ओपिनियन लेख- सैफूर रहमान
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गत दिनों एनसीपी सुप्रीमो और विपक्ष के वरिष्ठ नेता शरद पवार से उनके दिल्ली आवास पर मुलाकात की और 2024 लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी एकता पर चर्चा की।
स्पष्ट हो कि शरद पवार कल पार्टी महाराष्ट्र की दो बड़ी राज्य पार्टियों में से एक है। मौजूदा समय में उनका दूसरी राज्य पार्टी शिवसेना और कांग्रेस के साथ गठबंधन भी है। जिस गठबंधन की बागडोर शरद पवार के हाथ में ही मानी जाती है और राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकता के लिए भी वो प्रयास करते रहे हैं, इस लिए उनसे नीतीश की मुलाकात को भी अहम नजर से देखा जा रहा है।
स्पष्ट रहे की नीतीश कुमार बिहार में भाजपा का साथ छोड़ कर विपक्ष के बाकी सभी 07 दलों के समर्थन के साथ सरकार बना लेने के बाद से वैसा ही मजबूत विपक्षी गठबंधन देश भर में बनाने के लिए जुटे हुए हैं।
बीते दिनों तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर ने बिहार आकर नीतीश से मुलाकात की थी और विपक्षी एकता के मिशन में नीतीश का साथ देने का ऐलान किया था, जिसके बाद नीतीश तुरंत दिल्ली पहुंच गए। यहां उनकी पहली मीटिंग विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी इंडियन नेशनल कांग्रेस के सुप्रीमो राहुल गांधी से हुई, जिसे नितीश के बहुत सुलझे हुए कदम के तौर पर देखा गया। क्योंकि बीते दिनों ममता बनर्जी, केसीआर, शरद पवार, स्टालिन और केजरीवाल समेत जितने लोगों ने विपक्षी एकता के लिए प्रयास किया है वो सब कांग्रेस को साथ लेने को लेकर असमंजस में थे, जबकि देश के 40 फीसद से ज्यादा लोकसभा सीटों पर भाजपा का डायरेक्ट मुकाबला कांग्रेस पार्टी से ही है।
अतः इन तमाम प्रयासों को विश्लेषक अधूरा मान रहे थे, लेकिन अब नीतीश की पहली मीटिंग राहुल गांधी के साथ ही करना और खुशगवार अंदाज में फोटो शेयर करना जिसके बाद ये अनुमान लगाया जाने लगा कि जैसे कांग्रेस को जिंदा करने के लिए सोनिया गांधी ने गांधी फैमिली से बाहर का कांग्रेस अध्यक्ष बनाने का निर्णय ले लिया है वैसे ही कांग्रेस नेतृत्व में ये बात भी चर्चा में है कि भाजपा को सत्ता से रोकने के लिए कांग्रेस किसी गैर कांग्रेसी मान्य चेहरा को प्रधानमंत्री पद के लिए संयुक्त उम्मीदवार मानने पर तैयार हो सकती है। ये बात भारतीय जनता पार्टी के लिए चिंता का विषय बन गई है। उसके साथ ही उन्होंने सब से ज्यादा लोकसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव और उनके पिता मुलायम सिंह यादव, कर्नाटक की राज्य पार्टी जनता दल सेकुलर के राष्ट्रीय अध्यक्ष पूर्व मुख्यमंत्री कुमार स्वामी, दिल्ली के मुख्यमंत्री सह आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल जो की प्रधानमंत्री पद का एक बड़ा चेहरा माने जाते हैं।
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री सह इंडियन नेशनल लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओम प्रकाश चौटाला से भी मुलाकातें की जाए तो वहीं लेफ्ट राजनीति के तीन बड़े चेहरे सीपीआईएम नेता सीताराम येचुरी, सीपीआई नेता डी राजा और भाकपा माले नेता दीपांकर भट्टाचार्य से भी मिले। इस बीच उन्होंने समाजवादी राजनीति के वरिष्ठ नेता और नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड के सबसे लंबे समय तक राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे मौजूदा समय में राजद नेता शरद यादव से भी मिलकर आगे की रणनीति पर चर्चा की।
नीतीश कुमार की मौजूदा हो रही मीटिंगों पर चर्चा इस लिए तेज है कि एक तरफ उन्होंने जहां केजरीवाल को साधने की कोशिश कि है तो वहीं लेफ्ट राजनीति के तमाम अहम चेहरों से मिलकर उनका समर्थन लगभग हासिल कर लिया है। साथ ही समाजवादी राजनीति के उन तमाम वरिष्ठ लोगों से मुलाकात की है जो की अब भी समाजवादी में लगभग पूरा नियंत्रण रखते हैं।
खबर है कि आने वाले दिनों में वो समाजवादी राजनीति के बड़े नेता एमके स्टालिन, दलित राजनीति की बड़ी नेता मायावती और चंद्रशेखर आजाद, बंगाल की मुख्यमंत्री सह टीएमसी अध्यक्ष ममता बनर्जी, आदिवासी राजनीति के सीनियर नेता सह झारखंड के मुख्यमंत्री व जेएमएम अध्यक्ष हेमंत सोरेन और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी व उड़ीसा के मुख्यमंत्री सह बीजेडी अध्यक्ष नवीन पटनायक से भी मुलाकात करेंगे।
नीतीश की इन मीटिंगों के बीच बहुत से विश्लेषक का मानना है कि समाजवादी व आदिवासी और लेफ्ट राजनीति के लगभग सभी पार्टियां पहली से ही भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर करने के लिए संगठित हो कर नीतीश कुमार के चेहरे को आगे बढ़ाने की रणनीति बना चुकी है। जिसके पीछे एमके स्टालिन, केसीआर, शरद पवार, लालू यादव, शरद यादव और तेजस्वी यादव का हाथ माना जाता है।
अब नीतीश के लिए वास्तविक चैलेंज कांग्रेस समेत उनके अच्छे दोस्त समझे जाने वाले केजरीवाल, नवीन पटनायक, मायावती और ममता बनर्जी को साधना होगा, जिसमें अगर वो सफल हो गए तो ना सिर्फ ये भारतीय जनता पार्टी के लिए बड़ी चुनौती खड़ी हो जाएगी बल्कि बहुत से लोगों का मानना है कि 1975 में इंदिरा गांधी की अगुवाई में चल रही कांग्रेस सरकार के जरिए लगाए गए आपातकाल के बाद 1977 में जनता पार्टी की स्थापना ने कांग्रेस के लिए जो स्थिति पैदा की थी। जिसके बाद राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का उभार और प्रदेशों में राज्य पार्टियों की राजनीति का उभार हुआ, जिसने आइडेंटिटी की राजनीति जैसे दलित राजनीति, आदिवासी राजनीति, मुस्लिम कम्युनिटी राजनीति और खास कर समाजवादी राजनीति यानी ओबीसी राजनीति को भी आगे बढ़ाया। ठीक वैसी ही स्थिति का सामना 2019 में देश के बस 37 फीसद वोट पाकर सरकार बनाने वाली भाजपा भी करना पड़ सकता है। उसे जनता पार्टी जैसे महागठबंधन और 10 सालों से चल रही सरकार को एंटी इनकम्बेंसी का भी सामना करना पड़ सकता है।
(लेखक- सैफूर रहमान, स्वतंत्र पत्रकार, सह मानवाधिकार कार्यकर्ता, नई दिल्ली)
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