Rajasthan Election 2023: किसको मिलेगा दलित-आदिवासियों का वोट?

बीजेपी-कांग्रेस से निराशा, असपा-बीएसपी से नहीं आशा, असमंजस में दलित-आदिवासी मतदाता।
राजस्थान के सवाईमाधोपुर में चुनाव प्रचार करते प्रत्याशी दानिश अबरार
राजस्थान के सवाईमाधोपुर में चुनाव प्रचार करते प्रत्याशी दानिश अबरार
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जयपुर। राजस्थान में विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है और विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने प्रत्याशी मैदान में उतार दिए है, नामांकन के साथ ही मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए जोर-अजमाइश शुरू हो चुकी है। इस सियासी समर में दलित-आदिवासी मतदाता किस करवट बैठेगा। इसका अनुमान लगाने के लिए छात्र इंद्र मेघवाल की मौत के बाद दलित प्रतिरोध का केन्द्र रहे जालौर जिले से द मूकनायक की टीम ने अपनी चुनावी यात्रा प्रारंभ की। जिला मुख्यालय से सुराणा गांव की ओर चलने पर करीब 25 किलोमीटर बाद हमने माण्डवला गांव में विश्राम लिया। यहां रामदेवरा मंदिर परिसर में हमें दलित अधिकार कार्यकर्ता भगवानाराम मेघवाल मिले। गांव की आर्थिक सामाजिक पृष्टभूमि पर चर्चा के बाद हमने उनसे चुनावी चर्चा शुरू की। भगवानाराम ने कहा- ”मेरे गांव में 18 सौ परिवार निवासरत है, जिसमें 600 परिवार दलितों के है। इंद्र मेघवाल प्रकरण से गांव और जिले के समाज के लोग आहत है, लोगों में गुस्सा है, लेकिन इसके बावजूद लोग दलित हितैषी पार्टियों को वोट नहीं करेंगे।” भगवानाराम बड़ी मायूसी के साथ कहते हैं कि हमें भाजपा या कांग्रेस में से किसी एक को ही चुनना होगा।

जिले की भीनमाल तहसील स्थित रामसिन कस्बे में रात्रिविश्राम के दौरान हमारी मुलाकात दलित युवा पत्रकार दिलीप सोलंकी से हुई। दिलीप ने बताया कि दलित पहचान वाले राजनीतिक दलों की जिला और तहसील इकाइयां निष्क्रिय है। कई जगहों पर समितियों का गठन भी नहीं हुआ है। इसलिए दलित समाज के लोगों का ऐसे राजनीतिक संगठनों से जमीनी स्तर पर जुड़ाव नहीं हो पाया है। दलित मतदाता के पास परंपरागत पार्टियों के अलावा अन्य कोई मजबूत विकल्प नहीं है।

धरने पर बैठा कार्तिक भील का परिवार
धरने पर बैठा कार्तिक भील का परिवार

जालौर से हम आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता कार्तिक भील की हत्या के बाद देश के नक्शे पर पहचान में आए अनुसूचित जनजाति बहुल सिरोही जिले पहुंचे। हमने जिला मुख्यालय स्थित कलक्टरी परिसर में बीते 10 महीने से धरने पर बैठे पीड़ित परिवार से मुलाकात की। कार्तिक भील के भाई रूपाराम ने बहुत मायूसी से बताया कि सरकार हमारी कोई मदद नहीं कर रही है। हमारी मांगों को अनदेखा किया जा रहा है। यहां दलित अधिवक्ता व सामाजिक कार्यकर्ता देवेन्द्र मेघवाल ने कहा, ”दलित आदिवासी सिर्फ वोट देने के लिए पैदा नहीं हुए हैं। सिरोही विधानसभा का मौजूदा विधायक जो कि जैन समाज से आता है कार्तिक भील हत्याकांड में उसकी संलिप्तता की सरकार जांच नहीं कर रही है। कांग्रेस ने फिर से उसको टिकट दे दिया है। इस विधानसभा में 60 हजार दलित व 45 हजार के करीब आदिवासी मतदाता है। इस बार दलित-आदिवासी मतदाता एकजुट होकर सरकार को जवाब देगा।”

यात्रा का अगला पड़ाव पाली जिला था, जहां कथिततौर पर मूंछ रखने से दलित युवा जितेंद्र मेघवाल की हत्या कर दी गई थी। यहां समाज की ओर से पीड़ित परिवार को 50 लाख रुपए की आर्थिक मदद व एक सरकारी नौकरी की मांग की गई थी, जिसे सरकार ने अभी तक पूरा नहीं किया है। इसको लेकर दलित युवाओं में मौजूदा सरकार के प्रति आक्रोश है।

