लेख- एचएल दुसाध
’बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ और ‘संविधान बचाओ संघर्ष समिति’ की ओर से दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में गत 27 अगस्त को ‘डाइवर्सिटी डे’ कार्यक्रम आयोजित हुआ। पिछले कुछ सालों से कोरोना सहित एकाधिक अत्याज्य कारणों से इसका आयोजन नियत तिथि 27 अगस्त के बजाय अन्य तिथियों पर हो रहा था. विगत वर्षों की तुलना में एक बड़ा व्यतिक्रम यह हुआ कि इसमें बुद्धिजीवियों के मुकाबले नेताओं को ज्यादा तरजीह दी गयी. इसके पहले सामान्यतया लेखक-पत्रकार ही आयोजन के अध्यक्ष, मुख्य व विशिष्ट अतिथि होते रहे. पर, इस बार ऐसा नहीं हुआ. ऐसा इसलिए कि 17वें डाइवर्सिटी डे का आयोजन लोकसभा चुनाव 2024 को दृष्टिगत रखकर किया गया, इसलिए नेताओं को तरजीह दी गयी. मुख्य अतिथि के रूप में केसी त्यागी (पूर्व सांसद, मुख्य प्रवक्ता एवं सलाहकार जदयू ) व उद्घाटनकर्ता रहे कैप्टेन अजय सिंह यादव (राष्ट्रीय अध्यक्ष, एआईसीसी, ओबीसी डिपार्टमेंट) और अध्यक्षता आम आदमी पार्टी के पूर्व मंत्री व वर्तमान में विधायक राजेन्द्र पाल गौतम ने की। विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित रहे एआईसीसी के एससी डिपार्टमेंट के चेयरमैन राजेश लिलोठिया और सीपीआई की ऐनी राजा, जो कुछ अत्याज्य कारणों से शिरकत न कर सके. लेकिन राजनीतिक दलों से जुडी शख्सियतों को तरजीह देने के बावजूद लेखक एक्टिविस्टों की उपस्थिति प्रायः पहले की भांति रही. इस बार भी प्रो रतनलाल, चंद्रभान प्रसाद, प्रो. अवधेश कुमार, प्रो. सूरज मंडल, हीरालाल राजस्थानी, शीलबोधि, आइके गंगानिया, डॉ. अनिरुद्ध कुमार सुधांशु, निर्देश सिंह, शम्भूनाथ सिंह, डॉ. सोनू कुमार भरद्वाज, दिलीप पासवान, नन्दलाल मांझी जैसे चर्चित लेखक, पत्रकार और एक्टिविस्टों ने अपनी गरिमामयी उपस्थिति से डाइवर्सिटी डे उत्सव में चार चाँद लगाए. भारी सुखद उपस्थिति रही मुम्बई के सुनील खोब्रागडे की. प्रायः डेढ़ दशक तक ‘महानायक’ जैसा दैनिक अखबार निकालने वाले खोब्रागडे अचानक आयोजन में उपस्थित होकर सबको सुखद आश्चर्य में डाल दिए।
आगामी लोकसभा चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए 17 वे डाइवर्सिटी डे का आयोजन हुआ था, इसलिए परिचर्चा का विषय रखा गया था ’लोकसभा चुनाव 2024 को सामाजिक न्याय पर केन्द्रित करना क्यों है जरुरी!’ प्रायः सभी ने इसी पर अपने संबोधन को केन्द्रित रखा. मुख्य अतिथि केसी त्यागी ने इस विषय पर अपने संबोधन को केन्द्रित करते हुए कहा ,’ क्यों आज तक सामाजिक न्याय राजनीति के केंद्र में नहीं आ पाया? क्यों आज भी हम सामाजिक न्याय की बातें सिर्फ कर रहे हैं और आज भी सरकार का डाटा कहता है कि एक तिहाई ऐसी जगह हैं जहां पर आज भी दलित समाज के लोग हाथ से अस्वच्छता साफ करने के लिए विवश हैं।
उन्होंने आगे कहा, ’उनकी पार्टी विपक्ष के इंडिया एलियांज का हिस्सा है तो इस बार इंडिया एलायंस के मेनिफेस्टो में जातीय जनगणना का मुद्दा प्रमुख होगा। जब तक सामाजिक न्याय की बात नहीं होगी, तब तक न्याय मिलना संभव नहीं होगा। उन्होंने अपने संबोधन में निजी क्षेत्र में आरक्षण पर जोर दिया.
