60-70 साल पहले ये जगह एक मैदान थी, जिसमें जगह-जगह तालाब थे। बड़ी-बड़ी घास, कुँए और कीकड़ के पेड़ थे। भेड़-बकरियां यमुना के किनारों से होते हुए उत्तर प्रदेश के पश्चिमी सीमा तक घास चरती थीं। 1947 के बंटवारे के बाद पाकिस्तान के पंजाब क्षेत्र से आए दलित लोगों को बसाने के लिए जगह की ज़रुरत पड़ी। देश की राजधानी की सीमा पर इस जगह को खाली पाकर सरकार ने लोगों को यहां बसने को कहा। इस इलाके को कस्तूरबा नगर का नाम भी मिला। आज इतने सालों बाद इन लोगों से प्रमाण पत्र और घर के काग़ज़ात मांगे जा रहे हैं। उनसे उनके यहाँ रहने के अधिकार पर दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) ने सवाल उठाया है। पिछले महीने, यानि अगस्त के पहले हफ्ते, उनके घरों के पास एक खम्बे पर अंग्रेजी में एक नोटिस चिपकाया गया। अंग्रेजी पढ़ने वालों की मदद से वहाँ के निवासियों को पता चला की DDA ने उनके घरों को अवैध घोषित किया है। DDA अब इन घरों को तोड़ने वाली है। तब से कस्तूरबा नगर के लोग तनाव में हैं।
इस जगह की कहानी बताते हुए, यहां के बड़े बुज़ुर्ग थकते नहीं। बंटवारे के बाद आये यह लोग 60-70 साल यहां रहने के बाद खुद को दिल्ली के निवासी मानते है। यही बात बताते हुए सुखविंदर कौर की 60 साल की बहन जिनकी शादी 40 साल पहले इस कॉलोनी के एक रिक्शा चालक से हुई, आज साग और सत्संग में खुश रहती है। जब अपने दर्द और दिक्कतों की बाते आगे आती है तब इतिहास को खंगालते हुए अपनी बात बताती है। "शादी के बाद हमें काम नहीं करने दिया गया। लेकिन आदमी के गुज़र जाने के बाद मैंने डोर-टू-डोर सामान बेचा और अपने सारे बच्चों को पढ़ाया। धीरे-धीरे पैसा इकठ्ठा करके इस घर की दिवार जोड़ी। यहां बहुत दुःख देखा है, लेकिन यहां अपनी ज़िन्दगी भी बसी है। हम और कहाँ जायेंगे?… बुरा वक़्त काटा है इस घर में, भूखे भी रहे है", ये कहते-कहते उनके अंदर की हलचल दिखाई दी। तत्काल उनकी सबसे बड़ी समस्या अपने छोटे लड़के की शादी है। वह बताती है कि, "मैंने रोका कराया और शादी की तैयारियां भी की। लेकिन अब लड़की वाले शादी तोड़ रहे है। यह कहके तोड़ रहे है कि लड़की को यहां कैसे भेजे जब घर ही नहीं रहेगा?" घर टूटने के डर से उन्होंने आस-पास में किराए का घर ढूढ़ना शुरू कर दिया। किराया न दे पाने के कारण मकान मालिक उनका सामान वपिस नहीं कर रहा। लेकिन आंटी आज भी बार-बार अपने कस्तूरबा नगर के घर को ही अपना मानना सही समझती है। "यहां इतनी उम्र देख ली। अब मेरी उम्र काम करने की नहीं रही। अब बेघर होना कैसे संभव है?"
