारे के साथ किया गया यह संघर्ष सकारात्मक परिणाम भी लाया और यह भी साबित किया कि यह कौम अभी जिंदा है जो अपने हकों के लिए लड़ सकती है।
इस विशाल जनसमूह के सड़कों पर उमड़ने और राजनीतिक दलों के समर्थन के चलते देश पर अनुकूल असर पड़ा और सुप्रीम कोर्ट द्वारा 20 मार्च 2018 को दिए अपने फैसले को देशभर में हो रहे विशाल प्रदर्शनों को देखते हुए वापस लेना पड़ा। यह एक तरह से सरकार द्वारा दलित-बहुजनों पर किया गया लिटमस टेस्ट भी था, जिन्हें लगता था कि यह समाज सोया हुआ है और अपने हक अधिकारों के प्रति अनजान है।
दलित- बहुजन समाज की एकता और सूझबूझ ने यह आभास कराया कि इन्हें अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर उतरना पड़े तो कोई गुरेज नहीं। बहुजनों ने आज का दिन इतिहास में अपनी जीत के नाम दर्ज कराया है जिसे आने वाली पीढ़ियां गर्व के साथ याद रखेंगी। इसी तरह 13 प्वाइंट रोस्टर प्रणाली जैसे मुद्दों पर भी समाज एकजुट होकर सरकार से लड़ा और अपने अधिकारों को बचाए हुए है।
दरअसल एससी/एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार द्वारा पारित किया गया था। एससी/एसटी एक्ट की धारा- 3(2)(v) के तहत जब कोई व्यक्ति किसी एससी या एसटी समुदाय के सदस्य के खिलाफ अपराध करता है तो उस अपराधी को आईपीसी के तहत 10 साल या उससे अधिक की जेल की सजा के साथ दंडित किया जाता है यह भी प्रावधान है कि ऐसे मामलों में जुर्माने के साथ सजा को आजीवन कारावास तक बढ़ाया जा सकता है। देश की चौथाई आबादी पर लगातार हो रहे अत्याचार पर अंकुश लगाने के लिए ही यह एक्ट लाया गया था। हालांकि इससे पहले 1955 में ‘प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स एक्ट’ भी आ चुका था लेकिन वह दलितों और आदिवासियों पर होने वाले अत्याचारों को नहीं रोक सका। अत्याचार और भेदभाव से बचाने के लिए इस एक्ट में कई तरह के प्रावधान किए गए।
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