कैप्टन अजय सिंह यादव ने भी अपने संबोधन में सामाजिक न्याय पर जोर देते हुए जो कुछ कहा उससे लगा 2024 के लोकसभा चुनाव सामाजिक न्याय पर केन्द्रित हो सकता है. सामाजिक न्याय की दिशा में कांग्रेस ने रायपुर अधिवेशन से लेकर कर्नाटक चुनाव में उठाए गए सामाजिक न्याय के एजेंडे पर प्रकाश डाला. कांग्रेस किस तरह जाति जनगणना के समर्थन में है और राहुल गाँधी ने किस तरह कर्नाटक में जिसकी जितनी आबादी, उसकी उतनी हिस्सेदारी के जरिए सामाजिक न्याय का बड़ा सन्देश दिया है, इस बात को भी उन्होंने याद दिलाया।
विशिष्ट अतिथि प्रो. रतनलाल ने अपने संबोधन में इस बात के लिए अफसोस जताया कि दलित समाज के जागरूक लोगों का अधिकतम ध्यान अपने समाज की आर्थिक मुक्ति के बजाय अधिकतम जोर हुक्मरान बनाने पर है. इस क्रम में उन्होंने कहा,’ केवल हुक्मरान बनने का सपना मत देखिए, हुक्मरान बनने के लिए नेता बनने के लिए बहुत सी चीजों की जरूरत पड़ती है जो कि हमारे पास नहीं है। हर तरीके के पावर सेंटर में पहुंचना जरूरी है, लेकिन हमसे सबसे बड़ी गलती यह कि हुई कि हमने केवल नेता बनने पर ध्यान लगाया ना की और पावर सेंटर में पहुंचने की कोशिश की।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे आम आदमी पार्टी के राजेंद्र पाल गौतम ने कहा-,’ हमारी पार्टी आम आदमी पार्टी भी विपक्ष के इंडिया एलियांज का हिस्सा है। उनको फर्क नहीं पड़ता कि देश का अगला प्रधानमंत्री कौन बनेगा, लेकिन जो भी बने उसे सामाजिक न्याय के मुद्दे पर काम करना पड़ेगा। चाहे सरकार बदले या ना बदले हमारा काम सामाजिक न्याय के लिए लड़ना था है और रहेगा। बाबासाहब भीमराव अंबेडकर के संविधान को बदलने की जो बात कर रहे हैं हम उसके खिलाफ हमेशा खड़ा रहेंगे।
दीप प्रज्ज्वलन और बहुजन महापुरुषों के चित्र पर पुष्पार्पण के बाद कार्यक्रम की शुरुआत बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के संस्थापक एच एल. दुसाध के विषय प्रवर्तन से हुई. उन्होंने कहा कि नई सदी के शुरुआत में जब नवउदारीकरण की नीतियों से भयाक्रांत होकर तमाम दलित संगठन निजीक्षेत्र में आरक्षण की मांग को लेकर आन्दोलन चला रहे थे, वैसे समय में चर्चित दलित चिन्तक चंद्रभान प्रसाद ने अमेरिका के डाइवर्सिटी सिद्धांत से प्रेरणा ले कर दलितों के लिए नौकरियों से आगे बढ़कर उद्योग, व्यापार में हिस्सेदारी का मुद्दा उठाया. इसी विषय पर 2002 के जनवरी में मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के सौजन्य से ऐतिहासिक भोपाल सम्मलेन आयोजित हुआ, जहां से डाइवर्सिटी केन्द्रित 21 सूत्रीय दलित एजेंडा जारी हुआ, जिसे ऐतिहासिक भोपाल घोषणापत्र भी कहते हैं. भोपाल घोषणा पत्र में दलितों को नौकरियों से आगे बढ़कर सप्लाई, डीलरशिप व ठेकेदारी इत्यादि समस्त क्षेत्रों हिस्सेदार बनाने का निर्भूल नक्शा पेश किया गया था, जो देश के समस्त बुद्धिजीवियों के साथ तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम केआर नारायण की भी दृष्टि आकर्षित की और उन्होंने इसे लागू करने के लिए सरकारों के समक्ष अपनी मंशा जाहिर की. बाद में जब भोपाल सम्मलेन में किए गए वादे के मुताबिक दिग्विजय सिंह 27 अगस्त, 2002 को समाज कल्याण विभाग की खरीददारी में कुछ दलित उद्यमियों को सप्लाई का आर्डर जारी किया। डाइवर्सिटी का मुद्दा दलितों में चर्चा का बहुत बड़ा विषय बन गया. उनमें यकीन जन्मा कि यदि सरकार चाहे तो अमेरिकी दलितों (कालों) की भांति भारत में भी दलितों को नौकरियों के साथ सप्लाई, डीलरशिप व ठेकेदारी इत्यादि में आरक्षण मिल सकता है.
