भोपाल। मध्य प्रदेश के विजयपुर विधानसभा उपचुनाव के नतीजे ने राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है। वन एवं पर्यावरण मंत्री रामनिवास रावत की हार ने भाजपा के लिए चिंताजनक स्थिति पैदा कर दी है। यह हार केवल एक सीट का मुद्दा नहीं है, बल्कि आगामी चुनावों के लिए भाजपा के रणनीतिकारों के लिए एक चेतावनी है। द मूकनायक के विश्लेषण से समझिए आखिर विजयपुर में भाजपा की हार क्या कारण रहे?
विजयपुर सीट पर जातिगत समीकरणों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सहरिया आदिवासी समुदाय के 60 हजार से अधिक मतदाता इस सीट पर निर्णायक भूमिका में रहे। कांग्रेस ने इस समुदाय को साधने के लिए सहरिया आदिवासी नेता मुकेश मल्होत्रा को मैदान में उतारा। भाजपा इस सीट पर कुशवाहा और जाटव समाज के वोटरों को लुभाने पूरी तरह फेल हो गई।
पिछले चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार रहे मुकेश मल्होत्रा को कांग्रेस ने इस बार अपना प्रत्याशी बनाया और चुनाव को आदिवासी बनाम ओबीसी का रूप दिया। रामनिवास रावत, जो कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए थे, इस समीकरण के सामने कमजोर पड़ गए। पिछले चुनाव में निर्दलीय रहते हुए मल्होत्रा को 44 हजार वोट मिले थे।
भाजपा ने विजयपुर सीट पर अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, प्रदेश अध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा, और विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर जैसे वरिष्ठ नेताओं ने प्रचार किया। बावजूद इसके, पार्टी सहरिया आदिवासी मतदाताओं का विश्वास जीतने में नाकाम रही।
भाजपा के केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने इस चुनाव से दूरी बनाए रखी, जो कि पार्टी के लिए एक बड़ा झटका साबित हुआ। वहीं, कांग्रेस ने एकजुटता दिखाते हुए दिग्विजय सिंह, जीतू पटवारी, और उमंग सिंघार जैसे नेताओं को प्रचार में उतारा। जीतू पटवारी के धुंआधार प्रचार से फायदा मिला।
भाजपा ने पहले के चुनावों में इस सीट से आदिवासी प्रत्याशी खड़ा किया था, लेकिन इस बार उसने ओबीसी वर्ग के रामनिवास रावत को उम्मीदवार बनाया। कांग्रेस ने इसका फायदा उठाते हुए सहरिया आदिवासी समुदाय के समर्थन को अपने पक्ष में किया।
विजयपुर क्षेत्र में आदिवासी और ओबीसी वर्ग के बीच राजनीतिक संतुलन हमेशा महत्वपूर्ण रहा है। भाजपा ने सहरिया महिलाओं को पोषण भत्ता और लाड़ली बहना योजना के तहत आर्थिक सहायता देकर उन्हें रिझाने का प्रयास किया, लेकिन यह नाकाफी साबित हुआ।
कांग्रेस ने विजयपुर उपचुनाव को अपने लिए संजीवनी मानते हुए पूरे दमखम से लड़ाई लड़ी। दिग्विजय सिंह, उमंग सिंघार, जीतू पटवारी और जयवर्धन सिंह जैसे नेताओं ने रोड शो और जनसभाओं के जरिए मतदाताओं को प्रभावित किया। कांग्रेस की यह जीत पार्टी की एकजुटता और रणनीतिक सोच का परिणाम है। जहां भाजपा के नेता अंदरूनी खींचतान से जूझते दिखे, वहीं कांग्रेस ने अपने नेताओं के बीच सामंजस्य बनाए रखा।
विजयपुर उपचुनाव में भाजपा को दलित वोट बैंक के खिसकने का भी खामियाजा भुगतना पड़ा। लंबे समय से भाजपा ने लाड़ली बहना योजना और अन्य योजनाओं के जरिए दलित और आदिवासी समुदाय को साधने का प्रयास किया, लेकिन जमीनी हकीकत में ये योजनाएं अपेक्षित असर नहीं डाल सकीं। कांग्रेस ने दलित और आदिवासी वोट बैंक को एकजुट करने के लिए सक्रिय रणनीति अपनाई। सहरिया आदिवासी उम्मीदवार के चुनाव मैदान में होने से दलित और आदिवासी समुदाय ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया। वहीं, भाजपा के भीतर जातिगत समीकरणों को लेकर अनबन और ओबीसी प्रत्याशी को टिकट दिए जाने से दलितों में नाराजगी बढ़ी। इसका असर नतीजों में साफ दिखाई दिया।
भाजपा प्रत्याशी रामनिवास रावत के कुछ कार्यकर्ताओं की कथित गुंडागर्दी भी पार्टी के खिलाफ माहौल बनाने में एक प्रमुख कारण बनी। स्थानीय स्तर पर रावत समर्थकों द्वारा दबंगई और भय फैलाने की घटनाओं ने मतदाताओं में नाराजगी पैदा की। इन घटनाओं ने विशेष रूप से आदिवासी और दलित समुदायों में भाजपा के प्रति असंतोष को बढ़ाया।
कई क्षेत्रों में रावत के कार्यकर्ताओं पर आरोप लगे कि उन्होंने विपक्षी समर्थकों को धमकाया और चुनाव प्रचार के दौरान आक्रामक रवैया अपनाया। इस तरह की घटनाओं से जनता में भाजपा की छवि प्रभावित हुई और इसका सीधा लाभ कांग्रेस को मिला। परिणामस्वरूप, भाजपा अपने परंपरागत वोटरों को साधने में नाकाम रही, जिससे उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा।
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