सिरोही
सिरोही

किंग मेकर हैं दलित-आदिवासी वोटर

प्रदेश में किसी भी पार्टी की सरकार बनाने में दलित व आदिवासी मतदाताओं की सबसे बड़ी भूमिका रहती है। अनुसूचित जाति (दलित समुदाय) के लिए प्रदेश में 34 विधानसभा सीट तथा अनुसूचित जनजाति (आदिवासी समुदाय) के लिए 25 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं। इस तरह प्रदेश की 200 में से 59 विधानसभा सीटें इन समुदायों के लिए आरक्षित है। इन 59 सीटों पर जीतने वाले विधायक ही प्रदेश में सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। राजस्थान में कभी अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के मतदाताओं को कांग्रेस का मजबूत वोट बैंक माना जाता था। मगर धीरे-धीरे भाजपा ने भी उनमें सेंध लगा ली है। 2023 के चुनाव में आजाद समाज पार्टी के उभार व बहुजन समाज पार्टी की उपस्थिति के साथ दक्षिणी राजस्थान में सक्रिय भारतीय ट्राइबल पार्टी व भारतीय आदिवासी पार्टी की मजबूत स्थिति के चलते अब इन सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला नजर आएगा। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि इसमें दोनों ही परंपरागत पार्टियों को नुकसान होने की आशंका है।

राजस्थान की 59 आरक्षित सीटों के अलावा करीबन दो दर्जन और ऐसी विधानसभा सीटें हैं। जहां हार जीत का फैसला दलित, आदिवासी मतदाताओं के हाथ में रहता है। जिस तरफ इन मतदाताओं का झुकाव हो जाता है। उनकी जीत निश्चित मानी जाती है। चुनावी आंकड़ों को देखें तो 2018 के विधानसभा चुनाव में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 34 सीटों में से कांग्रेस 19 सीटों पर व भाजपा 12 सीटों पर तथा अन्य 3 सीट पर जीते थे।

इस तरह 2018 के विधानसभा चुनाव में 59 आरक्षित सीटों में से बीएसपी विधायक व निर्दलीय को मिलाकर कांग्रेस को 38 विधायकों का समर्थन प्राप्त हुआ। जबकि भाजपा को 21 विधायकों का समर्थन मिला। पिछले विधानसभा चुनाव में यदि आरक्षित वर्ग की सीटों पर कांग्रेस को भारी बढ़त नहीं मिलती तो कांग्रेस की सरकार नहीं बन पाती। 2013 के विधानसभा चुनाव में अनुसूचित जाति की 32 सीटें भाजपा ने जीती थी। जबकि कांग्रेस को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली थी।

वहीं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 25 सीटों में से भाजपा ने 18 व कांग्रेस ने मात्र 4 सीटें जीती थीं। उस चुनाव में आरक्षित 59 सीटों में से कांग्रेस को मात्र 4 सीटें ही मिली थीं। जबकि भाजपा को 50 सीटें व अन्य को 5 सीटें मिली थीं। मात्र 4 सीटों पर ही सिमट जाने के कारण कांग्रेस 2013 में 200 में से 21 सीटें ही जीत पाई थीं और 50 आरक्षित सीटें जीतने वाली भाजपा ने बंपर बहुमत से सरकार बना ली थी।

2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने अनुसूचित जाति की 18 अनुसूचित जनजाति की 16 सीटें यानी कुल 34 सीटों पर जीत हासिल की थी। जबकि भाजपा अनुसूचित जाति की 15 व अनुसूचित जनजाति की 2 सीटों पर यानी कुल 17 सीटें ही जीत पाई थी। 2008 के विधानसभा चुनाव में आरक्षित वर्ग की कुल 34 सीटें कांग्रेस व भाजपा मात्र 17 सीटें ही जीत सकी थीं। उस समय आरक्षित 34 सीटें जीतने के कारण ही कांग्रेस ने जोड़-तोड़ कर प्रदेश में सरकार बना ली थी।

अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 25 सीटों में पहले मुख्य मुकाबला कांग्रेस व भाजपा के बीच होता था। मगर पिछले विधानसभा चुनाव में भारतीय ट्राइबल पार्टी के नाम से आदिवासी हकों की मांग को लेकर बनी नई पार्टी ने 11 सीटों पर चुनाव लड़ कर 0.72 प्रतिशत वोट हासिल कर दो सीटें जीत ली थीं।

