उत्तर प्रदेश। लोकसभा चुनाव 2024 का बिगुल बज चुका है। कई पार्टियों ने अपनी सभी सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर दिये हैं, जबकि कई पार्टियां उम्मीदवारों पर मंथन कर रही हैं। जिन उम्मीदवारों को टिकट मिल गया है, उन्होंने नामांकन की प्रक्रिया भी कर ली है। हर बार की तरह इस चुनाव को जीतने के लिए राजनीतिक पार्टियां जाति समीकरण पर काम कर रही हैं। भारत देश में ज्यादा वोट बैंक दलित और पिछड़ों का है। इसलिए इनके वोटों को साधने के लिए यह पार्टियां तमाम तिकड़म भी भिड़ा रही हैं।
भारत में दलित आबादी 20.14 करोड़ है, जो देश की कुल आबादी का 16.6 प्रतिशत है। 2011 की जनगणना के मुताबिक, देश की 8.6 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जनजाति की है। वहीं एक अन्य आंकड़े के मुताबिक भारत में दलितों की आबादी 25 प्रतिशत है।
उत्तर प्रदेश में दलित समाज की आबादी करीब 22 प्रतिशत है। प्रदेश की 80 लोकसभा क्षेत्र में 17 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। बीते लोकसभा चुनाव में इन 17 आरक्षित सीटों में से 15 सीटें भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को जीत हासिल हुई थी। उत्तर प्रदेश में दलित वोटरों का प्रतिशत करीब 21.1 हैं, जो जाटव और गैर जाटव दलित में बंटा हुआ है। अगर जाटव दलित की बात करें तो वो 11.70 प्रतिशत हैं और BSP का कोर वोटर माना जाता है। उसके बाद 3.3 प्रतिशत पासी हैं, अगर बात कोरी, बाल्मीकी की करें तो वो 3.15 प्रतिशत हैं, वही धानुक, गोंड और खटीक 1.05 प्रतिशत हैं, और अन्य दलित जातियां भी 1.57% हैं।
जिन दलितों और पिछड़ों का वोट पाकर पार्टी सत्ता में आएगी वह सच में उन लोगों के लिए काम करेगी? यह सवाल हर बार की तरह ही बरकरार रहा है। दलित और पिछड़ों के साथ हो रहे अन्याय में लगातार इजाफा हो रहा है। जाति को लेकर इन समुदायों को आज भी प्रताड़ित किया जा रहा है। यह सबकुछ सरकारी आंकड़े बताते हैं। हर साल दलित और पिछड़े समुदायों से सम्बंधित अपराधों के आंकड़े घटने के स्थान पर बढ़ते से नजर आते हैं। अपना कीमती वोट देकर एक उम्मीदवार को राजनीति के सिंहासन, सत्ता का सुख और असीम शक्ति देने वाले इस समाज के लोग आज भी न्याय के लिए दरबदर भटकते नजर आते हैं। वोट मिलने के बाद इनके घरों में कोई झांकने नहीं जाता है, और न ही इनके कोई आंसू पोछता है। अंत में यह लोग खुद ही अपने आंसू पीकर रह जाते हैं, और सरकार बदलने का बेसबरी से इन्तजार करते हैं।
वर्तमान समय में राज्य की गद्दी पर आसीन सीएम और पीएम इन लोगों को न्याय दिला पाने में आज भी नाकाम साबित होते नजर आते हैं। वह अपनी मुफ़लिसी में अधिकारियों, मंत्रियों और कोर्ट के चक्कर लगाकर रह जाते हैं और न्याय नहीं मिलता। घटना पर जब यह समुदाय प्रदर्शन करता है तो उसे सरकारी नौकरी, घर और पैसे का प्रलोभन देकर मामले को ठंडा कर दिया जाता है। ऐसे मामले हमेशा के लिए ठंडे हो जाते हैं। आइये आपको ऐसे ही कुछ मामलों से रूबरू कराते हैं।
यूपी में कानून व्यवस्था का दम्भ भरने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार 2017 से है। केंद्र में भी BJP की सरकार है। सूबे के सीएम यूपी की कानून व्यवस्था को मजबूत बताने के लिए अपराधियों को मिट्टी में मिला देने जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल करते हैं। बावजूद इसके उन्नाव जिले के सदर क्षेत्र से एक दलित बेटी का अपरहण हो गया। पीड़ित पिता बेटी की बरामदगी के लिए थाने के चक्कर लगता रहा लेकिन दो दिन तक उसकी एफआईआर तक दर्ज नहीं की गई। युवती के पिता को पूर्व मंत्री के बेटे पर पूरा संदेह था। लेकिन पुलिस उस पर हाथ डालने से बचती रही। घटना 8 दिसंबर 2021 की है।
इस घटना के अलावा, यूपी की राजधानी लखनऊ में 29 मार्च 2022 को विकासनगर क्षेत्र में रहने वाले एक दलित की बेटी स्कूल से वापस नहीं लौटी। जब पिता उसे स्कूल से लेने गए तो स्कूल के कर्मचारियों ने उसके घर जाने की बात कही। लेकिन वह पिता घर से ही आ रहा था इसलिए उसे बिलकुल भी विश्वास नहीं हुआ। सर पर चिंता की लकीरों को लिए हुए बेबस पिता ने लगभग दस से ज्यादा बार घर से स्कूल तक के चक्कर में मारे। उसने उसे हर रास्ते पर तलाशा और लोगों से पूछताछ की।