इसके बाद तो ढेरों दलित अपने-अपने राज्य में डाइवर्सिटी लागू करवाने की लड़ाई में जुट गए. पर, कुछ वर्षों के प्रयास के बाद वे थक कर बैठ गए. वैसे में भोपाल सम्मेलन से निकले डाइवर्सिटी के विचार आगे बढ़ाने के लिए 15 मार्च, 2007 में बहुजन लेखकों का संगठन ’बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’ (बीडीएम) वजूद में आया और मध्य प्रदेश में लागू सप्लायर डाइवर्सिटी से प्रेरणा लेने के लिए हर वर्ष 27 अगस्त को “डाइवर्सिटी डे” मनाना शुरू किया और आज हमलोग 17 वां डाइवर्सिटी डे मना रहे हैं.
आज भोपाल सम्मलेन से निकला डाइवर्सिटी का विचार काफी आगे बढ़ चुका है. इसका प्रमाण यह है कि अब तक कई सरकारें बहुजनों को ठेकों में आरक्षण दे चुकी हैं. इस सिलसिले में सबसे बड़ा मिसाल झारखण्ड में कायम हुआ है, जहां 25 करोड़ तक के ठेकों में आरक्षण है.कई राज्य सरकारों ने धार्मिक न्यासों और मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति में डाइवर्सिटी लागू की है, जिसका सबसे बड़ा दृष्टान्त तमिलनाडु में स्थापित हुआ है, जहां 36 हजार मंदिरों के पुजारियों की नियुक्ति में एससी, एसटी, ओबीसी और महिलाओं के आरक्षण का मार्ग प्रशस्त हो चुका है. हाल में राजस्थान की गहलोत सरकार ने इस दिशा में साहसिक कदम उठाया है. सबसे बड़ी बात यह हुई कि देश के अधिकांश चिन्तक एक्टिविस्ट आज अपने-अपने तरीके से नौकरियों से आगे बढ़कर सभी क्षेत्रों में जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी की बात उठा रहे हैं. खुद कर्नाटक चुनाव में सामाजिक न्याय की राजनीति के नए नए आइकॉन राहुल गांधी भी जिसकी जितनी संख्या की बात उठा चुके हैं.
लेकिन मौजूदा केंद्र सरकार विगत नौ सालों में जिस तरह जुनून के साथ तमाम संस्थाओं को निजी हाथों में दे रहे हैं, उससे ऐसे क्षेत्र ही नहीं बचेंगे जहां डाइवर्सिटी लागू करने का स्कोप हो. केंद्र सरकार की नीतियों के कारण देश में सामाजिक अन्याय का सैलाब आ गया है. ऐसे में मौजूदा सरकार सत्ता से आउट करना इतिहास की सबसे बड़ी जरूरत बन गयी है.पर, ध्यान रहे इस सरकार को महंगाई, बेरोजगारी, साम्प्रदायिकता, आवारा पशु, कानून व्यवस्था और भ्रष्टाचार इत्यादि जैसे रूटीन मुद्दे से सत्ता से आउट नहीं किया जा सकता। आउट किया जा सकता है सिर्फ और सिर्फ सामाजिक न्याय के मुद्दे के जोर से सामाजिक न्याय के पिच पर चुनाव को केन्द्रित करने यह सरकार हारने के सिवाय कुछ कर ही नहीं सकती. इसीलिए 17वें डाइवर्सिटी डे पर परचर्चा का विषय रखा गया है लोकसभा चुनाव 2024 को सामाजिक न्याय के मुद्दे पर केन्द्रित करना क्यों है जरुरी!