आवास की समस्या सिर्फ सिर के ऊपर एक छत की ही नहीं है बल्कि लोगों के आपस के रिश्ते, सुरक्षा और स्थिरता का भी सवाल है। बेघर होना महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को सबसे ज़्यादा असुरक्षित स्थितियों में डालता है। कस्तूरबा नगर के लोग सालों से एक दूसरे के ख़ुशी, दुःख-दर्द और सम्बंधों में घुल-मिल गए है। रिश्ते गहरे है। DDA के नोटिस के बाद इस कॉलोनी में पानी की समस्या बढ़ गयी है। आज पानी की समस्या इतनी ज़्यादा बढ़ गयी है कि 3 हफ़्तों से टैंकर के सहारे जी रहे है, लोग एक दूसरे के लिए मददगार है। जब पानी का अधिकार एक मौलिक अधिकार है और सबके पास होना चाहिए, इस देश के राजधानी की एक कॉलोनी के लोग पानी के बिना एक दूसरे के सहारे बने हुए है। कस्तूरबा नगर के एक पक्के घर में रहने वाली 50 साल की महिला बताती हैं कि,"अब लोग एक दूसरे की मदद ले रहे है, अपने रिश्तेदारों या एक दूसरे से। अब जन सेवा चल रही है। अगर आधी दिहाड़ी पानी भरने में जा रही है तो मज़दूरी करके क्या कमाएंगे?" नोटिस आने के बाद पानी की समस्या बढ़ जाने पर उनका मानना है कि आज पानी की समस्या कल बिजली की भी होगी। वह मानती है कि, "इन्ही गरीब लोगों के चलते इस कॉलोनी में रौनक है। अगर उनको हटाया जाए तो अपनी गली की क्या रौनक रहेगी?" वह पूछती है कि,"जब में यहां शादी के बाद आई थी तब कुछ नहीं था यहां। लोगों ने अपने मेहनत से घर-दुकान बनायी है। क्या तब गवर्नमेंट सोयी हुई थी? आज क्यों उनको हटा रही है?"
कस्तूरबा नगर एक तरफ से शिवम एन्क्लेव के बड़े फ्लैटों से घिरा हुआ है और दूसरे तरफ विश्वास नगर से। DDA का इरादा है कि विश्वास नगर से निकलने वाली 60 फुटा रोड कस्तूरबा नगर के घरों को तोड़ती हुई शिवम एन्क्लेव के बगल से निकलकर बाहर के चौराहे तक जाए। इसी के चलते 2019 में DDA ने अगस्त के पहले हफ्ते वहाँ के कई सारे झुग्गियों को तोड़ा।
वहां के झुग्गियों में रहने वाले 55 साल के लाखन कबाड़ी ने बताया कि ये सब बड़े फ्लैट पिछले 30 साल में तेज़ी से बने है। इसके पहले यहां वह तालाब में मछली पकड़ते थे। DDA के द्वारा यहां लगभग 86 झुग्गियां तोड़ी गयी थी, जिसमें उनकी भी एक झुग्गी थी। उस समय झुग्गियों में रहने वालों से उनका प्रमाण पत्र माँगा गया था। उनका रोज़गार यहीं था, लेकिन पुलिस के आगे लड़ने की हिम्मत झुग्गीवालों की नहीं बन पायी। पैसे देने पर उनको पश्चिम दिल्ली के द्वारका में 35 गज के छोटे-छोटे फ्लैट मिले, जिसमें एक पूरे परिवार को रहना था। लाखन भाई मध्य प्रदेश के आदिवासी है। उनको 31,000 रुपए द्वारका के घर के लिए देने पड़े। आज उस घर में उनके दो बड़े बेटे, उनकी पत्नी और बच्चे रह रहे है। जगह की कमी के कारण लाखन भाई और उनकी पत्नी वापस कस्तूरबा नगर में आ बसे है। अन्य लोगों को द्वारका में घर के लिए 1,31,000 रुपए देने पड़े। तब भी रोज़गार के लिए लोगों को यहीं आना पड़ता है। जिनकी झुग्गी तोड़ी गयी उनमे से सभी को घर नहीं मिले। उनमे से अभी भी आसमा और हिना जैसे बहुत से परिवारों के लोग कस्तूरबा नगर के पीछे की