उत्तर प्रदेश। लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी द्वारा अमेठी सीट को छोड़कर रायबरेली सीट पर चुनाव लड़ना भले ही सियासी मुद्द्दा बन गया हो, लेकिन राजनितिक विशेषज्ञों का कहना है कि राहुल गांधी अमेठी सीट से हारने के डर से नहीं बल्कि विरासती सीट को बचाने के लिए रायबरेली से चुनाव लड़ रहे हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि रायबरेली कांग्रेस के लिए सबसे पुरानी सियासी सीट है। इस सीट पर राहुल के दादा फिरोज गांधी ने 1957 में चुनाव लड़ा था। वहीं जब भी इस सीट पर गांधी परिवार ने चुनाव लड़ा तो जीत हासिल की है। चूंकि सोनिया गांधी के द्वारा राज्यसभा चले जाने के कारण यह सीट खाली हुई थी, ऐसे में इस सीट के खाली होने पर गांधी परिवार द्वारा दावेदारी नहीं छोड़ी जा सकती थी। इसका एक कारण वंशवाद या परिवारवाद भी है।
यूपी के रायबरेली सीट से राहुल गांधी ने इस बार नामांकन दाखिल किया है। वहीं अमेठी सीट छोड़ने पर राहुल गांधी विपक्षी दलों के निशाने पर आ गए। इससे सियासी चर्चाएं तेज हुई हैं। इसे लेकर कई तरह के ब्यान भी सामने आये हैं। लेकिन राजनीतिक सलाहकारों ने इसका सटीक विश्लेषण करने का दावा किया है। वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विशेषज्ञ राशिद किदवई इस बारे में द मूकनायक को अपना विश्लेषण बताते हुए कहते हैं कि, "राहुल गांधी का अमेठी से चुनाव न लड़कर रायबरेली से चुनाव लड़ना एक राजनीतिक घटना है। ऐसा सिर्फ विरासती सीट को बचाने के लिए किया गया है। हालांकि, रायबरेली से चुनाव लड़ना परिवारवाद या वंशवाद को भी इंगित कर रहा है।"
राशिद किदवई कहते हैं, 'कांग्रेस के लिए अमेठी से ज्यादा रायबरेली की सीट संवेदनशील है। क्योंकि गांधी परिवार ने जब भी रायबरेली सीट पर हाथ आजमाया, जीत ही हासिल की है। गांधी परिवार से इस सीट पर फिरोज गांधी ने सबसे पहले चुनाव 1957 लड़ा था और भारी मतों से जीत हासिल की थी। इसके बाद इस सीट पर इंदिरा गांधी फिर सोनिया गांधी ने भारी मतों से जीत हासिल की।'
राशिद किदवई बताते हैं, 'कहा जाता है कि देश के प्रधानमंत्री की गद्दी का रास्ता यूपी की गलियों से होकर जाता है, वहीं 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस यूपी की 80 सीटों में मात्र एक सीट ही जीतने में कामयाब रही थी. जबकि सबसे ज्यादा सीटों पर भारतीय जनता पार्टी ने जीत हासिल की थी। कांग्रेस का सिर्फ रायबरेली सीट पर जीतना यह समझने के लिए काफी है कि यह सीट कांग्रेस के लिए बेहद सुरक्षित है। सोनिया गांधी ने रायबरेली सीट से इस्तीफा दे दिया और राजयसभा चली गई। प्रियंका गांधी चुनाव लड़ना नहीं चाहती हैं और कांग्रेस की स्टार प्रचारक भी हैं। ऐसे में इस सुरक्षित सीट को बचाने के लिए राहुल गांधी का इस सीट पर चुनाव लड़ना लाजमी है।'
यूपी के अमेठी जिले से 25 साल में पहली बार गांधी परिवार के किसी सदस्य ने भी अपनी दावेदारी नहीं की। यह वह अमेठी है जो पिछले पांच दशकों से कांग्रेस पार्टी के लिए राजनीति में उतरने का गढ़ मानी जाती थी। इस सीट का इतिहास बहुत ही पुराना है। 1947 में देश आजाद हुआ तो 543 रियासतों की तरह अमेठी रियासत का भी देश में विलय हो गया। नेहरू ने उस समय रियासत के राजा रणंजय सिंह को मंत्री बनने का प्रस्ताव दिया, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। हालांकि, बाद में वो अमेठी की राजनीति में सक्रिय रहे और नेहरू-गांधी परिवार से उनके रिश्ते मजबूत होते चले गए।