बहरहाल हर साल डाइवर्सिटी डे के अवसर पर बीडीएम की ओर से कुछ किताबें रिलीज करने साथ कुछ व्यक्तियों को डाइवर्सिटी के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए डाइवर्सिटी मैन व वुमन ऑफ द इयर से सम्मानित किया जाता रहा है. इस परम्परा का निर्वहन करते हुए 17वें डाइवर्सिटी डे के अवसर पर चर्चित अधिवक्ता और पॉलिटिकल- सोशल थिंकर आर आर बाग को न्यायपालिका में डाइवर्सिटी लागू करवाने के बलिष्ठ प्रयास तथा स्त्री-काल चौनल व पत्रिका के जरिए शक्ति के स्रोतों में जेंडर डाइवर्सिटी लागू करवाने के सराहनीय प्रयास के लिए संजीव चन्दन को जहां ‘डाइवर्सिटी मैन ऑफ द इयर’ से सम्मानित किया गया, वहीं द मूकनायक की संस्थापक और एडिटर इन चीफ मीना कोटवाल को ‘डाइवर्सिटी वुमन ऑफ द इयर’ के खिताब से नवाजा गया।
डाइवर्सिटी डे की परम्परा का पालन करते हुए हर बार की तरह इस बार भी कुछ किताबें रिलीज हुई .इस अवसर पर अकेले एच.एल. दुसाध की लिखी व सम्पादित सात किताबें रिलीज हुईं- ‘आजादी के अमृत महोत्सव परः बहुजन डाइवर्सिटी मिशन की अभिनव परिकल्पना’, ‘मिशन डाइवर्सिटी 2021’, ‘मिशन डाइवर्सिटी-2022’, ‘यूपी विधानसभा चुनाव 2022ः सामाजिक न्याय की राजनीति का टेस्ट होना बाकी है’, ‘डाइवर्सिटी पैम्फलेट’, ‘राहुल गांधीः कल, आज और कल’ तथा ‘सामाजिक न्याय की राजनीति के नए आइकॉन- राहुल गाधी’. किन्तु इन सात किताबों से भी बढ़कर जो चीज रिलीज हुई वह रही बहुजन डाइवर्सिटी मिशन और संविधान बचाओं संघर्ष समिति की और जारी- ‘इंडिया के समक्ष हमारी अपील’,जिसे रिलीज किया के.सी. त्यागी ने. इसे सभागार में उपस्थित सभी श्रोताओं को भी दिया गया। इस विषय में दुसाध ने कहा जब- जब लोकसभा का चुनाव आता है बीडीएम की ओर से राजनीतिक दलों के समक्ष इस किस्म की अपील जारी की जाती रही है. उसी परम्परा का पालन करते हुए आज यह अपील जारी की जा रही है. हो सकता है बीडीएम अन्य संगठनों के साथ मिलकर निकट भविष्य में विभिन्न प्रदेशों की राजधानियों से भी ऐसी अपील जारी करे. तो यह है वह अपील जिसे आयोजकों की ओर से 7 किताबों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण दस्तावेज बताया गया.
एक ऐसे समय में जबकि भाजपा नीत सरकार जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हित में हिन्दू राष्ट्र के नाम पर हजारों वर्ष पूर्व की भांति हिन्दू धर्म का प्राणाधार वर्ण-व्यवस्था के तहत देश को परिचालित करने व बाबा साहब का संविधान बदलने की परिकल्पना कर रही है। हजारों वर्ष से सामाजिक अन्याय का शिकार रहे तबकों को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए हमारे महान राष्ट्र निर्माताओं ने आरक्षण का जो प्रावधान किया उस आरक्षण के खात्मे के लिए सरकारी संस्थानों को अंधाधुन बेच एवं संविधान के उद्देश्यों को व्यर्थ रही है। संघ के लक्ष्यों को पूरा करने लिए जुनून के साथ नफरत का सैलाब बहाकर देश की एकता और अखंडता को छिन्न-भिन्न कर रही है। स्वाधीन भारत के ऐसे भयावह दौर में इंडिया (इंडियन नेशनल डेवलपमेंट इन्क्लूसिव अलायंस) का वजूद में आना हम नई सदी की सबसे सुखद घटनाओं में एक मानते हैं और विश्वास करते हैं इससे हमारा लोकतंत्र सबकी भागीदारी वाला लोकतंत्र बनेगा। सामाजिक अन्याय मुक्त व समतापूर्ण वह भारत आकार लेगा, जिसका सपना हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने देखा था. ऐसे में हम दलित, आदिवासी, पिछड़ों एवं इनसे धर्मान्तरित अल्पसंख्यकों तथा आधी आबादी की आशा और आकांक्षा का प्रतीक बन चुके इंडिया के लिए अपना सर्वस्व देने की घोषणा करते हैं. आज सामाजिक अन्याय तथा साप्रदायिक नफरत का सैलाब बहाने वाली भाजपा को सत्ता से हटाना इतिहास की सबसे बड़ी मांग है. इसे देखते हुए हम इंडिया के समक्ष कुछ विनम्र प्रस्ताव रख रहे हैं.