सब्ज़ी मंडी में रेहड़ी लगाते है। आसमा बताती है की,"मेरे पास सभी प्रमाण पत्र थे जैसे की राशन कार्ड,पहचान पत्र,बिजली का बिल,सीवर कनेक्शन आदि। DDA ने मेरे प्रमाण पत्र को इंकार करते हुए कहा की यह बहुत नए राशन कार्ड है"। यह तर्क आसमा को आज भी समझ नहीं आ रहा है। दूसरी तरफ हीना बताती है कि 1,31,000 रुपए देने के बाद भी उनको द्वारका में फ्लैट नहीं मिला। वह आज भी विश्वास नगर के झुग्गी में रहती है। यह भेदभाव क्यों, ये सवाल सभी के जुबां पर है।
सरकार की PM-UDAY यानि प्रधान मंत्री अनाधिकृत आवास अधिकार योजना का नारा है – 'जहां झुग्गी, वहाँ मकान'। यह नारा न सिर्फ खोखला नज़र आ रहा है बल्कि इस योजना के ऊपर हाल ही में भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे है। यह पता चल रहा है कि योजना के तहत घर के रजिस्ट्री के लिए 1 से 10 लाख रुपए घूस ली जा रही है।
इन हालातों में दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) के नोटिस पर भी सवाल उठते है। इतने सालों से बसे लोग जिनके सभी प्रमाण पत्र है और शहर की अन्य सुविधाऐं भी है,आज कैसे एक सड़क के नाम पर इन लोगों को उजाड़ा जा रहा है? इसका जवाब बगल के शिवम एन्क्लेव से आता है। वहाँ के निवासियों की गाड़ियों के पार्किंग की जगह को अहमियत देते हुए DDA ने वहाँ से सड़क निकालने के बजाय उस रास्ते से सड़क निकालना सही समझा जहां कस्तूरबा नगर के गरीब मेहनतकश जनता सदियों से जी रही है। कस्तूरबा नगर की 60 साल की निवासी निर्मला और उनके बेटे अनिल बताते है कि DDA का नक्शा गलत है। वह राजनैतिक दबाव से बनाया गया है। निर्मला आंटी ने पूछा कि, "जब यहां सीवर लाइन है,सड़क बनी है,बिजली, पानी आदि के कनेक्शन है, जब इतने सालों में ये सब सुविधा यहां आयी है, आज क्यों इसे अवैद्य बताया जा रहा है?" वह बताती है कि, "अगर घर टूटेंगे तो लोग मरेंगे। मेरी भी एक विकलांग लड़की है। मेरे पैर सूजे रहते है। इस उम्र में मैं एक नया घर कैसे बना पाऊंगी? बगल के योगी राज्य में बुलडोज़र चल रहा है। वो ही लोग यहां पर भी बुलडोज़र चलाना चाहते है। हम लोगों के घर तोड़के वह कैसे जियेंगे? मोदी जब से बैठा है तब से नोट-बंदी, कॉरोनाकाल आदि आपदाएं आयी है। और आज लोग भूख से मर रहे है। खाना भी छीन लिया है। ये सरकार देश को क्या सुधारेगी?" इतिहास को याद करते हुए वह बताती है कि, "मेरी डोली सिरसा से यहां आयी थी। हम यहीं रहना चाहते हैं। यही मरने दो। हम और कहाँ जायेंगे?" उनकी पड़ोसन प्रीतो देवी उनकी बातों को जोड़ते हुई बताती है कि,"मार तो हर तरफ से गरीबों को ही पड़ रही है। गरीबों से ही कमा रहे है और उन्ही को मार भी रहे है। गरीब काम न करे तो क्या ये लोग रह लेंगे?… अगर टक्कर लेना है तो DDA कोठियों में रहने वालों से लें!" निर्मला आंटी की बेटी याद दिलाती है कि,"यह सारा घर मेहनत से बनाया गया घर है जिसको बनाने में लोगों ने अपनी उम्र लगा दी। यहां पीढ़ियां बसी हैं और पले-बड़े है। इतने बुढ़ापे में घर पे जीने के बजाय लोगों को बेघर किया जा रहा है। क्या ये न्याय है?"