अमेठी लोकसभा सीट 1967 में अस्तिव में आई। शुरुआत के दो चुनाव (1967 और 1971) में कांग्रेस के विद्याधर बाजपेयी ने जीत दर्ज की। इमरजेंसी के बाद संजय गांधी को राजनीति में लाने के लिए कांग्रेस को सुरक्षित सीट की तलाश थी। 1977 में संजय गांधी ने पहली बार अमेठी से लोकसभा चुनाव लड़ा। इमरजेंसी के दौरान जबरन नसबंदी कराने में उनकी भूमिका होने के कारण उनका स्थानीय लोगों ने विरोध किया। इसी वजह से जनता पार्टी के रवींद्र प्रताप सिंह से उन्हें हार का सामना करना पड़ा।
हालांकि, तीन साल बाद (1980) हुए उपचुनाव में संजय गांधी ने करीब एक लाख 87 हजार वोट से रवींद्र प्रताप सिंह को हराकर हिसाब बराबर कर दिया। अमेठी और गांधी परिवार के लंबे रिश्ते की ये शुरुआत थी। हालांकि, संजय गांधी का अमेठी में कार्यकाल ज्यादा लंबा नहीं रहा।
23 जून 1980 को एक विमान दुर्घटना में संजय गांधी के निधन की खबर आई। उस समय उनके बड़े भाई राजीव गांधी लंदन में थे। खबर पहुंचते ही राजीव भारत वापस लौटे और एक सप्ताह के भीतर ही राजनीतिक में शामिल होने का फैसला लिया। जिसके बाद इंदिरा गांधी ने राजीव गांधी को अमेठी में चुनाव के लिए उतार दिया। 4 मई 1981 को इंदिरा गांधी ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में राजीव का नाम अमेठी से कैंडिडेट के तौर पर प्रस्तावित किया। बैठक में मौजूद सभी नेताओं ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया। इसके बाद राजीव गांधी ने अमेठी से उपचुनाव लड़ा और अपने प्रतिद्वंद्वी लोक दल प्रमुख शरद यादव को 2.5 लाख वोटों से हराया।
संजय की विमान दर्घटना में मौत के बाद अमेठी सीट खाली हो गई। उनकी पत्नी मेनका इस सीट पर चुनाव लड़ना चाहती थी। मेनका की उम्र उस समय 25 साल भी नहीं थी। इस कारण नियमानुसार वह चुनाव नहीं लड़ सकती थीं। ऐसे में मेनका चाहती थीं कि इंदिरा संविधान में संशोधन कर चुनाव लड़ने की न्यूनतम उम्र कम करें, लेकिन इंदिरा गांधी ने इससे साफ इनकार कर दिया। ऐसे में मेनका को लगा कि उनके दिवंगत पति की राजनीतिक विरासत अमेठी पर कब्जा किया जा रहा है। 1981 में अमेठी उपचुनाव में जब राजीव गांधी ने नामांकन दाखिल किया तो मेनका गांधी ने उन्हें हराने की कोशिश की थी। राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई ने भी इस घटना का जिक्र अपनी किताब '24 अकबर रोड: ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द पीपुल बिहाइंड द फॉल एंड राइज ऑफ द कांग्रेस' में किया है।
राजीव गांधी ने अमेठी से 1989 और 1991 का चुनाव भी जीता था। अमेठी का सांसद बनने के बाद अमेठी ने विकास की रफ्तार पकड़ ली। कई बड़े प्रोजेक्ट और इंस्टीट्यूशन स्थापित किए गए। राजीव गांधी ने 1980 के दशक में जगदीशपुर इंडस्ट्रियल एस्टेट बनाया। 1982 में संजय गांधी मेमोरियल हॉस्पिटल, 1983 में कोरवा में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड का एवियोनिक्स डिवीजन और 1984 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विमानन अकादमी स्थापित किया गया। अमेठी की लखनऊ और वाराणसी से सड़क कनेक्टिविटी को बेहतर किया। साथ ही बंजर और क्षारीय भूमि को खेती के लिए रिवाइव किया गया। 21 मई 1991 को आतंकी समूह लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (एलटीटीई) द्वारा राजीव गांधी की हत्या कर दी
राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने चुनावी राजनीति में आने से मना कर दिया। 1991 में हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने गैर-गांधी संतीश शर्मा को उतारा और जीते। उन्होंने 1996 में भी सीट बचाई, लेकिन दो साल बाद 1998 में BJP के संजय सिंह से चुनाव हार गए। माना जाता है कि 1988 से ही कांग्रेस केंद्र और उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर थी। इसकी वजह से अमेठी में परियोजनाएं रुक गईं। इस वजह से राजीव गांधी और सोनिया गांधी के कार्यकाल के दौरान उद्योगों और अन्य काम-काज में गिरावट आई। हालांकि, 1997 में सोनिया गांधी कांग्रेस में शामिल हुईं और अगले ही साल 1998 में पार्टी अध्यक्ष बन गईं। सोनिया 1999 में अमेठी से पहली बार चुनावी मैदान में उतरीं और 4.18 लाख वोटों के साथ चुनाव जीता।
1999 में चुनाव जीतने के बाद सोनिया गांधी ने अमेठी से दोबारा चुनाव नहीं लड़ा। वह अपने बेटे राहुल गांधी को चुनाव में उतारना चाहती थी। परिणामस्वरूप 2004 में यूपीए गठबंधन आने से कांग्रेस की केंद्र में वापसी हुई। तत्कालीन कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अमेठी से पहली बार चुनाव लड़ा और 2,90,853 वोटों के साथ जीत हासिल की। उनका सीधा मुकाबला बीजेपी और बीएसपी प्रत्याशी से था। इसके अगले दो चुनाव में भी राहुल गांधी ने आसानी से जीत हासिल की। 2009 में राहुल गांधी 3 लाख वोटों के अंतर से जीते। 2014 में राहुल के खिलाफ स्मृति ईरानी ने चुनाव लड़ा और राहुल की जीत का अंतर घटकर 1.07 लाख रह गया। राहुल गांधी के कार्यकाल के पहले 10 वर्षों के दौरान केंद्र में यूपीए की सरकार थी। इस दौरान उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस की सहयोगी समाजवादी पार्टी सत्ता में थी। इस दौरान अमेठी में राहुल ने कई परियोजनाओं की घोषणा की, लेकिन मंजूरी में देरी के कारण पूरी नहीं हो सकी।
गांधी परिवार की तीसरी पीढ़ी के राहुल गांधी इस बार अमेठी सीट को छोड़कर रायबरेली लोकसभा सीट से सियासी रणभूमि में उतरे हैं। उनका मुकाबला बीजेपी के दिनेश प्रताप सिंह और बसपा के ठाकुर प्रसाद यादव से है। राहुल गांधी के चुनावी अभियान की कमान कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने संभाल रखी है और बुधवार से रायबरेली में जनसंपर्क-नुक्कड़ सभाएं शुरू कर रही हैं। रायबरेली सीट पर नजर सिर्फ उत्तर प्रदेश के लोगों की नहीं बल्कि देशभर की है क्योंकि चुनावी मैदान में राहुल गांधी हैं।
रायबरेली को गांधी परिवार का गढ़ माना जाता है. फिरोज गांधी से लेकर इंदिरा गांधी और सोनिया गांधी तक सांसद रही हैं। रायबरेली में भले ही राहुल गांधी बनाम दिनेश प्रताप सिंह के बीच मुकाबला हो, लेकिन नजर जिले के सियासी मठाधीशों पर भी है। दिनेश प्रताप सिंह के लिए सबसे बड़ी चुनौती अपनों की भितरघात की है, तो कांग्रेस के लिए सहयोगी दल सपा के नेताओं का विश्वास जीतने की है।