1 - हम सबसे पहले इंडिया में शामिल उन दलों के प्रति विशेष आभार प्रकट करते हैं, जिन्होंने कभी संघ के राजनीतिक संगठन भाजपा के साथ सत्ता में भागीदारी नहीं किया एवं विपरीत हालातों में भी उसकी देश और बहुजन विरोधी नीतियों के खिलाफ अविराम संघर्ष चलाते रहे.
2 - भाजपा को हराने के लिए सबसे जरूरी है कि इंडिया उसे सामाजिक न्याय की पिच पर खेलने के लिए बाध्य करे. क्योंकि नई सदी का इतिहास इस बात का साक्षी है कि चुनाव को सामाजिक न्याय पर केन्द्रित करने पर भाजपा हार के सिवाय कुछ नहीं कर सकती. भाजपा को सामाजिक न्याय कि पिच पर खिलाकर बड़ी आसानी से उसे मात दिया जा सकता है, इसका उज्जवल दृष्टान्त 2015 के बिहार तथा 2023 के कर्नाटक विधानसभा चुनावों में स्थापित हो चुका है.
3 - हम मानते हैं कि भाजपा दलित, आदिवासी, पिछड़ों को अपने नफरती राजनीति के नशे में इस कदर मतवाला बना दी है कि वे आरक्षण सहित अपने ढेरों अधिकार खोने तथा गुलामों की स्थिति में पहुंचने से भी निर्लिप्त हो गए हैं. कश्मीर फाइल्स, द केरला स्टोरी तथा गदर 2 जैसी साधारण प्रोपोगंडा फिल्मों की असाधारण सफलता मोदी राज में विकसित हुई नफरती मानसिकता का ही परिणाम है, जिसे बहुत ही सुनियोजित तरीके से विकसित किया गया है. बहुजन इसलिए नफरती राजनीति के नशे मतवाला हो गए क्योंकि जिस सामाजिक न्याय की राजनीति के जरिए अप्रतिरोध्य भाजपा को लाचार और कमजोर किया जा सकता है, उस सामाजिक न्याय की राजनीति को हवा देने का काम पिछले एक दशक से नहीं के बराबर हुआ. ऐसे में बहुजनों का यह घातक नशा सिर्फ उग्र सामाजिक न्याय की राजनीति के जोर से ही उतारा जा सकता है, ऐसा हमारा मानना है.
4 - हम जून, 2023 में अमेरिकी दौरे पर राहुल गांधी की कही इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि ‘भाजपा को हराने के लिए सिर्फ विपक्षी एकजुटता ही काफी नहीं है। जरूरत वैकल्पिक विजन की है’. चूँकि भाजपा का विजन विशुद्ध सामाजिक न्याय विरोधी विजन है, इसलिए इंडिया भाजपा की हार सुनिश्चित करने के लिए उसके वैकल्पिक विजनः सामाजिक न्यायवादी विजन’ के साथ 2024 के चुनाव में उतरे.