इस बार फिर भारतीय ट्राइबल पार्टी आदिवासी भील प्रदेश की मांग तेज कर जोर शोर से चुनाव लड़ रही है, जिससे आदिवासी बेल्ट की करीबन 20 सीटों पर मुकाबला तिकोना होने की संभावना बन रही है। हालांकि भारतीय ट्राइबल पार्टी से अलग होकर विधायक रामप्रसाद व राजकुमार रोत ने भारतीय आदिवासी पार्टी बना ली है, इससे इस बार आदिवासी वोटो में बिखराव की आशंका बढ़ गई है।

भंवर मेघवंशी, दलित सामाजिक कार्यकर्ता, राजस्थान।
भंवर मेघवंशी, दलित सामाजिक कार्यकर्ता, राजस्थान।

दलित समुदाय को कांग्रेस से शिकायतें

दलित अधिकार कार्यकर्ता भंवर मेघवंशी कहते हैं, ”दलित समुदाय को कांग्रेस से भी बड़ी शिकायतें हैं। मगर अब वे चुनावी अखाड़े में उतरे उस दल और उम्मीदवार को चुनेंगे जो बीजेपी को शिकस्त दे सकता है। कोई भी अपना वोट यूं ही, खराब करना नहीं चाहेगा। धरातल पर दलित यही सोच रखते हैं।”

दलितों में असमंजस

दलित अधिकार केंद्र के सतीश कुमार कहते हैं कि दो अप्रैल के बंद और पिछले गत सालों में दलितों पर हुए अत्याचार के मामलों के बाद सामाजिक राजनीतिक स्तर पर बहुत कुछ हुआ है। हमारे नौजवान बहुत उद्वेलित हैं। ऐसे में कहीं भ्रम है, कहीं असमंजस और कहीं दिशाहीनता है। विकल्पहीनता भी है। दलित नाम से कई संगठन आ गए और चुनाव मैदान में उत्तर गए हैं।

सतीश ने कहा कि दलित समुदाय बीजेपी और कांग्रेस दोनों से निराश हुआ है। फिर भी दलितों को लगता है कि कांग्रेस वैचारिक स्तर पर ठीक है। इसलिए थोड़ा कांग्रेस के प्रति झुकाव हो सकता है। मगर यह बात भी सही है कि अनेक घटनाओं पर कांग्रेस के नेताओं ने खामोशी ओढ़े रखी और दलितों को उनके भाग्य पर छोड़ दिया है।

सत्यवीरसिंह, सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी, राजस्थान।
सत्यवीरसिंह, सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी, राजस्थान।

दलित घोषणापत्र से कुछ बदलेगा?

सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी सत्यवीरसिंह बताते है अब दलित और आदिवासी मतदाता अपने मुद्दों को समझ गया है। अपनी जरूरतों को समझ गया है। सरकार से अपनी अपेक्षाओं को समझ गया है। हमने अपने अनुसूचित जाति वर्ग की एक सामाजिक न्याय यात्रा निकाली, 50 जिलों में गए, इस दौरान समाज के मुद्दों उनकी मांगों का एक दस्तावेज तैयार किया, जिसे दलित घोषणापत्र के रूप में जारी किया है। इससे जाहिर होता है दलित समाज का मतदाता जागरूक हुआ है जो भी राजनीतिक पार्टी घोषणापत्र की मांगों को अपने मेनिफेस्टो में शामिल करेगा। दलित समाज उस राजनीतिक पार्टी को वोट करेगा।

बसपा/असपा की संभावनाएं

बहुजन समाज पार्टी ने इस बार राज्य की 200 में से सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े किये हैं। बसपा के राज्य इकाई के एक पदाधिकारी ने दावा किया है कि कांग्रेस को लोग आजमा चुके हैं। दलित अत्याचारों के मामलों में प्रभावी कार्रवाई नहीं करने से दलित इस चुनावी जंग में बसपा के साथ खड़ा मिलेगा। इधर, आजाद समाज पार्टी के राज्य इकाई के पदाधिकारी ने दावा किया कि चाहे इंद्र मेघवाल का मामला हो या पाली का जितेन्द्र मेघवाल प्रकरण। अत्याचार के ऐसे तमाम मामलों ने आजाद समाज पार्टी के कार्यकर्ताओं ने सड़क पर उतर कर संघर्ष किया है। इसलिए दलितों सहित बहुजन समाज को समर्थन उनको इस चुनाव में मिलेगा।

वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारहठ असपा बसपा के दावों के इतर अलग बात कहते है, ”बसपा के हाथी ने पहली बार 1993 में राजस्थान की मरुस्थली जमीन पर पैर रखे और 50 उम्मीदवार खड़े कर 0.56 प्रतिशत वोट हासिल किये. फिर राज्य में उसकी मौजूदगी बढ़ती रही।"