पीढ़ियों के भविष्य को लेकर परेशान कस्तूरबा नगर के निवासी पढाई-लिखाई पर ज़ोर देते आये है। आज जब वह बगल के फ्लैट वालों के आलीशान घरों में काम करने जाते है तब वह एक बदले हुए माहौल का सामना करते है। एक तरफ कस्तूरबा नगर के लोगों हर रोज़ रोटी के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है।
वहीं दूसरी तरफ जिनके घरों में काम करते है वह कुछ चंद मिनटों में खाना आर्डर करते है। वहीं काम करती किरण का कहना है कि लोगों की जिंदगियां कितनी अलग है। वह बताती है कि फ्लैटवाले कई सारे डिब्बे मसालों के रखते है लेकिन न उनको उन डिब्बो में क्या है पता रहता है और न वह खाना बनाते है। मन न लगने पर बनाये हुए खाने को कामवाली को देकर या फेंककर अपने लिए नए-नए तरह की चीज़ें आर्डर कर लेते है।
इसी तरह विकास के नाम पर शहरों में एक तरफ गरीब मेहनतकश लोगों के घरों को तोड़ा जा रहा है और दूसरी तरफ बड़े घरों के अवैद्य विस्तारों को नियमित किया जा रहा है। निर्मला आंटी की बेटी की बात जुड़ जाती है जब वह पूछती है कि, "इतना पैसा देके इतना पढ़ने का क्या फ़ायदा जब सब काम पहुँच और सिफारिश से होता है?" आस-पास नए स्कूल, कॉलेज, फैक्ट्री, इंडस्ट्री खुलने के कारण रोज़गार की उम्मीद बढ़ गयी है लेकिन कस्तूरबा नगर के युवाओं को नियमित रोज़गार अभी तक नसीब नहीं। स्थाई विधायक और राजनैतिक दलों के लिए यह समस्याएं मतदान के समय की बातें है। विश्वास नगर का MLA ओम प्रकाश शर्मा खुद DDA का मेम्बर था और DDA की योजना को बढ़ाने का काम कर रहा था। इस माहौल में प्रीतो देवी का कहना है कि,"इंसाफ होना चाहिए" बड़े नेता और उनके लोगों के घरों में भी अवैद्य विस्तार किया गया है। उनके घर की अवैद्य जगह क्यों नहीं टूट रही? हम लोगों की तो थोड़ी-थोड़ी सी ही जगह है। गरीब ही क्यों मारे जाते है? सदियों से हज़ारों बार गरीब लोगों को ऐसे ही निकालकर फेंका गया है। ये सब घर हमारी मेहनत से बने हैं। वह लोग अमीर है और अमीर से अमीर होते जा रहे है। हम लोग इतने सालों बाद भी वहीं के वहीं है। और अब ये लोग हमारे घर तोड़ने पे उतर आये है। हम मज़दूर मेहनतकश लोग हड़ताल करेंगे तो क्या ये चल लेंगे?"
आज कस्तूरबा नगर के लोग विस्थापन का सामना क्यों कर रहे है? देश में जगह-जगह पर मेहनतकश लोगों को उनके बस्ती, कॉलोनी और घरों से झुग्गी और अवैद्य कॉलोनी हटाने के नाम पर विस्थापित किया जा रहा है। खदानों से संसाधनों की लूट के लिए या उनको देश से बाहर भेजने के लिए बड़े मल्टी-लेन हाईवे बनाने के नाम पर या हाइड्रो-पावर प्रोजेक्ट्स जैसी साम्राज्यवादी नीतियों के चलते इस देश के हज़ारों लाखों लोगों की जमीनें छीनी जा रही है। ये ही हज़ारों लाखों लोग इस देश के भीतर दुनिया के सबसे ज्यादा विस्थापित लोगों की संख्या में है। आज जब लोग शहर में काम के लिए आते है तब फिर स्मार्ट सिटी के नाम पर विस्थापित होते है। चाहे देहात में हो या शहर में,मेहनतकश लोगों को विकास के नाम पर हटाया जा रहा है। यह विकास सिर्फ साम्राज्यवादी पूंजी और उनके दलालो के लिए है। दिल्ली