5 - हम मानते हैं कि महंगाई, बेरोजगारी, साम्प्रदायिकता, आवारा पशु, स्वास्थ्य व कानून व्यवस्था जैसे रूटीन मुद्दे तथा किसान और भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाकर भाजपा का कुछ भी नहीं बिगाड़ा जा सकता. 2019 के लोकसभा चुनाव में किसानों का आन्दोलन तथा रफायल जैसे भ्रष्टाचार के मुद्दे खूब उछाले गए पर विपक्ष भाजपा को रिकॉर्ड सीटें जीतने से नहीं रोक पाया. परीक्षित सच्चाई यही है कि भाजपा सिर्फ सामाजिक न्याय के मुद्दों के समक्ष लाचार हो सकती है, जिसका ताजा दृष्टांत इस वर्ष कर्नाटक विधानसभा चुनाव में स्थापित हुआ है।
6 - मंडल के खिलाफ उभरे मंदिर आन्दोलन के जरिए नफरत की राजनीति को तुंग पर पहुंचा कर अप्रतिरोध्य बनी भाजपा के नरेंद्र मोदी ने जिस तरह वर्ग संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए राजसत्ता का इस्तेमाल हजारों साल के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हित में किया है, वह नई सदी में वर्ग संघर्ष के इतिहास की अनोखी घटना है. इसी सुविधाभोगी वर्ग के हित में उन्होंने जिस तरह विनिवेश नीति को हथियार बनाकर सरकारी संस्थाओं एवं परिसंपत्तियों निजी हाथों में बेचा य इसी वर्ग के हित में जिस तरह संविधान के उद्देश्यों को व्यर्थ करने के साथ बहुजनों के आरक्षण को कागजों की शोभा बनाया। इसी वर्ग के हित में जिस तरह संविधान की अनदेखी करते हुए आनन-फानन में इडब्ल्यूएस के नाम पर सुविधाभोगी वर्ग के कथित गरीबों को आरक्षण सुलभ कराने के साथ जिस तरह लैटरल इंट्री के जरिये इस वर्ग के अपात्र लोगों को आईएएस जैसे उच्च पदों पर बिठाने का असंवैधानिक प्रावधान रचा है , उससे यह मानकर चलना चाहिए कि भारत के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के लोग आगामी 25 वर्षों तक अपना वोट भाजपा को छोड़कर अन्य किसी भी दल को ,किसी भी सूरत में नहीं देने जा रहे हैं. ऐसे में इंडिया जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के वोटों से मोहमुक्त होने की मानसिकता विकसित करते हुए सारा जोर उन दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित अल्पसंख्यक समुदाय के वोटरों पर लगाये जिनका मोदी-राज में सर्वनाश हुआ है।
7 - जिस सामाजिक न्याय के जोर से शर्तिया तौर पर भाजपा को शिकस्त दिया जा सकता है उस सामाजिक न्याय की परिभाषा पर इंडिया एक बार विचार कर ले. वैसे तो सामाजिक न्याय की कोई निर्दिष्ट परिभाषा नहीं है किन्तु विभिन्न समाज विज्ञानियों के अध्ययन के आधार पर कहा जाय तो शासक वर्ग द्वारा समाज में विद्यमान विभिन्न समूहों में कुछेक का जाति, नस्ल, धर्म, लिंग इत्यादि कारणों से शक्ति के स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक- शैक्षिक व धार्मिक ) से जबरन बहिष्कार ही सामाजिक अन्याय कहलाता है और शक्ति के स्रोतों से दूर धकेले गए लोगों को कानून शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी दिलाना ही सामाजिक न्याय है. भारत में सामाजिक अन्याय का विशाल अध्याय उस हिन्दू धर्म, जिसका सबसे बड़ा उत्तोलक वर्तमान में भाजपा और उसका पितृ संगठन संघ है के प्रावधानों द्वारा रचा गया जो प्रधानतः शक्ति के स्रोतों के बंटवारे की व्यवस्था वाला धर्म रहा है. हिन्दू धर्म के प्रावधानों द्वारा ही दलित, आदिवासी, पिछड़ों और महिलाओं को पूरी तरह शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत करके सामाजिक अन्याय के दलदल में फंसाया गया. इन्हीं लोगों को न्याय दिलाने के लिए सदियों से तथागत गौतम बुद्ध, रैदास ,कबीर, गुरुनानक इत्यादि ढेरों संतय फुले, शाहूजी महाराज, पेरियार बाबा साहेब आंबेडकर, सर छोटू राम तथा नए दौर में मा. कांशीराम जैसे महामानवों ने अविराम संघर्ष चलाया. अंततः बाबा साहब के प्रयासों से आरक्षण का प्रवधान रचित हुआ, जिसके तहत सबसे पहले शक्तिहीन दलित- आदवासियों और परवर्तीकाल में पिछड़ों को आरक्षण मिला तथा भारत में सामाजिक न्याय की धारा प्रवाहमान हुई. स्मरण रहे आरक्षण और कुछ नहीं शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत तबकों को कानून के जोर शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी दिलाने का मध्यम मात्र है. इसी आरक्षण के खात्मे में राजसत्ता का इस्तेमाल कर भाजपा ने नए सिरे से सामाजिक अन्याय का सैलाब पैदा किया है, जिसका जवाब सामाजिक न्याय का मुकम्मल एजेंडा ही हो सकता है.