इस दौरान स्कूल से 500 मीटर की दूरी पर मौजूद एक दवाई के दुकानदार ने बच्ची को पहचान लिया। उसने बताया कि उसे दो युवक अपने साथ ले गए हैं। अनजान दुकानदार ने बेटी कि तलाश करने के लिए सीसीटीवी फुटेज भी दिखा दी। सीसीटीवी में छात्रा को दो युवक स्कूटी पर बैठाकर ले जाते दिखे। स्कूटी का नंबर भी साफ दिख रहा था।
बेबस पिता मदद की आस लिए ने दुकान से सौ मीटर दूर मौजूद पुलिस चौकी पहुंच गया। उसने पुलिस को फुटेज दिखाई। लेकिन पुलिस ने इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। पिता दौड़कर विकासनगर थाने गया लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं हुआ। पुलिस इस मामले में कोई भी कार्रवाई नहीं कर रही थी। शायद यहां भी जाति न्याय के आड़े आ गई थी। बेबस पिता अधिकारियों और थाने के चक्कर काट रहा था। चिंता में उसकी रात कट गई। 24 घंटा बीतने के बाद पुलिस ने इस मामले में गुमशुदगी दर्ज कर ली। लेकिन फिर शांत बैठ गई। दो दिनों तक पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की।
पुलिस की इस अनदेखी के कारण एक बड़ी घटना हो गई। 1 अप्रैल 2022 को लखनऊ से लगभग 130 किमी दूर मौजूद रेलवे पुलिस ने पिता को फोन कर छात्रा के रेलवे ट्रैक पर पड़े होने की जानकारी दी। यह सुनकर पिता के पैरों टेल जमीन खिसक गई। 6 दिन इलाज चलने के बाद 7 अप्रैल 2022 को युवती की मौत हो गई। पुलिस ने पोस्टमार्टम करवाया। इस दौरान छात्रा के साथ गैंगरेप करने की जानकारी सामने आई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट देखकर पुलिस हरकत में आए गई और स्कूटी के नंबर के आधार पर तीन युवको को हिरासत में ले लिया। इस मामले में रेप सहित अन्य धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया। मामला कोर्ट में चल रहा है।
ताजे मामले कि बात की जाए तो, हाल ही में यूपी के बागपत जिले के बिनौली में हुई घटना ने दलित छात्रा का भविष्य बर्बाद कर दिया। मुजफ्फरनगर के नई मंडी थाना क्षेत्र के रहने वाले अनुज कुमार बागपत के बिनौली में एक कोल्हू पर परिवार सहित काम करते थे। बीते 27 दिसंबर 2023 को उनकी बहन के साथ छेड़छाड़ की घटना हुई। विरोध करने पर उसे दहकते हुए कोल्हू में फेंक दिया गया। वह पूरी तरह झुलस गई। पीड़ित परिवार ने थाने में लिखित शिकायत की, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। सम्भवतः अनुसूचित जाति में पैदा होने के कारण मामले को दबाने की कोशिश की गई। इस घटना में बुरी तरह झुलस गई युवती के ईलाज के दौरान का वीडियो जब सोशल मीडिया पर वायरल हुआ, तब पुलिस हरकत में आ गई। मामले में लगभग दो दिन बाद मुकदमा दर्ज कर आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया।
यह तीनों मामले तो सिर्फ एक उदाहरण हैं। ऐसे अनगिनत मामले दलितों के आज भी कार्रवाई के लिए पड़े हुए हैं। शोकाकुल परिवार के घर में राशन से ज्यादा इन मुकदमों के कागजात अलमारियों में रखे हुए नजर आते हैं। यह दोनों ही परिवार आर्थिक रूप से बेहद कमजोर हैं। मुकदमों के कारण रोजमर्रा का जीवन भी इससे प्रभावित होता है। मुकदमे में फंसे ऐसे परिवारों को घर के लिए राशन तक जुटा पाना मुश्किल होता है। वह इन्हीं सब मामलों में फंस कर रह जाते हैं।
दलित महिलाओं के मामले में नेशनल क्राईम रिकार्ड्स ब्यूरो के डाटा के अनुसार 2015 से 2020 के बीच दलित महिलाओं के बलात्कार की दर्ज घटनाओं में तकरीबन 45 प्रतिशत उछाल आया है। आश्चर्यजनक रूप से ये डाटा ये भी बताता है कि इस समय भारत में रोज़ दलित महिलाओं और लड़कियों के साथ रेप की करीब 10 घटनाएं होती हैं। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2025-16 के अनुसार भी लैंगिक हिंसा के आंकड़ों में तेज़ उछाल आया है। शेड्यूल्ड ट्राईब्स (आदिवासी और मूल निवासी) के मामलों में कुल 7.8% उछाल आया है जबकि शेड्यूल कास्ट (दलितों) के मामले में ये आंकड़ा 7.3% है।
मार्च 2023 में भारत सरकार ने संसद को सूचित किया है कि 2018 से लेकर अगले 4 सालों के बीच दलितों के ख़िलाफ़ अपराध के क़रीब 1.9 लाख मामले दर्ज किए गए हैं। नेशनल क्राईम रिकार्ड्स ब्यूरो के अनुसार, उत्तर प्रदेश में दलितों पर हमले के क़रीब 49,613 मामले दर्ज किए गए हैं। जबकि, 2018 में 11,924, 2019 में 11,829, 2020 में 12,714 और 2021 में 13,146 मामले दर्ज हुए.