"वर्ष 2008 के चुनावों में बसपा को सात फीसद से ज्यादा वोट मिले और छह लोग बसपा से चुनाव जीत कर विधानसभा में पहुंच गए। लेकिन ये सभी बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए। नतीजन 2013 के चुनावों में बसपा का मत प्रतिशत घट कर आधा यानी 3.37 और जीतने वालों की संख्या तीन रह गई। 2018 के विधानसभा में कामोबेश यही हालत रही। इससे बसपा के प्रति दलित मतदाताओं का विश्वास घटा है। वहीं गत सालों में लगातार मतप्रतिशत घट रहा है। इस बार भी चुनाव में एक दो विधानसभा सीटों को छोड़कर बसपा कोई बेहतर प्रदर्शन करती नजर नहीं आ रही है।”

बहरहाल आजाद सामाज पार्टी को भी दलित मतदाताओं को साधने का कोई मौजूद विकल्प नहीं मानते है। हालांकि हनुमान बेनीलवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के साथ गठबंधन के बाद कुछ सीटों में बेहतर प्रदर्शन की बात से वह इंकार नहीं कर रहे हैं।

दलित-आदिवासी मतदाताओं को लुभाने में जुटे बीजेपी-कांग्रेस

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत विधानसभा चुनाव में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 59 विधानसभा सीटों में से 50 सीटें जीतने का लक्ष्य निर्धारित कर उसी पर काम कर रहे हैं। गहलोत को पता है कि उनके तीन बार मुख्यमंत्री बनने में आरक्षित सीटों की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही थी।

इसीलिए फिर उनका पूरा जोर आरक्षित सीटों पर लगा हुआ है। इधर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी आरक्षित सीटों पर अपनी पार्टी की पकड़ को मजबूत करने के लिए इस क्षेत्र का लगातार दौरा कर रहे हैं। उनको पता है कि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के साथ के बिना प्रदेश में कोई भी दल सरकार नहीं बना सकता है।

कांग्रेस पार्टी भी इस बार कमजोर परफारमेंस वाले बहुत से विधायकों के टिकट काटकर उनके स्थान पर नए लोगों को मौका दे रहा है. ताकि सत्ता विरोधी माहौल को समाप्त किया जा सके। अमूमन यही हाल बीजेपी का है बीजेपी ने भी कई विधायकों के टिकट काटे है, जिसमें पार्टी में अंदर खाने विरोध भी हो रहा है।

वरिष्ठ पत्रकार गीता सुनील ने बताया कि आदिवासी वोट बैंक को साधने के लिए ही मुख्यमंत्री गहलोत ने आदिवासी आबादी बहुल उदयपुर जिले के सलूंबर को नया जिला व बांसवाड़ा को नया संभाग मुख्यालय बनाये जाने कि घोषणा की है। ताकि भारतीय ट्राइबल पार्टी व भारतीय आदिवासी पार्टी के बढ़ते प्रभाव को कम किया जा सके। पिछली 24 अप्रैल से प्रदेश में चल रहे महंगाई राहत कैंपों के माध्यम से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत प्रदेश में आमजन तक अपनी सरकार की विभिन्न जनहितकारी योजनाओं की जानकारी पहुंचा रहे हैं। इससे कांग्रेस को कुछ लाभ मिलता नजर आ रहा है। हालांकि आदिवासी बहुल बांसवाड़ा व उदयपुर संभाग में बीजेपी भी मजबूत चुनाव लड़ेगी।

प्रदेश में ये हैं दलित और आदिवासी रिजर्व सीटें

अनुसूचित जाति आरक्षित सीटें: दूदू, बगरू, चाकसू, अलवर ग्रामीण, कठूमर, वैर, बयाना, बासेरी, हिंडौन, सिकराय, खंडार, निवाई, अजमेर दक्षिण, जायल, मेड़ता, सोजत, भोपालगढ़, बिलाड़ा, चौहट्टन, जालौर, रेवदर, कपासन, शाहपुरा, केशवरायपाटन, रामगंज मंडी, बारां-अटरू, डग, रायसिंहनगर, अनूपगढ़, पीलीबंगा, खाजूवाला, सुजानगढ़, पिलानी, धोद।

अनुसूचित जनजाति आरक्षित सीटें: बस्सी, राजगढ़-लक्ष्मणगढ़, जमवारामगढ़, टोडाभीम, सपोटरा, लालसोट, बामनवास, पिंडवाड़ा-आबू, गोगुंदा, झाड़ोल, डूंगरपुर, आसपुर, सागवाड़ा, चौरासी, घाटोल, गढ़ी, बांसवाड़ा, बागीदौरा, खेरवाड़ा, उदयपुर ग्रामीण, सलूम्बर, धरियावद, कुशलगढ़, प्रतापगढ़, किशनगंज।

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