अब तक सामाजिक न्याय के नाम पर शक्ति के थोड़े से स्रोतों- सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों के प्रवेश, कुछ वस्तुओं के डीलरशिप इत्यादि- में ही आरक्षण दिया गया है, जिसे सामाजिक न्याय की खानापूर्ति ही कहा जा सकता है. अगर सही सामाजिक न्याय की स्थापना करनी है तो शक्ति के समस्त स्रोतों, जिसके दायरे में सेना, पुलिस बल व न्यायालयों इत्यादि सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियां ,पौरोहित्य, डीलरशिप, सप्लाई, सड़क-भवन निर्माण इत्यादि के ठेकें, पार्किंग, परिवहन, शिक्षण संस्थानों, विज्ञापन व एनजीओ को बंटने वाली धनराशिय ग्राम पंचायत, शहरी निकाय, संसद- विधानसभा की सीटें , विभिन्न मंत्रालयों के कार्यालयों, राष्ट्रपति, राज्यपाल, प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्रियों के कार्यालयों के कार्यबल इत्यादि आते हैं, में विविध समाजों के स्त्री- पुरुषों के संख्यानुपात में आरक्षण लागू करना होगा. अगर इंडिया की ओर से सामाजिक न्याय का मुकम्मल एजेंडा घोषित होता है तो भाजपा बंगाल की खाड़ी में विलीन हो जाएगी और नफरत के नशे में मतवाले अज्ञानी बहुजन इंडिया के पीछे लामबंद हो जाएंगे, ऐसा मानने में हमें कोई द्विधा नहीं हैं।
8 - हम मानते है कि भारत में सामाजिक अन्याय की सर्वाधिक शिकार देश की आधी आबादी है, जिसे आर्थिक-सामाजिक रूप से पुरुषों के बराबर आने में 257 साल लगने के कयास लगाए जा रहे हैं. आधी आबादी को शक्ति के स्रोतों में उसका प्राप्य दिलाने बिना सामाजिक न्याय और समतामूलक भारत का सपना , सपना ही बना रहेगा. आधी आबादी को सामाजिक अन्याय के दलदल से निकालने के लिए जरुरी है कि विभिन्न समुदायों के आरक्षण में पहले 50 प्रतिशत हिस्सा उसके महिलाओं को और शेष 50 उस समुदाय के पुरुषों को मिले.
अगर सामाजिक अन्याय की सर्वाधिक शिकार आधी आबादी है तो सर्वाधिक अन्यायकारी वर्ग जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का पुरुष समुदाय है, जिसकी आबादी तो बमुश्किल साढ़े सात- आठ प्रतिशत है, परन्तु शक्ति के स्रोतों पर कब्जा उसकी आबादी से प्रायः दस गुना ज्यादा है. यदि इंडिया इस वर्ग को उसके संख्यानुपात रोकने का प्रावधान कर दे तो उसके हिस्से का 60 -70 प्रतिशत अवसर हो जायेंगे. फिर यदि इस अतिरिक्त अवसर को सामाजिक अन्याय के शिकार वर्गों के मध्य वितरित कर आसानी से वैसा भारत निर्माण किया जा सकता है, जिसका सपना हमारे राष्ट्र- निर्माताओं ने देखा था!
9 - हम मानते हैं कि नई सदी में कांग्रेस सबसे बड़ी सामाजिक न्यायवादी दल के रूप में उभरी है, जिसने रायपुर के अपने 85वें अधिवेशन से लेकर 2023 के कर्नाटक विधानसभा चुनाव में सामाजिक न्याय की राजनीति का अभूतपूर्व दृष्टांत स्थापित किया। इस क्रम में राहुल गाँधी सामाजिक न्याय की राजनीति के नए आइकॉन के रूप में उभरे. साथ में हम यह भी मानते हैं कि इतिहास ने साबित कर दिया है कि भाजपा हम वंचित बहुजनों की वर्ग-शत्रु है तो कांग्रेस वर्ग-मित्र! भाजपा ने जहां राजसत्ता का इस्तेमाल बहुजनों को बर्बाद करने में किया है तो कांग्रेस ने उसका इस्तेमाल इनकी समृद्धि और उन्नति के लिए किया है. आज वंचित बहुजनों, विशेषकर दलित और आदिवासियों में कुछ लोग आर्थिक- राजनीतिक- शैक्षिक क्षेत्र में विशेष उपलब्धि अर्जित किए हैं तथा इनमें समाज को नेतृत्व देने लायक एक मध्यम वर्ग तैयार हुआ है तो उसका अधिकतम श्रेय आजाद भारत के कांग्रेस सरकारों को जाता है.