रायबरेली से राहुल गांधी के नामांकन से सियासी चर्चाएं तेज हो गई हैं। इस लोकसभा में पहली बार राहुल के दादा फिरोज गांधी ने चुनाव लड़ा था. फिरोज ने आजादी के बाद पहले दो चुनावों में इस सीट पर कब्जा किया था। फिरोज गांधी ने निर्वाचन क्षेत्र में जो मजबूत नींव रखी, उसे बाद में उनकी पत्नी और पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने इसे मजबूत किया। इंदिरा ने 1967, 1971 और 1980 में रायबरेली से फतह हासिल की। इसके बाद गांधी परिवार के दोस्तों और परिवार के सदस्यों ने भी इस सीट से जीत हासिल की।
इंदिरा गांधी ने 1980 में दो सीटों - रायबरेली और तेलंगाना के मेडक से चुनाव लड़ा और मेडक सीट बरकरार रखने का फैसला किया। अरुण नेहरू ने 1980 और उसके बाद 1984 में उपचुनाव जीता। अरुण नेहरू, प्रधान मंत्री राजीव गांधी के बेहद खास थे। इसके अलावा गांधी परिवार के एक और खास शख्स शीला कौल ने रायबरेली से चुनाव जीता। फिरोज गांधी के निधन के बाद 1960 के उपचुनाव में यह सीट कांग्रेस के आरपी सिंह के पास थी और 1962 में एक अन्य कांग्रेस नेता बैज नाथ कुरील के पास थी।
इंदिरा गांधी की चाची शीला कौल ने 1989 और 1991 में इस सीट की रहनुमाई की। 1999 में, गांधी परिवार के एक अन्य खास, सतीश शर्मा ने रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया, जब तक कि सोनिया गांधी ने वहां से अपनी सियासी पारी की शुरुआत नहीं कर दी। एक बार ऐसा भी हुआ जब कांग्रेस ने इस सीट का प्रतिनिधित्व नहीं किया। साल 1977 में इमरजेंसी के बाद हुआ था, जब जनता पार्टी के राज नारायण ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और बीजेपी के अशोक सिंह को 1996 और 1998 में हराया था।
राहुल गांधी को अमेठी के बजाय रायबरेली से मैदान में उतारने के पीछे कांग्रेस की रणनीति इस नतीजे पर भी टिकी है कि राहुल के लिए रायबरेली एक बेहतर, सुरक्षित सीट है। राहुल, 2019 में बीजेपी कैंडिडेट स्मृति ईरानी से करीब 50 हजार वोटों से अमेठी हार गए थे। इस आलोचना के बीच कि कांग्रेस ने अमेठी में स्मृति ईरानी को वॉकआउट कर दिया है, सूत्रों ने कहा कि पार्टी ने माना कि गांधी परिवार के लिए रायबरेली का ऐतिहासिक, भावनात्मक और चुनावी महत्व अमेठी से ज्यादा है।
रायबरेली के लोगों को अपने विदाई संदेश में, सोनिया गांधी ने यकीन दिलाया कि, "जो सीट हमेशा उनके और गांधी परिवार के साथ रही है, वह भविष्य में भी उनके परिवार का समर्थन करना जारी रखेगी। 15 फरवरी को पूर्व कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी ने अपने रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र के मतदाताओं को बताया था कि वह स्वास्थ्य और ज्यादा उम्र की वजह से आगामी लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगी। सोनिया गांधी ने कहा, "मुझे यह कहते हुए फख्र हो रहा है कि मैं आज जो कुछ भी हूं, आपकी वजह से हूं और मैंने हमेशा आपके यकीन का सम्मान करने की पूरी कोशिश की है। अब स्वास्थ्य और उम्र की वजह से, मैं अगला लोकसभा चुनाव नहीं लड़ूंगी।"
उन्होंने कहा कि, "इस फैसले के बाद मुझे सीधे तौर पर आपकी सेवा करने का अवसर नहीं मिलेगा लेकिन मेरा दिल और आत्मा हमेशा आपके साथ रहेगी। मुझे पता है कि आप भविष्य में भी मेरे और मेरे परिवार के साथ खड़े रहेंगे।" रायबरेली के मतदाताओं को सोनिया का यह संदेश राजस्थान से राज्यसभा सीट के लिए नामांकन दाखिल करने के एक दिन बाद आया था।
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