वाराणसी- " मैं 20 सालों से चुनाव लड़ रहा हूं, मेरा पर्चा वाराणसी सीट से 2014 और 2019 में खारिज हुआ। इस बार भी फार्म लेकर वाराणसी निर्वाचन अधिकारी कार्यालय गया लेकिन मेरे सभी प्रस्तावक किन्नर थे। मुझे पूछा गया- ये सब लोग कौन हैं , मैंने बताया कि ये सभी किन्नर समाज के हैं तो उन्होंने कहा- एक भी आदमी नहीं ला सकते हो क्या, ऐसा कहते हुए मेरा फार्म फाड़ दिया, ये मेरा ही नही किन्नर समाज का अपमान है।"
गले में 'मैं जिंदा हूं' की तख्ती लगाए इस व्यक्ति को देख कर आते जाते लोगों को शायद हंसी आ जाती है लेकिन इनके जीवन संघर्षों को जानने के बाद कोई भी इनकी हिम्मत की दाद दिए बिना नहीं रह सकता।
मिलिए - 40 वर्षीय संतोष मूरत सिंह 'मैं जिंदा हूं' से जो पिछले 2 दशक से खुद को जिंदा साबित करने की जद्दोजहद में जी जान से जुटे हुए हैं। संतोष की अपनी कहानी किसी हिंदी फिल्म से कम नाटकीय नहीं है. किस तरह एक ज़िंदा इंसान कागजों में मृत है और जीते जी उसे अपने ज़िंदा होने का सबूत पग पग पर देना पड़ता है - यही संतोष मूरत सिंह के जीवन का सार है.
सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर आम जन से लेकर नेताओं तक अपनी बात पहुंचाने से लेकर बड़े बड़े नेताओं से मुलाकात, जंतर मंतर से लेकर वाराणसी की सड़कों तक धरना --- सब कुछ करने के बाद भीआज तक संतोष सरकारी कागजों में खुद को जीवित घोषित करवाने में सफल नहीं हो सके हैं।
मंगलवार 14 मई 2024 को संतोष पुलिस की हिरासत में बाहर आये। जाहिर बात है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने चुनाव लड़ने की इच्छा रखने वालों की राह आसान तो निश्चित तौर पर नहीं होगी. तो हुआ ये कि 11 मई को मैं जिंदा हूं को अवैध हिरासात में रखा गया. पुलिस का कहना है की गाँव वालों की शिकायत पर 12 को पूछताछ हेतु लाया व तत्काल छोड़ दिया.
लेकिन द मूकनायक से बातचीत में संतोष ने दावा किया कि उन्हें 4 दिन अकारण अवैध रूप से हिरासत में रखा और 14 मई को शाम 6 बजे छोड़ा गया. " ये पहली बार नहीं है, इस बार को मिलाकर ये 109वी बार है जब पुलिस ने मुझे हिरासत में लिया है, 20 सालों से खुद को ज़िंदा जो साबित करने की कोशिश कर रहा हूँ- संतोष ने अपनी पीड़ा साझा की.
संतोष मूरत सिंह वाराणसी के चौबेपुर के छितौनी के रहने वाले हैं। " मेरे पिता मूरत सिंहआर्मी में थे जिनका वर्ष 1988 और मां का 1995 में निधन हो गया। पिता की सारी प्रॉपर्टी मेरे नाम पर हो गई लेकिन मैं उस समय नाबालिग था" संतोष ने बताया. वर्ष 2000 में अभिनेता नाना पाटेकर 'आंच' फिल्म की शूटिंग के लिए संतोष के गांव में आए, " मैंने इस दौरान बढिया खाना बनाकर खिलाया जिससे वे बहुत खुश हुए और मुझे मुम्बई चलने के लिए कहा।" संतोष नाना पाटेकर के साथ मुम्बई चले गए और नाना के घर खाना बनाने का काम करने लगे, वे करीब तीन साल तक अपने गांव नहीं जा पाए। उनकी गैर मौजूदगी का फायदा उनके गाँव के कुछ गलत लोगों ने उठाया और संतोष को 2003 मुम्बई रेल ब्लास्ट में मारा जाना प्रचारित करते हुए उनकी मृत्यु की रस्में पूरी कर दी .
राजस्व अभिलेखों के अनुसार, उनकी मौत 2003 में मुंबई में ट्रेन में हुए बम धमाके में हो चुकी है। संतोष कहते हैं, " गांव के लोगों ने मेरी तेरहवीं कर दी। इस सबके बाद लेखपाल, सेक्रेटरी और ग्राम प्रधान के साथ मिलकर फर्जीवाड़ा करके फर्जी तरीके से बने मृत्यु प्रमाण पत्र के आधार पर मेरे ही कुछ लोगों ने मेरे नाम की साढ़े बारह एकड़ भूमि अपने नाम कराकर बेच डाली, अब मेरे पास अपनी जमीन नहीं रही" . तब से संतोष सरकारी कागजों में खुद को ज़िंदा साबित करने की जतन में लगे हैं.