10- हम मानते हैं केवल कार्यपालिका में भागीदारी अर्थात नौकरियों में आरक्षण से ही हमारे राष्ट्र निर्माताओं का समतामूलक भारत निर्माण का सपना पूरा। ऐसे तो एक हजार वर्ष तक भी बहुजन ( अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और इनसे धर्मान्तरित) समता का लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाएंगे। हमारी आने वाली 50 पीढि़याँ यूँ ही विषैले आर्थिक और सामाजिक का दंश झेलती और शोषण, अन्याय का शिकार होती रहेंगी और हम विधवा विलाप करते रहेंगे। सामाजिक क्रांति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है आर्थिक समता अर्थात देश की धन, दौलत, जमीन, जायदाद, उद्योग- व्यापार, कल- कारखानों, बाजार में बहुजनों का 85 प्रतिशत हिस्सा। आज भारत के सरकारी क्षेत्र में डेढ करोड़ नौकरियां हैं। 50 प्रतिशत आरक्षण से बहुजनों को केवल 75 लाख नौकरियाँ मिल सकती हैं। यदि 5 सदस्यों का एक परिवार मान लें तो आरक्षण से करीब 4 करोड़ वंचित बहुजनों का ही कल्याण हो पाऐगा। बहुजनों की जनसंख्या भारत की कुल 142 करोड़ आबादी में 123 करोड़ है। 123 में से 4 करोड़ का कल्याण हो गया तो क्या हम बाकी 119 करोड़ बहुजन को लावारिस छोड़ दें? आज हमारे राजनीतिक - समाजिक नेताओं ने इन 119 करोड़ बहुजनों को वास्तव में लावारिस छोड़ रखा है और बहुजन आंदोलन को बहुजन समाज के अभिजात वर्ग का आंदोलन बना दिया है जिसमें केवल अभिजात बहुजन के मुद्दों के लिए ही सारे संघर्ष होते हैं।
निजीकरण का दौर चल रहा है, सरकारी संस्थान बेचे जा रहे हैं। विडंबना यह है कि अडानी अदानी जैसे धन्ना सेठों को व्यापार करने के लिए लाखों करोड़ रूपयों का बैंकों से कर्ज दिया जाता है। विजय माल्या जैसे लोग 25 हजार करोड़ रूपए का बैंक कर्ज लेकर विदेश भाग जाते हैं। वहीं बहुजनों के लिए 50 हजार से 5 लाख तक ही कारोबारी व्यवसायिक बैंक कर्ज मिलता है। यह बहुजन को जलील, अपमानित करने का घिनौना काम है। क्या आज की 21वीं शताब्दी में भी हमें नीच माना जाएगा? सवर्ण समाज के सदस्यों को हजारों करोड़ का बैंक कर्ज और बहुजन के लिए चंद लाख का बैंक कर्ज वो भी किसी- किसी को! आज के इस पूंजीवाद के दौर में अगर अदानी - अंबानी बिना बैंक कर्ज के कारोबार नहीं कर सकते तो गरीब बहुजन कैसे व्यापार कर लेगा? गरीब बहुजन को तो इन धन्नासेठों से कई गुना बैंक कर्ज मिलना चाहिए। हमारी मांग है कि भारत के तमाम बैंकों से दिए जाने वाले कुल बैंक कर्ज का 85 प्रतिशत बहुजन समाज के सदस्यों को मिले या फिर प्रत्येक बहुजन जब 18 वर्ष की आयु का हो तो उसे अपना व्यापार शुरू करने के लिए कम ब्याज दर पर न्यूनतम एक करोड़ रुपए का बैंक कर्ज मिले।
इसके साथ-साथ संविधान को जड़ से उखाड़ फेंकने की जो साजिश प्रधानमंत्री के आर्थिक मामलों के परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबराय को ढाल बनाकर की जा रही है, उसका मुंह तोड़ जवाब दिया जाना चाहिए। हम संविधान बचाने की पवित्र लड़ाई जब तक हमारे शरीर मे खून का एच कतरा भी बाकी है, आखिरी सांस तक लड़ेंगे।
हम उम्मीद हैं इस अपील- प्रस्ताव में जो 123 करोड़ लोगों की भावना का प्रतिबिम्बन हुआ है। इंडिया लोकसभा- 2024 का चुनावी एजेंडा स्थिर करते समय उसकी अनदेखी नहीं करेगी।
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