जैसे शहर का विवादित ड्राफ्ट रीजनल प्लान-2041 यही दर्शाता है। इस प्लान के तहत झुग्गी-मुक्त शहर बनाकर एयर एंबुलेंस, हेलीटैक्सी, रोड, रेल और जलमार्ग के जरिये तेज गति संपर्क की परिकल्पना की गई है। तेज रफ्तार रेल के जरिये 30 मिनट में एनसीआर के बड़े शहरों के बीच आवागमन करने का विशेष उपाय करने पर जोर है। ये योजना सिर्फ उन लोगों के लिए है जो हवाई जहाज, बुलेट ट्रेन और बड़े कारों में सफर करते है। कस्तूरबा नगर, जो की नेशनल हाईवे 9(NH9) के पास पड़ता है और उत्तर प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्र से लगा हुआ है, एक मूल्यवान जगह बन चुका है। आज यह ज़मीन पूंजीपतियों और उनके दलालों के लिए अतिरिक्त मुनाफा कमाने का एक उपयुक्त ज़रिया है।* MCD और DDA जैसे संस्थाएं आज के राजनैतिक दलों के नेतृत्व में कॉर्पोरेट-दलाल-सामंती गठजोड़ को मजबूती से बनाये रखने का काम कर रही हैं। अवैद्य कॉलोनियों का डेमोलिशन एक राजनैतिक हत्या है। ऐसा सिर्फ कस्तूरबा नगर में ही नहीं,बल्कि दिल्ली के अन्य जगहों जैसे खोरी,ग्यासपुर,मदनपुर खादर, जहांगीरपुरी,शाहबाद डेरी,बाबरपुर, सुन्दर नगरी आदि कई जगहों पर हो रहा है।
आज DDA हो या सरकार की और कोई इकाई,जन-विरोधी कायदे-कानून लागू कराने पर डटी है। इसके खिलाफ कस्तूरबा नगर के लोग अपने इतिहास और सामूहिक एकता के बल पर खड़े हैं। 26 साल के विक्की और उनके जैसे युवा कस्तूरबा नगर के निवासियों में से ऐसे हैं जो सामूहिक तरीके से समस्यायों के हल ढूंढ रहे हैं। चाहे वह पानी का टैंकर हो या डेमोलिशन के खिलाफ एकता,विक्की का कहना है कि एकजुटता ही हमें आगे ले जाएगी। "झुग्गियां टूटते समय अगर एकजुट होते तो शायद आज ये नौबत आयी न होती", यह सोच आज व्यापक है। कॉलोनी के युवा और छात्र इस एकजुटता को बनाने की कोशिश में हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय का भगत सिंह छात्र एकता मंच (BSCEM) यहाँ सक्रिय है और निवासियों के साथ जन पक्षधरता और जुझारूपन के साथ जुड़ा है। संघर्ष और बदलाव की बात करते भगत सिंह की बात युवायों को आकर्षित कर रही है। 1929 में भगत सिंह ने कहा था "आम तौर पर लोग जैसी चीजें हैं उसके आदी हो जाते हैं। और बदलाव के विचार से ही कांपने लगते हैं। हमें इसी निष्क्रियता की भावना को क्रांतिकारी भावना में बदलने की जरूरत है।" चाहे DDA हो या जल विभाग,आज का युवा अन्याय के खिलाफ खड़े होने से डरता नहीं। प्रीतो देवी का यह कहना था कि, "इससे लड़ने का एक ही रास्ता है, हमारी एकता! हम सब को सड़क पर उतर जाना है। अपने घरों को बचाने के लिए और अपने बच्चों के भविष्य के लिए कुर्बानी देनी पड़ सकती है। एक-आधे इस लड़ाई में जान भी दें लेकिन हमारे बच्चे तो अच्छी ज़िन्दगी जियेंगे। जैसे चिड़िया सर्दियों के तैयारी में अपना घोसला बनाती है, उसी सर्दियों की तैयारी में हम सब ने अपने घर जोड़ के बनाये है। अगर घर ही नहीं रहेगा तो हम कहाँ जायेंगे?"
[यह लेख सुहाना रमेश द्वारा लिखा गया है।]
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