भारत में सिर्फ़ 4 सालों में दलित समुदाय के ख़िलाफ़ अपराध के क़रीब 1,89,945 मामले दर्ज हुए हैं। 2018 में 42,793 – 2019 में 45,961 – 2020 में 50,291 और 2021 में 50,900. इन सब मामलों को मिलाकर क़रीब 1,50,454 मामलों में चार्जशीट दायर की गई जिसके बाद सिर्फ़ 27,754 मुक़दमे दर्ज किए गए. ये सिर्फ़ रिपोर्ट किए गए मामलों का आंकड़ा है, जबकि ऐसे मामले जो लॉ इंफ़ोर्समेंट ऑफ़िसर्स तक नहीं पहुंचते हैं उनका कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है।
दलितों के उत्पीड़न के मामलों को लेकर चर्चित दलित चिंतक अशोक भारती कहते हैं कि, "इस तरह के उत्पीड़न को लेकर तमाम सामाजिक संस्थाएं काम करती हैं। इसके लिए सरकार उन्हें फंड भी देती है। यह संस्थाएं रिपोर्ट तैयार करके जिनेवा में भी पेश करती हैं। लेकिन इन सबसे कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ रहा है। इस प्रकार के उत्पीड़न को रोकने के लिए मजबूत ढांचे की जरूरत है। किसी भी सरकार में न्याय देने के लिए थाने मौजूद हैं, कोर्ट और संस्थाएं मौजूद हैं। लेकिन उन्हें ठीक से चलाने वाले एक विशेष ढाँचे की आवश्यकता है। यह सब संस्थाएं अपने मुताबिक ही काम करती हैं।"
किसी पीड़ित को न्याय दिलाने के लिए यह आवश्यक है कि उसके मामले को शुरुआत से ही संजीदगी से मॉनिटर किया जाये। जब भी कोई घटना हो तो यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी FIR ठीक से दर्ज की जाये। पीड़ित को धमकाया न जाए। यदि कोई समस्या होती है तो पुलिस से मिलकर उस पर कार्रवाई की जाए। कोर्ट में मजबूत पैरवी की जाए। पूरे मामले को अंजाम तक पहुंचाने के बाद ही ठीक तरीके से न्याय कर पाना सम्भव है।
चुनाव जीतने के लिए दलितों की राजनीति करने वाले लोगों को लेकर दलित चिंतक सतीश प्रकाश कहते हैं कि, इस समाज की जब तक सोच नहीं बदलेगी तब तक उसे न्याय मिलना मुश्किल है। सरकार और न्यायपालिका में जो व्यक्ति बैठा है वह उसी समाज से आता है। इसलिए न्याय मिलना मुश्किल होता है। इसके लिए यह जरूरी है कि जब सत्ता दलितों के हाथों में आएगी तब उन्हें न्याय मिल सकेगा। यह देखा भी गया है कि जब दलित व्यक्ति के हाथ में न्याय और फैसला करने की ताकत आई तो उन्हें न्याय मिला है। दलितों के लिए राजनीती करने वाले दलित नेता को भी इसके लिए काम करने की बहुत आवश्यकता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट में बैठे जजों ने एससी एसटी के 90 फीसदी मुकदमों को झूठा करार दिया था। इसका मुख्य कारण घटनाओं से संबंधित मामलों में मजबूत पैरवी और जांच का अभाव ही रहा है।
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