संतोष ने बताया , " मुम्बई से लौटकर मैं सबसे पहले पुलिस के पास गया लेकिन वहां से न्याय नहीं मिला तो वकील के पास गया. वकील ने न्याय दिलाने का भरोसा देकर पैसे खा लिए। आखिर में 40 हजार रुपए की डिमांड की। इतने पैसे न होने के कारण मैंने उन्हें बोला केस ही बंद कर दो, जिंदा होते हुए मृत घोषित किए गए संतोष ने उसके बाद जिंदा होने की लड़ाई शुरू की।
" मैं वर्ष 2011-12 में दिल्ली के जंतर मंतर पर अन्ना हजारे के धरने में शामिल हुआ। अन्ना को जब मैंने पूरी आपबीती सुनाई तो उन्होंने बोला तब तक धरना नहीं छोड़ना, जब तक जिंदा न हो जाना।" संतोष ने अन्ना हजारे की बात गाँठ बाँध ली और तभी से अनवरत धरना दे रहे हैं. " आप किसी से मेरा पता पूछेंगी तो बहुत आसानी से बता देगा - हम सुबह 10 से शाम 5 बजे तक वाराणसी कलेक्ट्री के सामने धरने पर रहते हैं, रात को यहाँ से लोगों को भगा दिया जाता है , इसलिए वहां चले जाते हैं जो मुर्दों के लिए इस नगरी में जगह है - मणिकर्णिका घाट. रात को घाट पर सो जाते हैं और सुबह गंगा स्नान करके वापस आ जाते हैं अपने मिशन पर" - संतोष ने सहजता से अपनी पीड़ा बयान की लेकिन सुनने वाले उनका अप्रदर्शित दर्द बाखूबी समझ सकते हैं.
आप चुनाव क्यों लड़ रहे हैं- इस बात पर संतोष हंस पड़ते हैं , " मैडम जो भी चुनाव लड़ रहे हैं वो एमपी- एमएलए- प्रेसिडेंट वगेरह बनने के लिए चुनाव लड़ते हैं लेकिन मुझे कुछ नहीं बनना. मैं सिर्फ चाहता हूँ कि कोई भी सरकार हो उन तक ये बात पहुँच जाए कि संतोष मूरत सिंह हूँ और मैं ज़िंदा हूँ- तभी 24 घंटे ये तख्ती गले में लटकाए घूमता हूँ...मैं ज़िंदा हूँ - तभी तो मुझे पुलिस ने गिरफ्तार किया ..मैं ज़िंदा हूँ तभी तो मैंने चुनाव का परचा भरा...मैं ज़िंदा हूँ तभी ना मैं धरना दे रहा हूँ...ये सभी मेरे सबूत हैं ज़िंदा होने के, मुझे प्लीज कागजों में ज़िंदा करवा दो..!
एक पुराना किस्सा याद करते हुए संतोष कहते हैं कि वे सुषमा स्वराज से मिले थे जब वो कैंसर के इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती थी. " मैंने उन्हें कहा - मैडम मैं तो एक मुर्दा हूँ - आपको एक गुर्दा देना चाहता हूँ ताकि हम दोनों एक एक गुर्दे पर ज़िंदा रह सकें- सुषमा जी को मेरी बात टच कर गई और उन्होंने अपने मंत्रालय के जरिये कुछ मदद करने का प्रयास भी किया, लेकिन बाद में उनका निधन हो गया.
संतोष को इस बात का रंज है कि उन्होंने बड़ी मुश्किल से लोगों से भिक्षा और सहायता मांग कर चुनाव लड़ने के लिए 25 हजार रूपये जमा किये थे लेकिन " मुझे चुनाव अधिकारी ने अमानत राशि ट्रेजरी में जमा करवाने को बोला, मैंने राशि जमा करवा दी लेकिन मेरा फॉर्म नहीं लिया और उसके बाद मुझे पुलिस ने चार दिन बंद रखा. जब मैं आज अपना पैसा मांगने गया तो बोला प्रक्रिया पूरी होने के बाद पैसे खाते में आ जायेंगे , अभी तुम्हे नहीं दिया जा सकता."
इस दौरान आजाद अधिकार सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमिताभ ठाकुर ने अपने पार्टी के संतोष मूरत सिंह उर्फ मैं जिंदा हूं को वाराणसी लोकसभा चुनाव लड़ने से रोकने के लिए जानबूझकर अवरोध उत्पन्न करते हुए थाना चौबेपुर में कल से गैरकानूनी ढंग से बैठाए जाने के संबंध में चुनाव आयोग को शिकायत भेजी है.
ठाकुर ने कहा है कि मैं जिंदा हूं को गैरकानूनी हिरासत में रखा गया है. उनके द्वारा ₹25000 का ट्रेजरी चालान भी जमा कर दिया गया किंतु उनके अनुसार अधिकारियों ने उन्हें गाली गलौज देकर उनका नामांकन सेट फाड़ दिया है.
अमिताभ ठाकुर ने इसे अत्यंत गंभीर बताते हुए चुनाव आयोग से तत्काल प्रकरण की जांच करते हुए दोषी अधिकारियों के विरुद्ध एफआईआर सहित समस्त विधिक कार्रवाई किए जाने की मांग की है.
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